tag:blogger.com,1999:blog-18769146723028388972024-03-27T02:21:03.179-07:00राजपूतो का इतिहासजय क्षात्र सनातन धर्म की यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.comBlogger31125tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-422496174258740552017-10-06T01:46:00.000-07:002018-06-04T04:35:41.889-07:00असली यदुवंशी (अहीर बनाम यदुवंश )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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ब्रज का इतिहास भाग -2 श्री कृष्णदत्त वाजपेयी ने मथुरा गजेटियर 1911 मे पृष्ठ 106-14 के अनुसार लिखा है की -"अहीर अपना उत्पत्ति स्थान मथुरा को बतलाते है |उनका कहना है की वे कृष्ण के समय मे वृंदावन के ग्रामीण बनिया थे |ज़िनके पास 1000 से अधिक गाये होती थी उनको नन्दवंश कहा जाता था ,ज़िनके पास कम होती थी उनको ग्वालवंश कहा जाता था |मथुरा मे मुख्यत :ग्वालवंश थे |'आगे लिखते है की कृष्ण के साथ संबंध्द जातिया मथुरा की भाषा और संस्कृती से विशेष संबंध रखती है ,उन जातियो मे अहीर -आभीर भी आते है | पौराणिक साहित्य मे इनकी मिश्रित उत्पत्ति बताई गई है |अहीरो को वायूपुराण मे मलेच्छ कहा गया है |पंतजली ने उनका संबंध शुद्रो से जोडा है |मनु ने अहीर को ब्रह्मण पिता और अम्बाष्ठ स्त्री से उत्पन्न माना है |अहीर जाती के बारे मे पौराणिक ,एतिहासिक जितने भी वर्णन या उल्लेख मिलते है प्राय: सभी मे स्पष्टत:अहीर जाती यादव ,यदुवंशी से भिन्न जाती है ,इसका प्रत्यक्ष प्रमाण सामाजिक जीवन मे भी हमेशा से मौजुद रहा है की यदुवंशीयो का अहीर जाती से किसी भी प्रकार (रिश्ते ,नाते ,विवाह संबंध ,व्यवहारिक चाल चलन )का कोई भी सामाजिक व्यवहारिक संबंध नहीं रहा है |प्राचीन काल से ही सामाजिक जीवन दोनो का भिन्न रहा है <br />
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<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSpkmyA3-7S3VWVEEICZH4l95Km5SN36JcMyVFqStZ3L6PMkx2I0G7UABrSU4XpVcH9_45mzQj3n1hVzRDU0JNNjzoJPUWIsyK4eG0RtMRP43ieso8Rz9ix3wGBygQIaCmZUk9vv4dj_JV/s1600/%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25A7.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="183" data-original-width="275" height="211" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSpkmyA3-7S3VWVEEICZH4l95Km5SN36JcMyVFqStZ3L6PMkx2I0G7UABrSU4XpVcH9_45mzQj3n1hVzRDU0JNNjzoJPUWIsyK4eG0RtMRP43ieso8Rz9ix3wGBygQIaCmZUk9vv4dj_JV/s320/%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25A7.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">श्री कृष्ण मेघाडम्बर छत्र जेसलमेर में सुरक्षित हे </td></tr>
</tbody></table>
अहीर बनाम यदुवंशी भाग -2. <br />
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एक और तो अहीर अपनी उत्पत्ति यदुवंश जैसे क्षत्रिय राजवंश से जोड रहे है --यदुवंशी राजा आहुक से उत्पन्न है ,यदुवंशी राजा देवमीढ की दुसरी पत्नी वैश्यवर्णा से उत्पन्न है ,कृष्ण वंश मे उत्पन्न है आदी |जबकी ये बात सार्वभौमिक सत्य है की कृष्ण के पिता वृष्णीवंशी (यदुवंश की शाखा )वासुदेव थे तथा माता अंधकवंशी (यदुवंश की शाखा )देवकी थी ,इस तथ्य को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है ,तो फिर ये आभीर जाती से उत्पन्न कहा से और कब से हुए ?क्या ये आहुक ,देवमीढ ,कृष्ण आदी जो यदुवंशी क्षत्रिय थे ,ये भी आभीर थे ?होने चाहिए |तो मे कहना चाहूँगा की एतिहासिक पौराणिक तथ्य को बिना शोध के बिना सोचे विचारे नहीं लिखना चाहिए |तथ्यहीन अप्रमाणिक उल्टा सिधा लिखने से वास्तविक इतिहास बदल नहीं जाता और न किसी दुसरे के इतिहास को चुराने से अपना बन जाता है | कोई भी इतिहासकार यह निश्चित नहीं कर सकता है की अहीर (वर्तमान छद्म यादव )यदुवंश से उत्पन्न है सभी ने अनुमानत: विवरण लिखा है ,क्योकि अहीर शब्द केवल कृष्ण काल से ही आया है लेकिन इनकी उत्पत्ति का प्रामाणिक और विश्वसनिय इतिहास उस काल मे भी नहीं मिलता है<br />
ब्रज का इतिहास भाग -2 श्री कृष्णदत्त वाजपेयी </div>
यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com123tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-28466866879037604032017-10-01T02:00:00.000-07:002017-10-02T01:52:25.984-07:00बनारस मन्दिरों का शहर राजा मानसिंह आमेर (जयपुर) की वजह से कहलाया <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="_5pbx userContent _22jv _3576" data-ft="{"tn":"K"}" id="js_9">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijRMYVl7xWMQnBHwo231FbhmnpcqczEsbU9lW1CJWuvj7xzTUCFKDx6inX_oR-H1BRWiooiAc0q3DGP8vBbJsqrX8FZPaUFQXRUY8I_s71m2l-gyyCWOPmStW3-eonOrd8pRlyzdV23lr4/s1600/%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%259C%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%259C.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="177" data-original-width="284" height="124" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijRMYVl7xWMQnBHwo231FbhmnpcqczEsbU9lW1CJWuvj7xzTUCFKDx6inX_oR-H1BRWiooiAc0q3DGP8vBbJsqrX8FZPaUFQXRUY8I_s71m2l-gyyCWOPmStW3-eonOrd8pRlyzdV23lr4/s200/%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%259C%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%259C.jpg" width="200" /></a></div>
न होते राजा जयपुर, तो न बनता बनारस मंदिरों का शहर <br />
<br />
-एक दिन में एक हजार मंदिर के निर्माण की राजा मानसिंह ली थी शपथ और उसे पूरा किया <br />
आवेश तिवारी <br />
वाराणसी -यह वर्ष 1567 में सितम्बर का महीना था। उत्तर भारत की यात्रा कर
वापस लौटे मुग़ल सम्राट अकबर के वफादार सेनापति और उनके नवरत्नों में से
एक मानसिंह बादशाह के दरबार में हाजिर हुए और लगभग चीखते हुए कहा " हुजुर,
पूरा बनारस तबाह हो चुका है ,हजारो मंदिर उजाड़ दिए गए हैं ,शहर को आपके
निगाहें इनायत की जरुरत है "।अकबर जो खुद भी नहीं जानता था वो बनारस से
नाराज क्यूँ है,मानसिंह की आँखों में छायी उदासी को पढ़ सकता था। उसने
बिना देर किये कहा "मानसिंह ,बनारस को आप देखें "।king man singhफिर क्या
था,बार बार बनता और ध्वस्त होता बनारस एक बाद फिर चमक उठा ।मानसिंह ने
बनारस में डेरा डाल लिया और राजस्थान के कारीगरों की पूरी फ़ौज काशी के
नवनिर्माण में लगा दी ।इतिहासकार मानते हैं कि अकबर के इस सेनापति ने बनारस
में एक हजार से ज्यादा मंदिर और घाट बनवाये ,मानसिंह के बनवाये घाटों में
सबसे प्रसिद्द मानमंदिर घाट है इसे राजा मानसिंह ने बनवाया था बाद में
जयसिंह ने इसमें वेधशाला बनवाई ।बनारस में अनुश्रुति है कि राजा मानसिंह ने
एक दिन में 1 हजार मंदिर बनवाने का निश्चय किया ,फिर क्या था उनके
सहयोगियों ने ढेर सारे पत्थर लाये और उन पर मंदिरों के नक़्शे खोद दिए इस
तरह राजा मानसिंह का प्रण पूरा हुआ। <br />
न होते मानसिंह तो कैसे बनता काशी विश्वनाथ <br />
अम्बर के राजा मानसिंह और बनारस का नाता आज भी पूरे शहर में नजर आता है।
मानसिंह के वक्त की सबसे प्रसिद्द घटना विश्वनाथ मंदिर की पुनः रचना की
है,अकबर ने पुनर्निर्माण का काम मानसिंह को सौंपा था।लेकिन जब मानसिंह ने
विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाना शुरू किया तो तो हिन्दुओं ने उनका विरोध
करना शुरू कर दिया।गौरतलब है कि हुसैन शाह शर्की (1447-1458) और सिकंदर
लोधी (1489-1517) के शासन काल के दौरान एक बार फिर इस मंदिर को नष्ट कर
दिया गया था। हिन्दू रूढ़िवादियों का कहना था कि मानसिंह ने अपनी बहन
जोधाबाई का विवाह मुग़लों के परिवार में किया है वो इस मंदिर का निर्माण
नहीं करवा सकते ,जब मानसिंह ने यह सुना तो निर्माण कार्य रुकवा दिया ।
लेकिन बाद में मानसिंह के साथी राजा टोडर मल ने अकबर द्वारा की गयी वित्त
सहायता से एक बार फिर इस मंदिर का निर्माण करवाया।<br />
वैधशाळा का भी कराया था निर्माण <br />
मानसिंह ने मानमंदिर घाट का निर्माण यात्रियों के ठहरने के लिए कराया
था,आज भी इसे लोग जयपुर राजा का मंदिर कहते हैं उन्ही के वंश के सवाई
जयसिंह द्वितीय ने जो अपने समय के प्रसिद्द ज्योतिर्विद थे 1737 में एक
वेधशाला स्थापित की ।बताया जाता है कि समरथ जगन्नाथ नाम के जयसिंह के एक
प्रसिद्द ज्योतिष ने इस वेधशाला का नक्शा बनवाया था और जयपुर के ही सरदार
महोन ने जो जयपुर के एक शिल्पी थी यह वेधशाला तैयार कराई। इसमें कई किस्म
के यंत्र थे जिनसे लग्न इत्यादि साधने का काम किया जाता था । <br />
तुलसीदास के शिष्य थे मानसिंह <br />
मानसिंह और बनारस का नाता यही ख़त्म नहीं हुआ।अकबर ने जब 1582 में फतेहपुर
सिकरी में खुद के द्वारा स्थापित किये गए नए धर्म "दीन -ए- इलाही पर चर्चा
करने विद्वानों को बुलाया तो उस वक्त उसका विरोध केवल राजा भगवंत दास ने
किया था ,लेकिन बाद में मानसिंह ने भी इसका विरोध किया और अपने पुत्र के
साथ बनारस में गोस्वामी तुलसीदास से शिक्षा लेने लगे ,गौरतलब है कि
तुलसीदास ,अकबर के समकालीन थे। इतिहास बताता है कि जब मुग़ल सेना इंदु नदी
को पार करके दुश्मनों पर आक्रमण करने से घबरा रही थी उस वक्त मानसिंह को
तुलसीदास की चौपाई याद आई "सबै भूमि गोपाल की या में अटक कहाँ', जाके मन
में अटक है सोई अटक रहा।''इस चौपाई को कहने के बाद मानसिंह अपने नेतृत्व
में सेना को लेकर नदी पार कर गए।<br />
लेख --आवेश तिवारी,बनारस</div>
<div class="_1rzm rfloat">
<span id="u_0_11"><br /></span></div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-26847799116107594082017-09-14T20:07:00.000-07:002018-06-04T04:36:00.572-07:00क्षत्रिय का कर्तव्य (मेहँदी का फूल) मार्मिक <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiN4IP1BNYzmymeTQSh76Qtd4rjKFD2tZ8QwQG8imK-fJ9EbhlSsBfYYbx_UopVRMCKlgRwNTIdE0ytx-Hytia6NqsaJqR0B35Cr3Bsk8V8xm9qJjYLd5vVIN_OV3xrVcnCD_jj6FlDmBVW/s1600/%253B%253Bl.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="201" data-original-width="251" height="256" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiN4IP1BNYzmymeTQSh76Qtd4rjKFD2tZ8QwQG8imK-fJ9EbhlSsBfYYbx_UopVRMCKlgRwNTIdE0ytx-Hytia6NqsaJqR0B35Cr3Bsk8V8xm9qJjYLd5vVIN_OV3xrVcnCD_jj6FlDmBVW/s320/%253B%253Bl.jpg" width="320" /></a></div>
दूर दूर तक विस्तृत रेगिस्तान। सूना और शांत। कही कही पर छोटी छोटी बेर की झाडियाँ और खेजडे के वृक्ष। शेष रेत ही रेत। आग उगलती धुप और स्तब्ध पवन। ऐसी निस्तब्धता को भंग करती हुई एक बस कच्ची सड़क पर तेज रफ़्तार से जा रही थी। बस में पूरे यात्री थे। ड्राईवर के ठीक पास दो बूढ़े चौधरी बैठे थे जिनके चेहरे पर जीवन के संघर्ष की प्रतिरूप झुर्रियाँ झलक रही थी। पीछे कितने अपिरिचित, अनजान स्त्री पुरुष। पुरुष रंग बिरंगे साफे पहने हुए व् स्त्रियां ओढने ओढ़े हुई थी। सबसे पीछे की सीट पर एक राजपूत मुकलावा (गौना) करके आ रहा था। उसके चार सीट आगे एक सेठ अपनी नवविवाहित बेटी को लेकर अपने गाँव लौट रहा था।</div>
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वह लड़की अद्वीतीय सुंदरी थी। उसका केसर सा रंग केसरिया वस्त्रों में एकमेक हो रहा था और ओढनी पर सलमे सितारे जड़े हुए थे जो उसके सौंदर्य में चार चाँद लगा रहे थे। कच्ची सड़क होने की वजह से हिचकोले जरूरत से ज्यादा आ रहे थे पर ड्राईवर अत्यंत सजगता से स्टीयरिंग सम्हाले था। अप्रत्याशित,जिधर बस जा रही थी उसके पूर्व की ओर धुल के बादल उड़ते नज़र आये। सारे यात्री शंकित हो गए। एक चौधरी ने बीडी सुलगाते हुए कहा,“शायद ‘भटलोटिया’ (हवा और धुल का गुब्बार) उठा है।” दूसरा चौधरी जिसकी आवाज़ भारी थी,बोला “आंधी भी आ सकती है।इस मरुभूमि में बरखा कम आंधी ज्यादा आती है।” सेठ ने अपनी इन्द्रधनुषी पगड़ी को उतारकर अपने गंजे सर पर चमकती पसीने की बूंद को पोंछा।फिर अपनी लाडली नवविवाहित लड़की मन्नी से धीरे धीरे कहने लगा, “सुन री लाडली, आंधी आने वाली है, जरा सचेत रहना।”</div>
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नवविवाहिता मन्नी ने गले में सोने का तिमणिया और काठलिया पहन रखा था। सिर पर बड़ा बोर था। दोनों कानो में बालियाँ झलमला रही थी।नाक में काँटा था।पांवो में चांदी के भारी भारी बिछ्वे।बाप का संकेत पाकर मन्नी ने अपने ओढने से अपने शारीर को ढांक लिया। मुकलावा करके आने वाला राजपूत अपनी कमर में लटकती तलवार को यूँ ही देख रहा था। उसके समीप उसका मित्र अपने हाथ की कटार से खेल सा रहा था। धुल के बादल और गहरे हुए।वे बस के समीप आने लगे।यात्रियों की आँखे उस ओर जम गयी।ड्राईवर ने बस की रफ़्तार को और तेज कर दिया। तभी गोली की आवाज़ सुनाई पड़ी। गोली की आवाज़ के साथ यात्रियों ने देखा कि धुल के बादलों को चीरती हुई एक जीप आ रही है।जीप में चार आदमी बैठे हैं जिनके चेहरे कपड़ो से ढके हुए हैं।</div>
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एक यात्री चिल्लाया, “डाकू! डाकू आ गए हैं!” सारी बस में सनसनी फ़ैल गई। डाकू शब्द फुसफुसाहट में बदल गया। सेठ ने जोर से कहा, “बस और तेज करो।” एक गोली बस के अगले शीशे के ऊपर की ओर टकराकर हवा में उड़ गयी।ड्राईवर के हाथ से स्टीयरिंग छूट गया।उसने घबराकर गाडी रोक दी।चंद क्षणों में ही जीप बस के आगे थी। अब यात्री जीप में बैठे सभी लोगो को अच्छी तरह देख सकते थे। बस में मृत्यु सा सन्नाटा छा गया था। लोग एक दुसरे को शंकित दृष्टि से ऐसे देख रहे थे जैसे वे पूछ रहें हो की अब क्या होगा? जीप में बैठे डाकू उतर आये थे। ड्राईवर के अतिरिक्त पांच लोग और थे। एक के हाथ में तनी हुई बन्दूक थी। बन्दूकधारी ने गरजकर क़हा, “तुम लोग अपनी जान की खैर चाहते हो तो चुपचाप बैठे रहो।कोई भी हिले दुले नहीं!” यात्रियों की साँसे गले की गले में रह गयी।</div>
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बन्दूकधारी ने फिर अपना परिचय दिया, “मैं डाकू तेज सिंह हूँ। मैं तुम लोगो में से किसी को कुछ नहीं कहूँगा...मैं सिर्फ इस सेठ की बेटी को लेने आया हूँ।” शेष यात्रियों ने राहत का अनुभव किया लेकिन सेठ और उसकी नव परिणीता बेटी काँप उठी।लड़की मन्नी अपने बाप से चिपट गयी। तेज सिंह उन दिनों राजस्थान का कुख्यात डाकू था। उसने कई जाने ली थी और वह सच्चे डाकुओं की मान मर्यादा का परित्याग कर के नीच से नीच काम करने पर उतारू हो गया था। चूँकि दुसरे डाकू अपने पेशे की नैतिकता और उसके धर्म को लेकर चलते थे, इसलिए उन्होंने तेज सिंह को स्पष्ट कह दिया था कि वे अब उसके साथ नहीं रह सकते।लड़कियों की इज्ज़त से खेलना उनका धर्म नहीं है...पर वासना में लिप्त तेज सिंह ने उनकी कोई परवाह नहीं की। तेज सिंह में एक राक्षश की सारी प्रवृतियाँ उत्पन्न हो गयी थी।</div>
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तेज सिंह एक बार फिर सिंह की भाँती गरजा, “सेठ,अपनी बेटी मेरे हवाले राजी खुशी कर दे।” मन्नी ने अपने बाप को मजबूती से पकड़ इया। दोनों थर थर कांपने लगे।दोनों के चेहरे वर्षों से बीमार की तरह पीले पड़ गए थे। तेज सिंह की आँखों में रक्तिम डोरे उतर आये।वह उस खिडकी के पास आकर बोला, “सुना नहीं सेठ? लड़की को मेरे हवाले करो वरना मैं गोली मारता हूँ।” लड़की क्रंदन करती हुई अपने भयभीत बाप से और लिपट गयी। रूआंसे स्वर में बोली, “नहीं बापू, नहीं! मुझे इसके हवाले न करना...बापू...” तेज सिंह चिल्लाया, “बन्ना, जाकर लड़की को ले आ।तेज सिंह का साथी अपने सरदार का आदेश पाकर बस में घुसा।तेज सिंह ने तत्काल एक हवाई फायर किया। सारे यात्री कलेजा पकड़ कर बैठ गये। उन्हें महसूस हुआ की गोली उनके सीने में दाग दी गयी है।सबकी आँखों में आशंकित म्रत्यु का भय और जड़ता उभर उठी।</div>
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बन्ना ने भीतर घुसकर बाप से लिपटी बेटी को छुड़ाना चाहा।बाप ने कांपते हाथों को जोड़कर प्रार्थना की, “माई बाप! मेरी बेटी को छोड़ दीजिए, में आपको सारे जेवर दे दूँगा।” परन्तु हवस में अंधे तेज सिंह को उस लड़की के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। जब बाप ने लड़की को नहीं छोड़ा, तब तेज सिंह ने बन्दूक के पिछले हिस्से से सेठ के सिर पर चोट की। आर्क्त्नादो के बीच लड़की घसीटकर बाहर निकाल ली गयी। सब यात्री निर्जीव से बैठे रहे।वे गूंगे बहरे बनकर अपनी सीटों से चिपक गए थे। लग रहा था कोई भी नहीं है इस बस में।</div>
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लड़की अब भी चीख चिल्ला रही थी। बन्ना उसे अपनी बाहों में ले चूका था। तभी मुकलावा करके लौट रहे राजपूत युवक की पत्नी थोडा सा घूंघट हटाकर बस में बैठे हुए लोगो से तेज स्वर में बोली, “आप सब चुल्लूभर पानी में डूब मरिये। आपके सामने एक लड़की को डाकू उठाकर ले जा रहे हैं, और आप हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। थू है आप सब पर।” अचानक इस तेज फर्कार बस में तनिक हलचल हुई। राजपूत अपनी पत्नी को प्रशनवाचक दृष्टि से देखने लगा। </div>
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शायद वह सोच रहा हो कि इसे यकायक यह क्या हो गया है? या हमारी कौटुम्बिक परम्पराओ को तोड़कर क्यों हुंकार रही है? सबके सामने क्यों बोल रही है? राजपूत-पत्नी की आँखों से अंगारे बरस रहे थे। उसने थोडा सा घूंघट खीचकर अपने पति से पुनः कहा, “मैं आप से क्षमा मांगती हूँ,कुंवर सा! आप मुझे मेरी इस गलती की बाद में कोई सजा दे दीजियेया,किन्तु कुंवर सा, आज मुझे मालूम हो गया कि आपकी रजपूताई घास चरने चली गयी है। जो क्षत्रिय गौ,ब्राह्मण,अबला का रक्षक कहलाता था,उसी के सामने एक लड़की मुक्ति की भीख मांग रही है और आप पत्थर की तरह चुपचाप बैठे हैं?आपका खून पानी हो गया है? वर्ना क्या मजाल थी कि एक सच्चे राजपूत के होते हुए कोई चोर डाकू किसी के बाप से उसकी बेटी छीन कर ले जाए।” आपनी पति की तेजस्वी ललकार पर राजपूत खड़ा हो गया। उसके सिर पर लाल रंग का साफा था। उसकी बांकडली मूंछो पर उसका हाथ ताव देने चला गया। जोश में उसके नथूने फडकने लगे।फिर वह अपनी तलवार की मूठ पर हाथ रखकर इतना ही बोल पाया “कुंवराणी !” कुंवराणी पूर्ववत स्वर से बोली, “आज सारे इतिहास को आग लगानी पड़ेगी। राजपूतों के शौर्य को मिटाना होगा। वरना एक राजपूत के होते हुए डाकू किसी लड़की को उठाकर ले जाए। छि: छि:!”</div>
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राजपूत चीख पडा। “क्षत्राणी,चुप रहो!”</div>
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“मैं चुप नहीं रहूंगी। मैं कहूँगी कि आप सब मर्दों को चूडियाँ पहन लेनी चाहिए।” उसने फटकारते हुए कहा।</div>
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सेठ की बेटी को जीप में डाल लिया था । वह क्रंदन करती हुई बेहोश हो गयी थी। खूंखार डाकू तेज सिंह बन्दूक लेकर उसके समीप बैठ गया। </div>
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उसने ड्राईवर को आज्ञा दी, “जीप रावाना करो।” पर जीप घर्र-घर्र करके रह गयी।</div>
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तेज सिंह ने बन्दूक के पिछले हिस्से से ड्राईवर को हल्का-सा धक्का देकर कहा, “जीप चलती क्यों नहीं?”</div>
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कुंवराणी ने सचमुच अपने हाथ की चूडियाँ खोलकर अपने पति की ओर बढ़ा दी, “लीजिए,इन्हें पहनकर आप बैठिये, और तलवार मुझे दीजिए।” राजपूत ने आवेश में कांपते हुए अपने स्वर पर काबू करके कहा, </div>
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“कुंवराणी, मैं राजपूत तो वही हूँ पर समय बदल गया है।”</div>
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“समय कैसा बदल गया? राजपूत के लिए दूसरों की रक्षा करने का कोई समय नहीं होता।”</div>
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तेज सिंह पागलो की तरह चीखा, “जीप चलाओ!”</div>
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राजपूत ने किंचित व्यथित स्वर में कहा, “जरा होश में आकर बात करो। हम अभी गौना करके आये हैं। तुम्हारे हाथों की मेहंदी का रंग भी अभी नहीं उतरा है। घर पर ठुकराणी सा और ठाकुर सा हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसे समय हमें मत ललकारो!” </div>
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जीप ड्राईवर ने कहा, “सरदार, बैटरी बैठ गयी है।” तेज सिंह चीखा। “क्या बकते हो?” “सरदार,सच कह रहा हूँ।” राजपूतानी ने हाथ जोड़कर विनीत स्वर में कहा, “आपके माता पिता जब सुनेंगे कि उनका बेटा एक लड़की की रक्षा नहीं कर पाया, तो जीते जी मर जायेंगे।”</div>
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“स्थिति को देख लो। पल भर में तुम विधवा हो सकती ही !”</div>
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“विधवा?...कुंवर सा, विधवा तो मैं तब भी हो सकती हूँ जब आप खिलखिलाकर हँसे और हँसते ही परलोक सिधार जाएँ। पर यह मृत्यु कितनी महान और आदरमयी होगी ! यदि आपने उस अबला की रक्षा नहीं की, तो मैं समझूंगी कि मैं जीते जी विधवा हो गयी हूँ।”</div>
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राजपूत अब अपने आप को रोक नहीं सका। वह बावला हो गया। उसके नेत्र से अंगारे से दहकने लगे। वह तडपकर बोला। “तुम राजपूत के जौहर देखना चाहती हो?”</div>
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“मैं उसे अपने धर्म पथ पर चलते देखना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ, वह अपने अतीत को न भूले। वह अपने शौर्य और कर्तव्य को ना भूले।”</div>
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उसी समय एक कार आ गयी। तेज सिंह ने अपने ड्राईवर को तत्परता से कहा, “इस कार की बैटरी लगाओ।” उसने हाथ के इशारे से कार को रोक दिया। राजपूत ने अपने साथी की कटार ली। भूखे बाज की तरह वह बस से उतरा। तेज सिंह बन्दूक लिए खड़ा था। राजपूत ने अपनी कटार फेंकी, कटार तेज सिंह की पीठ पर जा कर लगी। तेज सिंह ने बन्दूक तानी। राजपूत तलवार निकालकर उस पर झपटा। फायर! राजपूत का एक हाथ जख्मी हो गया। उसने उसकी कोई परवाह नहीं की, वह तेज सिंह पर टूट पडा। उसको इस तरह टूटते हुए देखकर राजपूत का साथी भी लपका। तेज सिंह दूसरा फायर करना चाहता ही था कि उसके साथी ने बन्दूक को पकड़ कर ऊपर कर दिया।</div>
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राजपूत ने तलवार के वार शुरू कर दिया। जिस डाकू के तलवार लग गयी, वह वहीँ ढेर हो गया। लेकिन तेज सिंह बलिष्ठ और साहसी था। उसने जोर के धक्के से राजपूत के साथी को गिरा दिया। बन्दूक को उस पर तानकर जैसे ही फायर करना चाहा, वैसे ही राजपूत ने तेज सिंह पर तलवार का वार कर दिया। तेज सिंह को एक बार धरती घूमती हुई लगी। उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। लेकिन वह खूंखार भेडिया फिर से संभला। पूरे जोश के साथ फिर से वह राजपूत पर टूट पडा।</div>
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तभी राजपूतानी चिल्लाई, “आप सब बस में बैठे बैठे क्यों डर रहे हैं? जाइए न, उनकी मदद कीजिये!जाइए!”</div>
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उसकी ललकार पर एक जाट और ड्राईवर कूद पड़े। ड्राईवर के हाथ में एक लोहे की हथौड़ी थी। जाट ने आई हुई कार का हेंडिल खोल लिया। दोनों तेज सिंह पर टूट पड़े।</div>
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फायर! चीखे।</div>
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लोगो ने देखा कि राजपूत एक ओर लुढक गया है। अब राजपूतानी अपने को रोक नहीं सकी। बेतहाशा अपने पति की ओर लपकी। पहली बात लोगो ने उस वीरता की तेजस्वी महान नारी के दर्शन किये। उसका चेहरा अद्भुत ओज से दीप्त था। आँखे बड़ी बड़ी और साहस की प्रतीक थी। राजपूतानी को उतरते देख बस की भीड़ डाकुओं पर टूट पड़ी। डाकू तेज सिंह भी बेहोश हो गया था। उसके साथी बस के कब्ज़े में थे।</div>
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राजपूत घायल अव्स्तहा में तड़प रहा था। वह अस्फुट स्वर में कह रहा था, “पानी!...पानी...!”</div>
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राजपूतानी ने आकुल स्वर में कहा, “पानी!”</div>
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तुरंत पानी लाया गया पानी की बुँदे जाते ही राजपूत ने आँखे खोली। उस समय तक सेठ भी सचेत होगया था। जब उसे मालूम हुआ कि उसकी बेटी की रक्षा के लिए एक वीर ने डाकुओं से संघर्ष किया है, तब वह राजपूत की और लपका। मन्नी को भी पानी छिडककर सचेत कर लिया गया था; वह भी राजपूत के पास आ गई थी।</div>
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राजपूत ने स्नेह विगलित स्वर से कहा, “कुंवराणी,वह लड़की कहाँ है?”</div>
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कुंवराणी ने सजल नयनों से देखा। तभी सेठ ने कहा, “यह रही मन्नी, मेरी बेटी, बिल्कुल ठीक है। आओ बेटी, इधर आओ। तुझे तेरा भैया पुकारता है।”</div>
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मन्नी राजपूत के पास आई। राजपूत का एक हाथ बिल्कुल घयाल हो चूका था। एक गोली सीने में लगी थी। लहूलुहान दूसरा हाथ भी था, किन्तु दूसरे हाथ से मन्नी को आशीष दिया। उसके सिर पर हाथ रखकर धीमे से बोला, “अच्छी है न बहन?”</div>
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मन्नी से कुछ बोला भी नहीं गया। वह फफक पड़ी। बाद में राजपूत ने राजपूतानी की ओर देखा। उससे वह टूटते हुए स्वर में बोला, “कुंवराणी! “मैंने तुम्हारी बात पूरी कर दी, वह लड़की अच्छी है...अच्छा कुंवराणी, भूल चूक माफ करना। मेरे माँ बाप की जिम्मेदारी अब तुम्हारी है। वे बहुत बूढ़े हो चुके हैं।”</div>
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कुंवराणी दहाड़ मार बैठी, “नहीं,नहीं! ऐसा नहीं हो सकता! इन्हें जल्दी से अस्पताल ले चलिए।”</div>
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राजपूत के चेहरे का ओज निस्तेज हो गया। वातावरण में मृत्यु की ख़ामोशी और सन्नाटा छाता गया। सारे यात्रियों की आँखे नम थी। समीप ही तेज सिंह अचेत पडा था। जो कार आई थी, उससे राजपूत को अस्पताल ले जाए और पुलिस को खबर करने की व्यवस्था की गयी। लेकिन राजपूत का रक्त बहुत बह चूका था। उसने एक बार फिर कुंवराणी की तरफ देखा। उसके हाथों से मेहंदी के फूल महक रहे थे। राजपूत अपनी आँखों से उन मेहँदी के फूलों को देखता रहा जो सुहाग के चिन्ह थे। राजपूतानी विपुल वेदना से तड़प रही थी। </div>
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वह एक बार फिर चीखी, “इन्हें अस्पताल ले चलिए।”</div>
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लोगों ने राजपूत को उठाना चाहा। उसने हाथ से न उठाने का संकेत किया। उसका चेहरा स्याह हो गया। उसने एक बार फिर मेहँदी रचे कुंवराणी के हाथों को देखा। मुस्कुराया। उन्हें चूमा। कुंवराणी दर्द से काँप रही थी। उसने कांपते स्वर में कहा, “आप बिल्कुल ठीक हो जायेंगे, इन्हें जल्दी अस्पताल ले चलिए।” और राजपूत ने कुंवाराणी के हाथों को अपने सीने से लगा लिया। </div>
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उसकी आँखे फट गयी। उसके हाथ फ़ैल गए। कुंवराणी और सारी उपस्तिथि सुबक पड़ी। कुंवराणी ने अपने हाथ उठाये। हाथों पर बने मेहंदी के फूल खून से विभत्स धरातल की तरह सपाट बन गए थे, जैसे हाथों पर कुछ था ही नहीं, सिर्फ रक्त ही रक्त !</div>
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- यादवेन्द्र शर्मा 'चंद्र'</div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-64444946418122784122017-09-13T07:53:00.000-07:002018-06-04T04:37:00.880-07:00प्रतिहार क्षत्रिय राजवंश ग्वालियर तोंवरी देवी का जौहर (pratihar kshatriya rajvansh gwalior )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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-> ग्वालियर का प्रतिहार क्षत्रिय वंश < -----</div>
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आज हम आप लोगो को ग्वालियर के प्रतिहार वंश एवं उनके संघर्ष की कहानी बतायेंगे। जब तुर्कों के आक्रमण से परिहार रानी तोंवरी देवी को जौहर करना पडा था। जिसमे उनके साथ 1500 से ऊपर राजपूत महिलाएं भी थी।।</div>
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ग्वालियर पर प्रतिहार क्षत्रियों ने लगभग 150 वर्ष शासन किया है। यहां के प्रतिहार कन्नौज के प्रतिहारो के सामंत के रुप मे कार्य करते थे और इन्ही के भाई परिवार थे। ग्वालियर पर नागभट्ट द्वितीय ने सन 795 ईस्वी मे ग्वालियर दुर्ग का निर्माण करवाया था। कुछ दिनो के बाद दुर्ग की हालत खराब हो रही थी तब सन 850 ईस्वी मे मिहिरभोज प्रतिहार ने ग्वालियर को अपने साम्राज्य कन्नौज की उपराजधानी बनाया और ग्वालियर दुर्ग को सजाया और संवारा। इस विशाल राजप्रसाद को बागों झरनों से सुसज्जित किया एवं रानियों के लिए अनेक बिहार स्थल भी बनवाये। मिहिरभोज के शासनकाल में उसका नाती किट्टपाल परिहार किले का रक्षक था।</div>
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सन 1036 ईस्वी में कन्नौज का सम्राट यशपाल था तभी महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण करके उसे नष्ट कर दिया। प्रतिहार लोग कन्नौज छोडकर " बारी " चले गये थे। इस संस्कृति काल का लाभ उठाकर राठौर चंद्रदेव ने कन्नौज के खंडहर मे अपना डेरा जमा लिया और प्रतिहार परिवार को वहां से भगा दिया। संयोगवश इस समय ग्वालियर दुर्ग की देखभाल इल्लभट्ट परिहार एवं कछवाह दूल्हाराय तेजकर्ण था। वह कन्नौज के इस सरदार परमादेव का मामा था। उसने प्रतिहारो को निराश्रित देखकर भांजे परमादेव को बारी जाने से रोक लिया और सपरिवार ग्वालियर दुर्ग में शरण दे दिया।।</div>
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परमादेव हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला नही था। उसने एक संगठित सेना बनाई सभी को एक किया। एक सुदृढ सैन्य संगठन हो जाने पर सन 1045 ईस्वी मे प्रतिहारों ने पुनः ग्वालियर पर अधिकार जमा लिया और अपने को राज्य का राजा घोषित कर दिया। विरोध करने वालो को राज्य से भगा दिया। सन 1193 के आस पास ग्वालियर तथा चंदेरी राज्य के अंतर्गत वेतवा नदी के पश्चिम का चंबल यमुना संगम से लेकर उत्तरी मालवा तक का क्षेत्र प्रतिहारों के आधीन था।</div>
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किंतु मुहम्मद बिन साम गोरी से प्रतिहारों का यह अधिकार देखा न गया तो उसने 1195 ईस्वी मे ग्वालियर दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। उस समय प्रतिहारो की सहायता करने वाला कोई न रहा तो उन्होने गोरी से समझौता कर लिया। समझौता होने पर भी गोरी ने ग्वालियर पर तुगरिल को बयाना का हाकिम बनाकर उसे ग्वालियर दुर्ग जीतने का आदेश देकर चला गया। इस प्रकार तुगररिल ने आस पास के गांवो को काफी दिन तक लूटा खसोटा। किंतु नटुल प्रतिहार के पौत्र तथा प्रताप सिंह के पौत्र विग्रह प्रतिहार से ग्वालियर की यह दुर्दशा देखी न गई उसने तुर्कों की संरक्षण टोली को ग्वालियर से खदेड कर भगा दिया।और 14 वर्ष के अंतराल से पुनः ग्वालियर पर अपनी सत्ता स्थापित की। विग्रह प्रतिहार और उसके भाई नरवर्मा की वंशावली दो ताम्रपत्रों से प्राप्त होती है। अतः 100 वर्षो की अवधि में परमादेव के वंशज विजयपाल, वासुदेव , कर्णदेव और सारंगदेव आदि ने ग्वालियर राज्य का संचालन किया - इस वंश की वंशावली इस प्रकार है-</div>
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ग्वालियर और नरवर के बीच चटोली ग्राम में सन 1150 ई. का एक शिलालेख मिला है। जिसमे रामदेव प्रतिहार उल्लेख है। यह रामदेव प्रतिहार ग्वालियर के अंतिम प्रतिहार राजा कर्णदेव के तृतीय पुत्र थे, जिन्हें बाद मे औरैया इलाका दिया गया। इसके पश्चात ग्वालियर गढ के गंगोलाताल के वि. सं. 1250 तथा 1251 के दो शिलालेख प्राप्त हुए है। जिनसे यह ज्ञात होता है की इन वर्षों में गढ पर जयपाल देव राज्य कर रहे थे। उन जयपाल देव की मुद्राएँ भी प्राप्त हुई है। हसन निजामी ने जिस सोलंखपाल का उल्लेख किया है वह इन्ही जयपाल के उत्तराधिकारी थे। जिसका वास्तविक नाम सुलक्षणपाल था एवं जिनका मुगल सम्राट शहाबुद्दीन के बीच युद्ध हुआ और शहाबुद्दीन ने ग्वालियर गढ को चारो ओर से घेर लिया। उसने यह अनुभव किया की सीधा आक्रमण करने से इस अभेद्य गढ को हस्तगत नही किया जा सकता इसके लिए बहुत दिनो तक गढ को घेरे रहना पडेगा। प्रतिहार राजा को त्रस्त करने के लिए मुगल सम्राट ने रसद पानी बंद करा दिया। हसन निजामी के ताजुल म आसिर के अनुसार - सुलक्षणपाल भयभीत और हताश हो गये तथा उन्होने संधि की चर्चा की और कर देने के लिए सहमत हो गये, दस हांथी उपहार में दिये गये। शहाबुद्दीन ने यह संधि स्वीकार कर ली और गजनी लौट गया। उसका सेनापति कुतुबुदीन ऐवक दिल्ली लौट गया और दूसरा सेनापति शहाबुद्दीन तुगरिल " त्रिभुवन गढ " चला गया।</div>
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उधर दिल्ली में भी इस काल मे भारी उथल पुथल मची थी। दिल्ली के सिंहासन पर कुतुबुद्दीन ऐवक बैठ गया। वह एक विलासी एवं मक्कार था। उसके हाथ मे प्रतिहार राजा सुलक्षणपाल ने ग्वालियर की सत्ता दे दी थी। जिससे कुतुबुद्दीन ऐवक तथा बहाउद्दीन तुगरिल के बीच मनमुटाव हो गया था। इसी मनमुटाव के कारण सन 1210 ई. में उसी के एक दास शमसुद्दीन इलतुमिश के हांथो हत्या करवा करवा दी गई और उसे स्वयं दिल्ली का सुल्तान बना दिया गया। उसे शासन से नही धन से मतलब था। इसीलिए सुल्तान बनते ही देश नगरों ग्रामों को लूटना प्रारम्भ कर दिया। उसको बताया गया की ग्वालियर दुर्ग मे बहुत धन संपदा है और उसने पहले ही तुर्को को मार भगाया, जो सुल्तान का शत्रु है।</div>
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अतः इलतुमिश ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। दिल्ली की भारी सेना के सामने राजपूत सेना बहुत कम थी, किंतु परिहार राजाओं ने न तो हथियार डाले और न ही शत्रु को किले मे घुसने दिया। प्रतिहारों की मोर्चा बंदी इतनी मजबूत थी की कभी - कभी सुल्तान को अपने सैनिकों को मौलवियों के भाषणों और उपदेशों से प्रोत्साहित करना पडता था। दृढ निश्चय के साथ किये जाने वाले युद्ध और सुल्तान के व्यक्तिगत नेतृत्व के कारण लगभग ग्यारह महीने तक इलतुमिश घेरा डाले रहा परंतु किले में घुसने मे सफल नहीं हो पाया। अंत में उसने चालबाजी करने की सोची रात्रि के अंधेरे में वह दुर्ग के पश्चिम की ओर से अंतरी बनाकर घुसा और वहीं से चोरों की भांति दुर्ग में सैनिकों को उतार दिया। चोरों ने दुर्ग का दक्षिणी भाग भी खोल दिया। दुर्ग के अंदर भयानक मारकाट भोर होते तक चली राजपूती सेना बाहर से आ गई सुल्तान भाग निकला। रात में कैद किये सैनिकों व महिलाओं को दुर्ग से निकाला जा चुका था। और इनमें 400 राजपूत और 200 महिलायें थी जिन्हें सुल्तान ने कत्ल करवा दिया।</div>
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सुल्तान का दूसरा आक्रमण भी विफल रहा। ग्वालियर के परिहारों ने ग्वालियर गढ प्राप्त करने का प्रयास किया। कुरैठा के वि. सं. 1277 ई. के ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि उस समय ग्वालियर गढ पर विग्रहराज जो कर्णदेव का बडा पुत्र सारंगदेव (मलयवर्मन) ग्वालियर का राजा था, वह बडा नीतिज्ञ था। सुल्तान का तीसरा और अंतिम आक्रमण 12 दिसंबर 1232 को हुआ। मलयवर्मन ने देश पर आई आपदा का मान अन्य राजाओं को कराया। उसके आह्वान पर यदुवंशी, तोमर , सिकरवार, और सूर्यवंशी राजाओ ने एकत्र होकर एक सुगठित सेना बनाई। इस सेना और दिल्ली की तुर्क सेना के मध्य ग्यारह माह तक भीषण संग्राम चलता रहा। तुर्क सेना लाख से भी उपर थी - उसने सारा ग्वालियर घेर लिया था। और चारो ओर से दुर्ग के लिए रसद पानी बंद करवा दिया था। राजपूती सेना दिन - ब - दिन घटती जा रही थी। उधर मेरठ , आगरा , दिल्ली , कानपुर, से धन और जन दोनों आ रहे थे , किंतु फिर भी परिहारों की स्थिति काफी जर्जर होती जा रही थी। अब युद्ध अवसान की ओर जा रहा था।</div>
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अंत में 20 नवंबर 1233 ई. को ग्वालियर महारानी तोंवरीदेवी ने क्षत्रियों को अंतिम समर मे कूद पडने का संदेश भेज दिया। सभी क्षत्राणियों ने साज श्रंगार किया चंदन की विशाल चिता बनवाई गई और " जय दुर्गे जय भवानी " कहते हुए हजारो ललनाएं जौहर की धधकती ज्वाला मे स्वाहा हो गई। इस प्रकार प्रतिहार रानियाँ चिता में जौहर हुई और कुछ रानियाँ जौहर ताल में विलीन हुई।</div>
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स्वर्ग अवछरा आई लेन । देव सिया भरि देखई नैन।।</div>
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धन्य - धन्य तेउं उच्चरै । सुर मुनि देखी सर्वे जय करैं।।</div>
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क्षत्राणियों का जौहर क्षत्रियों ने देखा और वे पीत बसन बांधकर तुर्की सैनिकों पर टूट पडे। देखते - देखते उनहोंने 5000 से उपर शत्रुओं को मौत के घाट उतार दिया। इस समर में 1500 परिहार राजपूत पहुंचे थे। इनमे से एक भी जिंदा नहीं लौटा।</div>
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पांच हजार तीन सौ साठ , परे अमीर लोह घटि।।</div>
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जूझो सारंगदेव रन संग , एक हजार पांच सौ संग।।</div>
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जौहर ताल के लिए भांट बताते है की प्रतिहार राजपूत स्त्रियों ने किस प्रकार जौहर कर अपने प्राणों की आहुति दी।।</div>
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पहले हमे जु जौहर पारि।</div>
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तब तुम जूझे कंध समहारि।।</div>
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इस घटना का उल्लेख एक शिलालेख में किया गया था, किंतु अब यह गुम हो गया। उरवाई घाटी को घेरने वाली दिवाल इलतुमिश के समय बनवाई थी। इस अंतिम युद्ध का सेनापति तेजस्वी परिहार मलयवर्मन कर रहा था। तथा उसके पुत्र हरिवर्मा , अजयवर्मा , वीरवर्मा मारे गये। सारंगदेव के बच्चे मऊसहानियां भेज दिये गये। अन्य भाई जिगनी - डुमराई चले गये। ग्वालियर में मलयवर्मन का सौतेला भाई नरवर्मा बच रहा था।</div>
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नरवर्मा प्रतिहार ने इलतुमिश के बेटे फिरोज रुकुनुद्दीन से समझौता कर लिया। इस समझौते के अनुसार नरवर्मा तथा उसके कुछ साथी (राजपूत) को दुर्ग में रहने का अधिकार मिल गया। किन्तु दिल्ली मे जब रजिया सुल्तान का शासन काल आया तो उसने ग्वालियर पर डेरा डाला और समझौते को रद्द कर दिया। उसने नरवर्मा को दुर्ग से बाहर निकाल दिया एवं चाहडदेव को दुर्ग की देखभाल सौंप दिया। इस प्रकार कभी तुर्क तो कभी परिहार इस दुर्ग पर अधिकार करते रहे। चाहडदेव भी परिहार था उसने धीरे - धीरे जन - धन एकत्र कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। किंतु दिल्ली पर पुनः तूफान आया और उलुग खान बलवन की शक्ति बढ गई। दिल्ली की गद्दी छिनने के बाद पहला आक्रमण ग्वालियर पर करके चाहडदेव को बंदी बनाना चाहा। परंतु अजेय दुर्ग के भीतर न घुस सका और वापस लौट गया। सन 1258 ई. मे बलबन बहुत शक्तिशाली हो गया था उसने बडी सेना लेकर ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया उस समय तक चाहडदेव स्वर्गवासी हो चुका था। उसका नाती " गणपति याजपल्ल " दुर्ग का अधिपति था।</div>
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इसमें इतनी क्षमता नही थी की कुछ हजार सैनिकों के बल पर वह दिल्ली की सेना का सामना कर सके। अस्तु वह रात में ही परिवार सहित बिहार चला गया। जहां इनके वंशजो ने परिहारपुर ग्राम बसाया और आज भी हजारो की संख्या में आबाद है। और बाकी कुछ प्रतिहार दल झगरपुर , वीसडीह , मैनीयर उत्तर सुरिजपुर , सुखपुरा, हरपुरा आदि ग्रामों मे आबाद है। चाहडदेव ने अपने राज्य का विस्तार चंदेरी तक कर लिया था। इस तरह कभी सत्ता मे तो कभी सत्ताहीन होकर ग्वालियर मे परिहारो का आवास रहा है और लगभग 150 वर्षो तक संघर्षरत शासन किया। और आज भी ग्वालियर अंचल मे लगभग 25 से उपर गांव है प्रतिहारो के जो आवासित है।</div>
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ग्वालियर प्रतिहार वंश के शासक</div>
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परमादेव प्रतिहार</div>
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विजयपाल प्रतिहार</div>
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जलहणसी प्रतिहार</div>
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वासुदेव प्रतिहार</div>
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संग्राम देव प्रतिहार</div>
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महिपालदेव प्रतिहार</div>
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जयसिंह प्रतिहार</div>
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कृपालदेव प्रतिहार</div>
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कर्णदेव प्रतिहार</div>
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सारंगदेव प्रतिहार</div>
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13 वीं शताब्दी तक ग्वालियर से परिहार वंश का पतन हो गया और बचे कुचे परिहार अलग अलग जगह बस गये। जिसमे सारंगदेव ग्वालियर को छोडकर मऊसहानियां आ गये। एवं इनके अन्य भाई राघवदेव परिहार रामगढ जिगनी चले गये, रामदेव परिहार औरैया गये एवं छोटे भाई गंगरदेव परिहार डुमराई में जा बसे जहां आज भी इनके वंशज लगभग 30 गांवो से उपर आबाद है।</div>
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आप सभी जरुर शेयर करे।।</div>
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प्रतिहार\परिहार क्षत्रिय वंश।।</div>
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जय नागभट्ट।।</div>
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जय मिहिरभोज।।<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg311Le8DK2btnN6ZtLtu8Y6ec8MqlEblkYPqQEdfRkqt1muKy0z4NoP2uwie1yZVLAxvNO6Alwd344ByhOZ31BXYxPuv7mhYnHfK2VBEyQebLTSvF3mg1hj7zRpip5fdGFKQvah4n3mB2b/s1600/FB_IMG_15053138251951301.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="549" data-original-width="720" height="301" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg311Le8DK2btnN6ZtLtu8Y6ec8MqlEblkYPqQEdfRkqt1muKy0z4NoP2uwie1yZVLAxvNO6Alwd344ByhOZ31BXYxPuv7mhYnHfK2VBEyQebLTSvF3mg1hj7zRpip5fdGFKQvah4n3mB2b/s400/FB_IMG_15053138251951301.jpg" width="400" /></a></div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-24726401337846157182017-09-12T21:09:00.002-07:002017-09-12T21:09:46.842-07:00नही रहे आजाद भारत के सबसे बड़े इतिहासकार क्षत्रिय युवक स्वयंसेवक सवाई सिंह जी धमोरा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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आज़ाद भारत के सबसे बड़े इतिहासकार नहीं रहे। </div>
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जो स्वयं एक इतिहास थे, एक आंदोलन थे, बैखोफ थे, बेलाग थे, एक सभ्यता व संस्कृति के ध्वज वाहक थे, तो सही के लिए अंतिम दम तक अपनी बात पर टिकने वाले व्यक्तित्व थे। </div>
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वे एक ऐसे पत्रकार भी थे जो अपनी मर्ज़ी के मालिक थे, मूढी थे,बिकाऊ नहीं थे तो किसी की चमचागिरी में अपनी कलम को रगड़ते भी नहीं थे । राजस्थानी भाषा व संस्कृति की चलती फिरती डिक्शनरी थे, आकाशवाणी के प्रसिद्ध वाचक थे तो वे अनेक अखबारो के प्रसिद्ध स्तंभकार थे, संघ शक्ति के लम्बे समय तक रहे सम्पादक थे तो इस आयु में भी आज राष्ट्रदूत अख़बार व मेगजिन जिनके बिना अधूरा था। </div>
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वे भू स्वामी आंदोलन के प्रणेताओ में से एक थे तो ज़ैल यात्री भी थे। वे कँवर आयुवान सिंह जी व तन सिंह जी के साथी थे तो बड़ों में बड़े व बच्चों में बच्चे थे। </div>
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सच कहूँ तो वे पता नहीं क्या क्या थे,,, पर यह सच है जैसे वो थे वैसा कोई और नहीं था। </div>
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मूर्द्धन्य इतिहासकार, बेख़ौफ़ पत्रकार शेखावॉटी के गौरव व समाजसेवा व राष्ट्रसेवा के पथ के अथक पथिक व मेरे आदर्श सवाई सिंह धमोरा के निधन पर शत शत नमन। 🙏🏻🙏🏻🙏🏻</div>
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:----महावीर सिंह राठौड़ (रुवाँ)<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgac2FyuddgEikVRBk4-4T5m2Jxzc9fywd5CKlC5n4o8WbQ6eamykYHKum8Ubj0wLEeSwGX06-IbGe00Mnv-XJ3DDn6qL8Il2aMdxOstUylitk9HLU0k_t7lc91ajEsxcT1BggGLAF50beT/s1600/FB_IMG_1505275550567.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="501" data-original-width="720" height="138" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgac2FyuddgEikVRBk4-4T5m2Jxzc9fywd5CKlC5n4o8WbQ6eamykYHKum8Ubj0wLEeSwGX06-IbGe00Mnv-XJ3DDn6qL8Il2aMdxOstUylitk9HLU0k_t7lc91ajEsxcT1BggGLAF50beT/s200/FB_IMG_1505275550567.jpg" width="200" /></a></div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-52512981044234917942017-06-27T21:37:00.000-07:002017-10-01T02:03:04.542-07:00शरणागत तीतर को बचाने पर सोढा (परमार)का युद्ध और माता का बेटे के साथ सती होना <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span class="mrs fsm fwn fcg"><span id="fbPhotoSnowliftTimestampAudienceContainer"></span><span id="fbPhotoSnowliftExpiration"></span><span id="fbPhotoSnowliftBlock"></span></span><span id="fbPhotoSnowliftViewOnApp"></span><span id="fbPhotoSnowliftUseApp"></span><div class="_xlr">
<span class="fbPhotosPhotoContext" id="fbPhotoSnowliftContext"></span><span class="fbPhotosPhotoCaption" data-ft="{"tn":"K"}" id="fbPhotoSnowliftCaption" tabindex="0"><span class="hasCaption"><div class="text_exposed_root text_exposed" id="id_59cb64f9ab0571f32850266">
उज्जैन
के परमार वंश की एक शाखा सिंध के रेगिस्तान में आई। वह शाखा के मुलपुरुष
सोढाजी के नाम से सोढा परमार कहलाई। सोढा ओके हाथ में अमरकोट की जागीर आई।<br /> थरपारकर का राज यानी रेती के रण का राज।<br /> <br /> बापू रतनु जी तो कैलाश के वासी हो गए थे। पर माता जोमबाई थे, उनके चार पुत्र आखोजी, आसोजी, लखधीरजी और मुंजोजी थे।<br /> माँ बेटे भगवान पारसनाथ के परम भक्त थे। <span class="text_exposed_show"><br />
संवत 1474 में थरपारकर में अकाल पड़ा। दो हजार सोढा अपनी गाय भैसों
के साथ अकाल से बचने सोरठ जाने को तैयार हुए तब चारो भाइयो को चिंता होने
लगी की परदेश में अपनी बस्ती की रक्षा कोण करेगा?<br /> आखोजी बोले: भाई लखधीर, तुम और मुंजोजी बस्ती के साथ जाओ, में और आसो यहा का ध्यान रखेंगे।<br />
लखधीरजी और मुंजाजी बस्ती के साथ जाने अपनी हंसली घोड़ी पर सवार हुए। तब
माता जोमबाई ने कहा: बेटा, परदेश में अपनी बस्ती को माँ कहा से मिलेगी? इस
लिए में भी साथ आउंगी।<br /> माताजी भी रथ में बेठ गयी, और बस्ती साथ चली। जगह जगह मुकाम करते करते चल पड़े सोरठ की और।<br />
पर लखधीरजी को प्रण था की वे इष्टदेव पारसनाथ के दर्शन करने के
बाद ही अन्न ग्रहण करते थे। इस लिए जहा वे मुकाम करते वहां से लखधीरजी अपनी
हंसली घोड़ी को वापस मोड़कर पीलू गाव में जहा उनके देव का मंदिर था वहां आकर
देव की पूजा करते और बाद में ही भोजन ग्रहण करते। पर जेसे जेसे मुकाम
हररोज आगे बढ़ता जा रहा था इस हिसाब से उनको पीलू पहोचने ने समय ज्यादा लगने
लगा।<br /> एक रात को लखधीरजी के स्वप्न में आकर देव ने कहा :"
बेटा, कल सवेरे सूर्यनारायण के उगते ही आपको सामने एक कुवारी गाय आकर जमीन
पर अपना पैर खुतरेगी, उस जमींन को खोदना वहां तुम्हे मेरी प्रतिमा मिलेगी,
उस प्रतिमा के दर्शन कर तुम भोजन ग्रहण करना, उसे अपने साथ रथ में ले जाना
जहा तुम्हारा रथ अटक जाए, आगे न चल पाये वहा उस प्रतिमा की स्थापना करना,
उस जगह तुम्हे फ़तेह मिलेगी।<br /> और देव के कहे अनुसार सवेरे मांडव
में एक गाय लखधीरजी के सामने आकर जमीन पर एक जगह अपना पैर घिसने लगी।
लखधीरजी ने उस जगह खुदवाया, वहा उन्हें देव मांडवरायजी की प्रतिमा मिली,
मांडवरायजी को जोमबाई ने रथ में बिठाया। और सोने के थाल के समान पांचाल
भूमी पर मोती के दाने जेसे पर्वतो की माला देखकर अग्निपुत्र परमार आगे बढे।<br /> <br /> कंकु वर्णि भोमका सरवो सालेमाळ।<br /> नर पटाधर निपजे भोय देवको पांचाल॥<br /> नदी खळके नीझरणा मलपता पीए माल।<br /> गाळे कसुम्बा गोवालिया पड जोवो पांचाल॥<br /> ठाँगो मांडव ठीक छे कदी न आँगन काल।<br /> चारपगा चरता फरे पड जोवो पांचाल॥<br /> <br />
चलते चलते एक दिन उस सोहमने प्रदेश में एक छोटी सी नदी को पार करते समय
नदी के बिच में रथ रुक गया। कई सारे बैल भी जोड़कर देवका रथ खिंचा पर रथ
अपनी जगह से ज़रा भी न हिला। तब लखधीरजी ने अपनी पाघड़ी का छेड़ा गले में
डालकर प्रभु को हाथ जोड़ कहा: हे देव मांडवराय, आपने कही बात मुझे याद हे की
जहा रथ रुके वहा में आपकी स्थापना कर गाव बसाऊ, पर हे देव, इस नदीके
बीचोबीच गाव कैसे बन सकता है? आप कृपा कर सामने किनारे तक चलिए वहां आपकी
स्थापना कर में गाँव बसाऊंगा। और इतना कहकर उन्होंने रथ के पहिये पर हाथ
लगाया ही था कि जेसे रथ के निचे नदी के अंदर आरस का मार्ग बन गया हो इतनी
आसानी से रथ चल गया।<br /> किनारे पर लखधीरजी ने बस्ती को गाव बसाने
का आदेश दिया। पर उन्होंने सोचा यह प्रदेश अपना नहीं हे इसलिए प्रथम इस
प्रदेश के राजा से अनुमति मांगनी चाहिए। उन्होंने तपास की, वह प्रदेश वढवान
के वाघेला राजा वीसलदेव जी का था। <br /> पूरी बस्ती का ख्याल रखने
का मुंजाजी को सोपकर लखधीरजी वढवान आये। वाघेला वीसलदेव चोपाट खेल रहे थे।
अपनी हंसली घोड़ी के पैर में लोहे की नाळ डालकर घोड़ी लगाम पकड़ कर वे वहा खड़े
रहे। वीसलदेव ने आगंतुक को देखा, देखते ही लखधीरजी उनको पूर्ण क्षात्रत्व
को धारण किये दिखे। <br /> वीसलदेव ने उनसे नाम-ठाम पूछे बिना ही
चोपाट खेलने का न्योता दिया। लखधीरजी भी चोपाट खेलने बेठे। वीसलदेव ने घोड़ी
को बांध देने के कहने पर लखधीरजी ने कहा यह घोड़ी मेरे बिना और कही पर भी
नही रहेगी। और में हु तब तक वह बैठेगी भी नही।<br /> हाथ में ही घोडी की लगाम पकडे रखे वे चोपट खेलने लगे। चोपट में लखधीरजी का हाथ गजब का चलता था। चाहे जैसे पासे डाल सकते थे।<br /> खेल ख़त्म हुआ तब वीसलदेव ने वे कौन है तथा उनके आने का प्रयोजन पूछा तब लखधीरजी ने उनको पूरी बात बताई।<br />
वीसलदेव ने कहा: वह जमीन तो बंजर ही पड़ी हे। अगर आप उस जमींन पर कब्जा भी
कर लेते तो भी में कुछ न कहता। पर आप ने राजपूती दिखाई इस लिए में वह गौचर
के उपरान्त वहा की सारी जमींन आपको देता हु। पर आपको हररोज यहाँ मेरे साथ
चोपाट खेलने आना पड़ेगा।<br /> वीसलदेव की शर्त मान कर लखधीरजी अपनी बस्ती में
वापस आये।पर वीसलदेव के दरबार के कुछ दरबारिओ को यह बात पसंद न आई। अतः
उन्होंने परमारों को अपने प्रदेश से खदेड़ने के प्रयास शुरू किये।<br />
सायला के चभाड़ राजपुतो ने एक दिन जब लखधीरजी वीसलदेव के पास वढवान में
थे तब शिकार का बहाना कर एक तीतर पक्षी को शिकार में घायल किया। तीतर भागता
हुआ परमारों की जमींन में आ गिरा। तीतर भागता हुआ जोमबाई जहा अपने इष्टदेव
मांडवरायजी की उपासना कर रहे थी वहां मांडवरायजी जी प्रतिमा के बाजोठ के
निचे छिप गया। जोमबाई ने उस घायल पक्षी को बाहर निकाला और उस फड़फड़ाते पक्षी
को अपने आँचल में आश्रय दिया।<br /> बाहर चभाड़ सोढा परमारों से कहने लगे हमारा शिकार हमे वापस दो, वर्ना परिणाम अच्छा नही रहेगा।<br />
जोमबाई तीतर को अपने हाथ में लिए बाहर आये, चभाड़ो ने तीतर को जोमबाई के
हाथ में देखकर मन ही मन खुश हुए, जोमबाई ने कहा: आप दिखने में तो राजपूत
दिखते हो!<br /> चभाड़ो ने कहा : हां हम चभाड़ राजपूत है।<br /> तब जोमबाई ने कहा
: "तो क्या तुम लोग यह नही जानते की राजपूत कभी भी अपने शरणागत को नही
सौपते? यह तेतर हमारी जमींन में आकर गिरा हे, भगवान मांडवरायजी इसे रक्षण
दे रहे हे। हम इसे नहीं दे सकते।"<br /> तब चभाडो ने युद्ध करने को कहा इस पर जोमबाई ने अपने बेटे मुंजाजी को कहा : बेटा, राजपूतो का आशराधर्म आज तुजे निभाना हे। <br />
सोढा परमार और वीसलदेव की सेना भीड़ गयी। घमासान युद्ध हुआ और वहा रक्त की
धाराए बहने लगी, एक तीतर को बचाने के लिए सोढा परमार अपने रक्त से उस धरती
को सींचने लगे, चभाड़ो को गाजरमुली की तरह काटने लगे। मुंजाजी अपने अप्रतिम
शौर्य को दिखाते हुए रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए।<br /> उस युद्ध में 500 चभाड़ो के सामने 140 सोढा परमार राजपूत योद्धा काम आये।<br />
लखधीरजी को वढवान में पता चलते ही वे अपनी बस्ती में आये, वहा
परमार माता जोमबाई अपने बेटे मुंजाजी के मृत शरीर के पास बेठी थी। लखधीरजी
ने माता को आश्वासन देते हुए कहा : माँ, मुंजा तो अपनी शौर्यभरी गाथा यहा
छोड़ गया हे। उस पर आसु मत बहाना। राजपूती आश्रय धर्म को बचाने वह इस धरती
की गोद में सो गया हे।<br /> तब जोमबाई ने कहा : बेटा लखधीर, तेरे पिता के
स्वर्गवास को 20 वर्ष हो गए हे। तेरे पिता की मृत्यु पर मुंजा मेरे पेट में
था इस लिए में सती ना हो पायी थी पर आज में अपने पुत्र के साथ तेरे पिता
के पास जाउंगी।<br /> <br /> और वहा जोमबाई अपने पुत्र की चिता में बैठकर सती हो गयी। आज भी वहां की खांभी जेसे उन के शौर्य की बात कहती हो ऐसे अडग खड़ी हे।<br />
एक अबोल तीतर की जीवरक्षा के लिए सोढा परमारों ने अपने प्राणों की आहुति
देकर राजपूतो के आश्रयधर्म को निभाकर अपना नाम इतिहास में अमर कर दिया।<br />
लखधीरजी ने जो नगर बसाया था उस का नाम मूली रखा था जो आज भी विद्यमान
है। कहते है कि इस नगर का नाम लखधीरजी के धर्म बहिन मूली के नाम पर रखा था<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnfiloR0eHrN1Z1t5w12CD91mfYI8-At_35ujS_xrK29RCrh6CN9LX-eeu6dqd0ua7H-U-kMHRfdNWm5mWJTTCtE9f_mjrv5lt7cz0TirI6xfsyiAA_6SAkIp8ONlHgr2hJdz5w5-hYrI7/s1600/FB_IMG_1498621466003.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="450" data-original-width="720" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnfiloR0eHrN1Z1t5w12CD91mfYI8-At_35ujS_xrK29RCrh6CN9LX-eeu6dqd0ua7H-U-kMHRfdNWm5mWJTTCtE9f_mjrv5lt7cz0TirI6xfsyiAA_6SAkIp8ONlHgr2hJdz5w5-hYrI7/s320/FB_IMG_1498621466003.jpg" width="320" /></a></div>
</span></div>
</span></span></div>
</div>
यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-23575478191593517532017-06-24T05:42:00.001-07:002018-06-04T04:37:23.408-07:00चम्बल बीहड़ के शेर 1<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
<h2 style="text-align: left;">
<a name='more'></a>
===चम्बल एक सिंह अवलोकन====</h2>
●भाग -२ बागी मान सिंह राठौर●<br />
ताजमहल के कारण प्रशिद्ध हुए उप्र के महानगर आगरा से लगबग ५०किमी की दुरी तय करने पर एक चौराहा आता हे जिससे कुछ ही दुरी तय करने पर मन्दिर पर दृष्टि जाती हे ।<br />
मन्दिर किसी पौराणिक देवता अथवा स्थानीय लोकदेवता का न होकर चम्बल के महाराज की उपाधि प्राप्त मशहूर बागी मान सिंह राठौर का हे ....</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यहाँ आज भी विधिवत घण्टे घड़ियालों की मधुर ध्वनि के मध्य एक प्रश्न मष्तिष्क में कोतूहल प्रकट करता हे की अगर मानसिंह एक दुर्दांत डकेत थे फिर इनका इतना सम्मान क्यों ...?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आखिर बो क्या कारण रहे की गाव के एक सीधे साढ़े लांगुरियो(नवदुर्गा के समय गाया जाने बाले लोकगीत ) के प्रेमी ,अखाड़े में लड़ने बाले मान सिंह को रायफल उठानी पडी ?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
क्या कहानी थी इन के पीछे जो मप्र०राज०और उप्र० की अंग्रेजी पुलिस से लेकर आजाद भारत की पुलिस महकमे में "मान सिंह " नाम सुनते ही सिहरन दौड़ जाया करती थी ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बात 1939 के पराधीन हिन्दुस्तान के उप्र राज्य में चम्बल किनारे मप्र की सीमा से सटे गाव खेड़ा राठौर से प्रारम्भ करते हे ।<br />
एक सीधा ,साधा गवरु ,छरहरा १७ वर्षीय नव युवा जिसने हाल ही में ११वि तात्कालिक हायर सेकेण्डरी परीक्षा में कीर्तिमान स्थापित किया ८३प्रतिशत अंक लाना एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी उस समय .....<br />
किन्तु समय को शायद इस जवान की बहिर्मुखी प्रतिभा को चम्बल के बीहड़ो में प्रशिद्धि की बजाय कुख्याति देना रुचिकर लगा ।<br />
जब बात स्वम के स्वाभिमान गरिमा पर आ पहुचती तो फिर इंसान सहज ही आत्मसम्मान के लिए स्वम शश्त्र उठाता रहा हे ....अन्याय के खिलाफ !!</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ऐसी ही कहानी ठाकुर मान सिंह की हे जब स्वम की पुस्तैनी ३७२ बीघे जमीन पर अंग्रेजी हुकूमत के साहूकार की कुदृष्टि पड़ी क्या कोई देख सकेगा की कल जिस माँ को सम्मानपूर्वज पूजता रहा उस पर किसी गुलाम की आमद हो चले .....!</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ठिकाने के तत्कालिक साहूकार के द्वारा जबरदस्ती कब्जे को लेकर एक वृहद पंचायत रखी गयी किन्तु अंग्रेजी सरकार में न्याय कैसा...? और नकली खसरे खतौनी को दिखाकर साहूकार को जमीन कब्जे करने को कहा गया ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अधिकतर चम्बल में बागी बनाएं जाने में पटवारी और ,पुलिस का हाथ रहा जिन्होंने न सिर्फ पक्षय् पात किया बल्कि जुल्म की भी सीमाये तोड़ दी थी ।<br />
फिर चाहे बो अंग्रेजी शाशन हो या आजाद भारत का लोकतन्त्र ,इंसान को रोद्र रूप में लाने के तीन कारण जड़,जोरू,जमीन में यहां जमीन ने मुख्य आधार रहा ।<br />
अपनी पुस्तैनी जमीन को जाते देख परिवारी जनो पर हुए जुल्मो से तंग आकर ,चम्बल की सुरमयी वादियो में एक बागी ने बगावत कर दी और नाम हुआ बागी मानसिंह राठौर जिन्होंने बागियों की मर्यादामय रीती को जीवित रखा ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गिरोह में स्त्री का प्रवेश वर्जित,<br />
माँ बहिनो का सम्मान<br />
,बच्चों महिलाओ को शपर्ष तक करने की सजा सिर्फ म्रत्यु जेसे कठोर नियम बनाये गए ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
साहूकार को अंग्रेजी हुकूमत का संरक्षण प्राप्त था किन्तु फिर भी जमीन और परिवार का बदला लेनेसे न रोक पाया कोई .....एक अंग्रेज अधिकारी wc खोब तो आगरा छोड़कर भाग निकला था जब उसको त्रिदिवशीय अल्टीमेटम दिया गया ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मान सिंह गैंग के प्रारम्भिक दिनों में १८बागी हुआ करते थे जिनमे उनके भतीजे तहसीलदार,रुपा पण्डित,लोकमन दीक्षित उर्फ़ लुक्का महाराज और एक गाव का मुस्लिम सुल्ताना प्रमुख सक्रिय भूमिका में थे ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
एक मुस्लिम बागी सुल्ताना एक एक नर्तकी महिला को ले आया जो गिरोह के नियमो के विरुद्ध हुआ<br />
ततक्षण उसको फटकार और दंड देने उद्दृत मानसिंह को नर्तकी महिला ने स्वम की मर्जी से आना गिरोह में शामिल होने की मंशा जारीर की किन्तु नियमो के पावंद मानसिंह ने मृत्यु न देकर सुल्ताना को गिरोह से निष्कासित किया ।<br />
जीनका बाद में अलग गिरोह पुतली बाई प्रथम महिला दस्यु सुंदरी और सुल्ताना के नाम से कुख्यात हुआ ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
एक ् नियमो के पालन की कट्टर प्रतिबद्धता पर किस्सा हे ।<br />
बहुत कुछ अध्यन करने पर विदित होता हे की उस समय स्वतन्त्र भारत की क्रांतिकारी गतिविधिया जोरो पर थी जिसके लिए धन की आवश्यकता पड़ी और क्रान्तिकारियो के सहयोगी बागी मानसिंग को सुचना दी गयी मई आगरा के अंग्रेजी पिट्ठू सेठ के यहाँ डकैती की जाय ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
जिसकी परिणीति में , आगरा के एक सेठ को पत्रिका के माध्यम से सुचना दी गयी।<br />
अंग्रेजी फौजो को साहूकार किहवेलि में उलझाकर बाकी गिरोह सेठ के घर में दाखिल हुआ लूट की गयी ।<br />
किन्तु किसी मनचले डकेत ने सेठ की लड़की को छेड़ दिया ,हो हल्ला होने पर समस्त गिरोह को बही एकत्रित किया गया और सेठ की लड़की से पहिचान कराकर दोसी डाकू को बही तत्क्षण गोली मार दी गयी ...।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बाद में दस्यु मान सिंन्ह ने स्वम इस कृत्य के लिए क्षमा मांगी और स्वम लड़की के पाँव पड कर सारा धन यह बोलकर लोटा दिया की हम धन लूटते हे किसी की अस्मिता नहीं ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
एक बात भी प्रचलित हे मानसिंह के बारे में की</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
न कभी गरीब सताओ ,न सताई कोई आडी जात<br />
लूटो जो बाँट दियो बेटियो के विह किये खूब भराए भात !! (मामेला)!!</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
1123 लूट करीब 200 हत्याए (जिसमे 147 बिटिश सेनिक व् अधिकारी शामिल ।) की बजह से स्वतन्त्र भारत की प्रशाशन की नजर में एनिमी 1(a1) लिस्टेड गिरोह अपना विशाल रूप ले चुका था लगबग 400 बागियों का गिरोह 100 से ज्यादा पुलिस मुठभेडे झेल चुका गिरोह धीरे कमजोर हुआ ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मान सिंह की सलाह पर तहसीलदार सिंह,रूपा,लुक्का पण्डित इत्यादि आत्म समर्पण कर चुके थे ,जबकि स्वम ने न किया ......</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
एक बार उनको एक पंचायत में बोलते देखकर sn सुब्बाराव इतने प्रभावित हुए की <a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%A1?source=feed_text&story_id=770893623081815" style="color: #365899; cursor: pointer; font-family: inherit; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; font-family: inherit;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; font-family: inherit; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm" style="font-family: inherit;">रोविनहुड</span></span></a> की संज्ञा दे दी ।और बोले की आजतक जो समाचार पत्रो ,पत्रिकाओ में पढ़ा सब मिथ्या नजर आता हे ।<br />
मानसिंह डाकू न होकर समाजसेवक ,जनसेवक जेसी छवि हे ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
आखिर कोई कितनी भी अच्छी छवि बनाये समाज में किन्तु गोलियों से प्रारंभ हुई कहानी गोली खाने पर ही समाप्त होती हे ।<br />
२३जुलाई १९५५ को भिंड जिले की बरोही की तिवरिया नामक स्थान पर गोरखा ट्रुप के द्वारा बिछाये गए व्यूह में मानसिंह भी अंतोतगत्वा गति को प्राप्त हुए ।<br />
चम्बल के बीहड़ो के बेताज बादशाह की कहानी पर १९७१ में दारा सिंह द्वारा अभिनीत फ़िल्म "मुझे जीने दो"भी बन चुकी हे ।<br />
और लोककथाओं गीतों में नोटंकियो में इनका चरित्र आज भी सहज दिखाई पड जाता हे ।<br />
क्रमशः<br />
<span class="_5mfr _47e3" style="font-family: inherit; line-height: 0; margin: 0px 1px; vertical-align: middle;"><img alt="" class="img" height="16" role="presentation" src="https://www.facebook.com/images/emoji.php/v9/f80/1/16/1f64f.png" style="border: 0px; vertical-align: -3px;" width="16" /><span class="_7oe" style="display: inline-block; font-family: inherit; font-size: 0px; width: 0px;">🙏</span></span>जय भवानी ,जय चम्बल <span class="_5mfr _47e3" style="font-family: inherit; line-height: 0; margin: 0px 1px; vertical-align: middle;"><img alt="" class="img" height="16" role="presentation" src="https://www.facebook.com/images/emoji.php/v9/f80/1/16/1f64f.png" style="border: 0px; vertical-align: -3px;" width="16" /><span class="_7oe" style="display: inline-block; font-family: inherit; font-size: 0px; width: 0px;">🙏</span></span><br />
सलग्न छाया चित्र मानसिंह राठौर का परिवार ,एवम् उनकी धर्मपत्नी रुक्मणी कँवर का मन्दिर ठिकाना खेड़ा राठौर उप्र०</div>
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<span style="color: #1d2129; font-family: "helvetica" , "arial" , sans-serif;"><span style="font-size: 14px;">साभार -जितेन्द्र सिंह तोमर </span></span><br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4tBlQLbceG2Y50qK1K7aJvKPULhbTF7KFibwSmFtm2PqGKTXxSRUMTRenQIKDZ6JOJ38fJynBBM7QVJ-eDRNxGnjvUEaoaXUeV8bWRHpGqkz_hklB3m0mGvjrLFsIDsjJx44PehPLl5ZQ/s1600/19396894_770893583081819_1129342769765497796_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="205" data-original-width="300" height="272" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4tBlQLbceG2Y50qK1K7aJvKPULhbTF7KFibwSmFtm2PqGKTXxSRUMTRenQIKDZ6JOJ38fJynBBM7QVJ-eDRNxGnjvUEaoaXUeV8bWRHpGqkz_hklB3m0mGvjrLFsIDsjJx44PehPLl5ZQ/s400/19396894_770893583081819_1129342769765497796_n.jpg" width="400" /></a></div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-58532641424359307012017-06-24T05:39:00.002-07:002018-06-04T04:38:05.239-07:00चम्बल बीहड़ के शेर <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbz4S9ukvTuVkLxUN8OJzIvC0S9uyn4wmycARAdf20mZREpioMBdrm2t_K9IyncqBEZxAssAvClI2lpUCGwKXcFrym0707YFbXQ4Zdw0fwHL32EibvHng6L2yurYR08fqO2bJ5YLpMhpH7/s1600/images+%252811%2529.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="172" data-original-width="293" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbz4S9ukvTuVkLxUN8OJzIvC0S9uyn4wmycARAdf20mZREpioMBdrm2t_K9IyncqBEZxAssAvClI2lpUCGwKXcFrym0707YFbXQ4Zdw0fwHL32EibvHng6L2yurYR08fqO2bJ5YLpMhpH7/s1600/images+%252811%2529.jpg" /></a></div>
=====हमारी चम्बल एक सिंह अबलोकन=====<br />
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उबड़ खाबड़ जमीन कभी सेकड़ो फिट गहरी खायी तो कभी सैकड़ो फिट ऊँचे पहाड़ नुमा ढलानों से छेँकुर,बबूल,गुग्गल,पीपल,पिलुआ,हिंस, नीम ,गुबड़ा,श्वेतार्क जेसी बहुमूल्य औषिधियो से परिपूर्ण एक क्षत्रीय बाहुल्य क्षेत्र हे "तंवर घार".. </div>
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जिसके पूर्व में भोर के समय स्वर्णमय आभा आच्छादन तो शाम को रजत प्रकीर्णन करती माता चम्बल की कल कल निनादिनी स्नेह बत्सलता का शुभाशीष मिलता हे ।
एक दृष्टि में आम जन्मानष् के कर्णो के द्वारा श्रवण हुआ ये शब्द अक्सर मष्तिष्क में एक डरावनि छवि
डाकू का वृतचित्र बना देती किन्तु सत्य से मीलो दूर ले जाने बाला भरम हमारे मष्तिष्क पटल को संकीर्ण और संकीर्ण करता रहा ।
यथार्थ में इस वीर भूमि पर डाकू न होकर देश की संस्कृति एव धर्म को बचाने के लिए करीव १५शताब्दी पहले मुगलो के विरुद्ध एक छापामार सैना का गठन तत्कालीन रियास्तदारो,जमीदारो ,ठाकुरो के सहयोग से हुआ । </div>
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तत्कालिक तोमर,भदोरिया,कछवाह ,सिकरवार,परिहार क्षत्रिय कुलो से सुसज्जित सैना ने मुगलो को कभी इस क्षेत्र में दखल न होने दिया ।
जिसमे क्षेत्रीय दैवीय शक्तियो का सहयोग का भी वर्णन बुजुर्गो के श्री मुख से मिलता हे ।
जिसमे 5 वि शताब्दी कालीन महादेव जी का पुरातन महुआदेव मन्दिर ठिकाना महुआ (महुआ,पालि,विजयगढ़) पर हुए महमूद गजनवी के हमले में गजनवी सैना मंदिर प्रांगड़ से पहले ही अंधी हो गयी थी ।
परिणीति में मलेक्ष्य सैना को गाजर मूली की तरह बीहड़ी खारो में ही काट कर निपटा दिया गया ।
जिसकी याद में आज भी फाल्गुन माह की तृतीय तिथि को बिशाल दंगल और मेले का आयोजन होता आ रहा हे ।
किसी भी दुष्ट आक्रमणकारी ने कभी फिर साहस न किया इस क्षेत्र में आक्रमण करने का ।
यही युद्ध शैली हल्दी घाटी के महान पूर्वज योद्धा ग्वालियर महाराज श्री रामशाह तोमर जी ने अपनायी ।
छापामार,गुर्रिल्ला युद्ध का समिश्रण ही था की दुस्ट अकबर को बार मुह की खानी पड़ी मेवाड़ में ।
यहाँ के जल में ही ऐसी विलक्षण गुण विद्द्यमान हे की जिसे पान करते ही देशभक्ति मातृभूमि की भावनाये समन्दर के सामान असीम हो उठती हे । पोरसा तहसील से मात्र 7 किमी दूर
पुरानी_कोंथर ठिकाने के अद्भुत कुए आज भी विद्यमान हे जिनके मात्र जलपान से लगातार 2वर्ष तक अंग्रेजी और सिंधिया फौज को रुलाये रखा ग्राम वासियो ने । शनै शनै समय के थपेड़ो में ये वीर भूमि जिस सैना के नाम से विख्यात थी वही उसी को अंग्रेज शाशन में वीर का अपभ्रंश बागी बना दिया....
जो आगे चलकर क्रान्ति की अलख में शामिल हुए बो बागी कहलाये अंततः ब्रिटिस सरकार की नीति फुट डालो शाशन करो लागू किया गया ।
और कुछ मन्द बुद्धि,धन लोलुप प्राणियो को छद्म उपाधियों का लालच देकर इस क्षेत्र की अखण्डता को छिन्न भिन्न कर दिया गया ।
डकेत शब्द का प्रचलन भी इन्ही धन लोलुप गुलामो के कारण आया ।
सत्यता में ये क्रान्ति के नायक थे जिन्होंने रसूखदारों के जुल्म से त्रस्त होकर बीहड़ो का रास्ता लिया और स्वम ही स्वम को रायफल से न्याय दिलाने चम्बल की गोद में शरण ली ।</div>
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फिर चाहे बो रामप्रसाद बिस्मिल जी हो असफाक उल्ला खान हो या ठाकुर रोशन सिंन्ह जी
या नगरा के ठाकुर सूबेदार सिंह,माधो सिंह लाखन सिंह रुपा पण्डित ,फूंदी बाड़हि,जिलेदार सिंह ,हजूरी ,लायक,रमेश सिकरवार,रमेश राजावत इत्यादि या भारत की स्टेपल रेस के प्रशिद्ध धावक विश्व कीर्तिमान बनाने बाले पानसिंह तोमर ।
ये बागी स्वतः नहीं बने समय और मजबूरी में हथियार उठाना ही पढ़ता हे ।</div>
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(जिनपर क्रम बार समय मिलने पर चम्बल गाथा के साथ लिखूंगा )
(हालांकि कुछ दुस्ट डाकुओ ने सिर्फ लूटपाट ही की हे इसलिए उनका वर्णन निर्थक हे )</div>
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सलग्न चित्र प्रशिद्ध बाग़ी माधो सिंह ,मोहर सिंह
आगे अंक क्रमश :
जय वीर भूमि "तंवरघार" </div>
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साभार -जितेन्द्र सिंह तोमर
जय चिल्लाय भवानी</div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-23460977026053804452017-06-15T04:37:00.000-07:002017-09-12T04:28:47.809-07:00प्रतापी शाशक सुहेलदेव बैस <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
मित्रो आज हम आपको भारतीय इतिहास के एक ऐसे महान राजपूत योद्धा से परिचित कराएंगे जिन्होंने विभिन्न राजपूत राजाओं का अपने नेतृत्व में संघ बनाकर इस्लामिक हमलावरो का सफलतापूर्वक सामना किया और अयोध्या, काशी जैसे हिन्दू तीर्थो की रक्षा की लेकिन जिसे देश की हिन्दू जनता ने ही भूलाकर एक आक्रमणकारी जेहादी को अपना भगवान बना लिया।<br />====================================<br />सुहेलदेव बैस का वंश परिचय -----<br />राजा सुहेलदेव बैस 11वीं सदी में वर्तमान उत्तर प्रदेश में भारत नेपाल सीमा पर स्थित श्रावस्ती के राजा थे जिसे सहेत महेत भी कहा जाता है।<br />सुहेलदेव महाराजा त्रिलोकचंद बैस के द्वित्य पुत्र विडारदेव के वंशज थे,इनके वंशज भाला चलाने में बहुत निपुण थे जिस कारण बाद में ये भाले सुल्तान के नाम से प्रसिद्ध हुए।<br />सुल्तानपुर की स्थापना इसी वंश ने की थी।<br />सुहेलदेव राजा मोरध्वज के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनका राज्य पश्चिम में सीतापुर से लेकर पूर्व में गोरखपुर तक फैला हुआ था। उन्हें सुहेलदेव के अलावा सुखदेव, सकरदेव, सुधीरध्वज, सुहरिददेव, सहरदेव आदि अनेको नामो से जाना जाता है। माना जाता है की वो एक प्रतापी और प्रजावत्सल राजा थे। उनकी जनता खुशहाल थी और वो जनता के बीच लोकप्रिय थे। उन्होंने बहराइच के सूर्य मन्दिर और देवी पाटन मन्दिर का भी पुनरोद्धार करवाया। साथ ही राजा सुहेलदेव बहुत बड़े गौभक्त भी थे।<br />==================================<br />~~सैयद सालार मसूद का आक्रमण~~<br />11वीं सदी में महमूद ग़ज़नवी ने भारत पर अनेक आक्रमण किये। उसकी मृत्यु के बाद उसका भांजा सैय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी की उपाधी लेकर 1031-33ई. में अपने पिता सालार साहू के साथ भारत पर आक्रमण करने अभियान पर निकला। ग़ाज़ी का मतलब होता है इस्लामिक धर्म योद्धा। मसूद का मकसद हिन्दुओ के तीर्थो को नष्ट करके हिन्दू जनता को तलवार के बल पर मुसलमान बनाना था। इस अभियान में उसके साथ सैय्यद हुसैन गाजी, सैय्यद हुसैन खातिम, सैय्यद हुसैन हातिम, सुल्तानुल सलाहीन महमी, बढ़वानिया सालार सैफुद्दीन, मीर इजाउद्दीन उर्फ मीर, सैय्यद मलिक दौलतशाह, मियां रज्जब उर्फ हठीले, सैय्यद इब्राहिम और मलिक फैसल जैसे सेनापति थे।<br />उसने भारत में आते ही जिहाद छेड़ दिया। जनता को बलपूर्वक इस्लाम कबूलवाने के लिये उसने बहुत अत्याचार किये लेकिन कई ताकतवर राज्यो के होते मसूद को अपने इस अभियान में ज्यादा सफलता नही मिली। इसलिए उसने रणनीति बदल कर मार्ग के राजाओ से ना उलझ कर अयोध्या और वाराणसी के हिन्दू तीर्थो को नष्ट करने की सोची जिससे हिंदुओं के मनोबल को तोड़ा जा सके। वैसे भी उसका मुख्य लक्ष्य राज्य जीतने की जगह हिन्दू जनता को मुसलमान बनाना था इसलिये वो राजाओ की सेना से सीधा भिड़ने की जगह जनता पर अत्याचार करता था।<br />मसूद का मुकाबला दिल्ली के तंवर शासक महिपाल से भी हुआ था पर अतिरिक्त सेना की सहायता से वो उन्हें परास्त कर कन्नौज लूटता हुआ अयोध्या तक चला गया,मसूद ने कन्नौज के निर्बल हो चुके सम्राट यशपाल परिहार को भी हराया.<br />मालवा नरेश भोज परमार से बचने के लिए उसने पूरब की और बढ़ने के लिए दूसरा मार्ग अपनाया जिससे भोज से उसका मुकाबला न हो जाए,खुद महमूद गजनवी भी कभी राजा भोज परमार का मुकाबला करने का साहस नहीं कर पाया था.<br />सुल्तानपुर के युद्ध में भोज परमार कि सेना और बनारस से गहरवार शासक मदनपाल ने भी सेना भेजी ,जिसके सहयोग से राजपूतो ने मसूद कि सेना को सुल्तानपुर में हरा दिया और उनका हौसला बढ़ गया.<br />मसूद अपनी विशाल सेना लेकर सरयू नदी के तट पर सतरिख(बारबंकी) पहुँच गया।वहॉ पहुँच कर उसने अपना पड़ाव डाला।<br />उस इलाके में उस वक्त राजपूतों के अनेक छोटे राज्य थे। इन राजाओं को मसूद के मकसद का पता था इसलिये उन्होंने राजा सुहेलदेव बैस के नेतृत्व में सभी राजपूत राज्यो का एक विशाल संघ बनाया जिसमे जिसमे बैस, भाले सुल्तान, कलहंस, रैकवार आदि अनेक वंशो के राजपूत शामिल थे। इस संघ में सुहेलदेव के अलावा कुल 17 राजपूत राजा शामिल थे जिनके नाम इस प्रकार है- राय रायब, राय सायब, राय अर्जुन, राय भीखन, राय कनक, राय कल्याण, राय मकरु, राय सवारु, राय अरन, राय बीरबल, राय जयपाल, राय हरपाल, राय श्रीपाल, राय हकरु, राय प्रभु, राय देवनारायण, राय नरसिंहा।<br />सालार मसूद के आक्रमण का सफल प्रतिकार जिन राजा-महाराजाओं ने किया था उनमें गहड़वाल वंश के राजा मदनपाल एवं उनके युवराज गोविंद चन्द्र ने भी अपनी पूरी ताकत के साथ युद्ध में भाग लिया था। इस किशोर राजकुमार ने अपने अद्भुत रणकौशल का परिचय दिया। गोविंद चन्द्र ने अयोध्या पर कई वर्षों तक राज किया।<br />सुहेलदेव बैस के संयुक्त मोर्चे में भर जाति के राजा भी शामिल थे,भर जनजाति सम्भवत प्राचीन भारशिव नागवंशी क्षत्रियों के वंशज थे जो किसी कारणवश बाद में अवनत होकर क्षत्रियों से अलग होकर नई जाति बन गए थे,बैस राजपूतों को अपना राज्य स्थापित करने में इन्ही भर जाति के छोटे छोटे राजाओं का सामना करना पड़ा था,<br />ये सब एक विदेशी को अपने इलाके में देखकर खुश नही थे। संघ बनाकर उन्होंने सबसे पहले मसूद को सन्देश भिजवाया की यह जमीन राजपूतो की है और इसे जल्द से जल्द खाली करे।<br />मसूद ने अपने जवाब में अपना पड़ाव यह कहकर उठाने से मना कर दिया की जमीन अल्लाह की है।<br />====================================<br />~~बहराइच का युद्ध~~<br />मसूद के जवाब के बाद युद्ध अवश्यम्भावी था। जून 1033ई. में मसूद ने सरयू नदी पार कर अपना जमावड़ा बहराइच में लगाया। राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में राजपूतो ने बहराइच के उत्तर में भकला नदी के किनारे अपना मोर्चा जमाया। जब राजपूत युद्ध की तैयारी कर ही रहे थे तभी रात के वक्त अचानक से मसूद ने हमला कर दिया जिसमे दोनों सेनाओ को बहुत हानि हुई।<br />इसके बाद चित्तोरा झील के किनारे निर्णायक और भयंकर युद्ध हुआ जो 5 दिन तक चला। मसूद की सेना में 1 लाख से ज्यादा सैनिक थे जिसमे 50000 से ज्यादा घुड़सवार थे जबकि राजा सुहेलदेव की सेना में 1 लाख 20 हजार राजपूत थे।<br />इस युद्ध में मसूद ने अपनी सेना के आगे गाय, बैल बाँधे हुए थे जिससे राजपूत सेना सीधा आक्रमण ना कर सके क्योंकि राजपूत और विशेषकर राजा सुहेलदेव गौ भक्त थे और गौ वंश को नुक्सान नही पहुँचा सकते थे, लेकिन राजा सुहेलदेव ने बहुत सूझ बूझ से युद्ध किया और उनकी सेना को इस बात से ज्यादा फर्क नही पड़ा और पूरी राजपूत सेना और भर वीर भूखे शेर की भाँति जेहादियों पर टूट पड़ी। राजपूतो ने जेहादी सेना को चारों और से घेरकर मारना शुरू कर दिया। इसमें दोनों सेनाए बहादुरी से लड़ी और दोनों सेनाओं को भारी नुक्सान हुआ। ये युद्ध 5 दिन तक चला और इसका क्षेत्र बढ़ता गया। धीरे धीरे राजपूत हावी होते गए और उन्होंने जेहादी सेना को गाजर मूली की तरह काटना शुरू कर दिया।<br />लम्बे भाले से लड़ने में माहिर बैस राजपूत जो बाद में भाले सुल्तान के नाम से माहिर हुए उन्होंने अपने भालो से दुश्मन को गोदकर रख दिया.<br />किवदन्ती के अनुसार अंत में राजा सुहेलदेव का एक तीर मसूद के गले में आकर लगा और वो अपने घोड़े से गिर गया। बची हुई सेना को राजपूतों ने समाप्त कर दिया और इस तरह से मसूद अपने 1 लाख जेहादीयों के साथ इतिहास बन गया।<br />विदेशी इतिहासकार शेख अब्दुर्रहमान चिश्ती ने सालार मसूद की जीवनी "मीरात-ए-मसूदी" में लिखा है "इस्लाम के नाम पर जो अंधड़ अयोध्या तक जा पहुंचा था, वह सब नष्ट हो गया। इस युद्ध में अरब-ईरान के हर घर का चिराग बुझा है। यही कारण है कि दो सौ वर्षों तक मुसलमान भारत पर हमले का मन न बना सके।"<br />राजा सुहेलदेव के बारे में ये कहा जाता है की वो भी अगले दिन मसूद के एक साथी के द्वारा मारे गए लेकिन कई इतिहासकारो के अनुसार वो युद्ध में जीवित रहे और बाद में कन्नौज के शाशको के साथ उन्होंने एक युद्ध भी लड़ा था।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
इस युद्ध की सफलता में राजा सुहेलदेव बैस के नेतृत्व, सन्गठन कौशल और रणनीति का बहुत बड़ा हाथ था। इसीलिए आज भी राजा सुहेलदेव बैस को इस अंचल में देवता की तरह पूजा जाता है।<br />श्रीराम जन्मभूमि का विध्वंस करने के इरादे से आए आक्रांता सालार मसूद और उसके सभी सैनिकों का महाविनाश इस सत्य को उजागर करता है कि जब भी हिन्दू समाज संगठित और शक्ति सम्पन्न रहा, विदेशी शक्तियों को भारत की धरती से पूर्णतया खदेड़ने में सफलता मिली। परंतु जब परस्पर झगड़ों और व्यक्तिगत अहं ने भारतीय राजाओं-महाराजाओं की बुद्धि कुंठित की तो विधर्मी शक्तियां संख्या में अत्यंत न्यून होते हुए भी भारत में पांव पसारने में सफल रहीं।<br />लेकिन विडंबना यह है की जो सैयद सालार मसूद हिन्दुओ का हत्यारा था और जो हिन्दुओ को मुसलमान बनाने के इरादे से निकला था, आज बहराइच क्षेत्र में उस की मजार ग़ाज़ी का नाम देकर पूजा जाता है और उसे पूजने वाले अधिकतर हिन्दू है। बहराइच में एक पुराना सूर्य मन्दिर था जहाँ एक विशाल सरोवर था जिसके पास मसूद दफन हुआ था। तुग़लक़ सुल्तान ने 14वीं सदी में इस मन्दिर को तुड़वाकर और सरोवर को पटवाकर वहॉ मसूद की मजार बनवा दी। हर साल उस मजार पर मेला लगता है जिसमेँ कई लाख हिन्दू शामिल होते है।<br />राजा सुहेलदेव बैस जिन्होंने हिंदुओं को इतनी बड़ी विपदा से बचाया, वो इतनी सदियोँ तक उपेक्षित ही रहे। शायद वीर क्षत्रियो के बलिदान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का हिन्दुओ का ये ही तरीका है। कुछ दशक पहले पयागपुर के राजा साहब ने 500 बीघा जमीन दान में दी जिसपर राजा सुहेलदेव बैस का स्मारक बनाया गया और अब वहॉ हर साल मेला लगता है।<br />======================================<br />~~राजा सुहेलदेव बैस के विषय में मिथ्या प्रचार~~<br />इस युद्ध में राजपूतो के साथ भर और थारू जनजाति के वीर भी बड़ी संख्या में शहीद हुए,राजपूतों के साथ इस संयुक्त मौर्चा में भर और थारू सैनिको के होने के कारण भ्रमवश कुछ इतिहासकारों ने सुहेलदेव को भर या थारू जनजाति का बता दिया जो सत्य से कोसो दूर है क्योकि स्थानीय राजपुतो की वंशावलीयो में भी उनके बैस वंश के राजपूत होने के प्रमाण है। सभी किवदन्तियो में भी उनहे राजा त्रिलोकचंद का वंशज माना जाता है और ये सर्वविदित है की राजा त्रिलोकचंद बैस राजपूत थे।<br />पिछले कई दशको से कुछ राजनितिक संगठन अपने राजनितिक फायदे के लिये राजा सुहेलदेव बैस को राजपूत की जगह पासी जाती का बताने का प्रयत्न कर रहे है जिससे इन्हें इन जातियों में पैठ बनाने का मौका मिल सके।<br />दुःख की बात ये है की ये काम वो संगठन कर रहे है जिनकी राजनीती राजपूतो के समर्थन के दम पर ही हो पाती है। इसी विषय में ही नही, इन संगठनो ने अपने राजनितिक फायदे के लिये राजपूत इतिहास को हमेशा से ही विकृत करने का प्रयास किया है और ये इस काम में सफल भी रहे है। राजपूत राजाओ को नाकारा बताकर इनके राजनितिक हित सधते हैं।<br />पर हम अपना गौरवशाली इतिहास मिटने नहीं देंगे,वीर महाराजा सुहेलदेव बैस को शत शत नमन<br />जय राजपूताना-----</div>
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<span style="color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif;"><span style="background-color: white; font-size: 14px;">साभार -राजपुताना सोच <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJedOZALO5uZJsh5AxvIsh-D2-zwO_BPgzg0j0csGdBA_bd6wWqQDDOrkKmSRd3Yk_2Wv_x6DPnQSJB_Cqz9TY_ZK9Tejy5DuLBzroIaeFjNIcDclVLeKq7w0Je4hf2fJ2-VkS8kYDiLWj/s1600/images+%25282%2529.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="169" data-original-width="297" height="113" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJedOZALO5uZJsh5AxvIsh-D2-zwO_BPgzg0j0csGdBA_bd6wWqQDDOrkKmSRd3Yk_2Wv_x6DPnQSJB_Cqz9TY_ZK9Tejy5DuLBzroIaeFjNIcDclVLeKq7w0Je4hf2fJ2-VkS8kYDiLWj/s200/images+%25282%2529.jpg" width="200" /></a></div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-79414807500226365992017-06-15T03:49:00.001-07:002017-10-01T02:08:00.680-07:00युगपुरुष तेजमाल जी भाटी गिरधर दान रतनु जी (उतर भड किवाड़ भाटी )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="_5pbx userContent" data-ft="{"tn":"K"}" id="js_5" style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 1.38;">
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px;">
तेजमाल जी रामसिंहोत भाटी के गुणगान</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पंथी एक संदेसड़ो तेजल नैं कहियाह !गिरधरदान रतनू दासोड़ी</div>
<div style="display: inline; font-family: inherit; margin-top: 6px;">
किणी कवि सही ई कैयो है कै जे प्रीत उत्तम सूं लाग ज्यावै तो कदै ई बोदी नीं पड़ैज्यूं पत्थरी सौ वरसां तक जल़ में रैवण पछै ई अग्नि रो साथ नीं छोडै -प्रीत पुराणी नह पड़ै जे उत्तम सूं लग्ग।<br />सौ वरसां जल़ में रहे पत्थरी तजै न अग्ग।।<br />ऐड़ो ई एक गीरबैजोग किस्सो है भाटी तेजमाल अर रतनू हरपाल रो।<br />जैसलमेर री धरा माथै रामसिंह भाटी सपूत अर सूरमो मिनख ।इणां एक ब्याव अमरकोट रै सोढै जोधसिंह री बेटी करमेती सूं कियो ।करमेती आपरी कूख सूं पांच सूरमां नै जन्म दियो - करमेती कुंती जिसा जाया पंडव जैस।<br />अखो तेजो नैं ऊदलो दुरजन नै कानेस।।<br />इण पांचूं ई भायां में तेजमाल महाभड़ अर क्षत्रिय गुणां सूं मंडित पुरुष।सनातनी संबंधां नैं टोरण री अखंड आखड़ी ।तेजमाल री टणकाई री बातां चौताल़ै चावी।एकर सिरुवै गांव रै पाखती रै गांव चीचां रा दो चींचा रतनू अर दो इणां रा रिस्तेदार जिकै बरसड़ा जात रा हा। कोई काम सूं गुजरात गया जठै मुसलमानां रै हाथां मारीजग्या ।उणां मरती वेला बैते बटाऊ नै एक दूहो सुणायो अर भोलावण दीनी कै तेजमाल भाटी नैं कै दीजै। कै दो चींचा अर दो बरसड़ा इण गत रणखेत रेयग्या -<br />पंथी एक संदेसड़ो तेजल नैं कहियाह<br />दो चाचा दो वरसड़ा रणखेतां रहियाह।।<br />सतधारी बटाऊ सीधै आय तेजमाल नैं आ बात बताई ।तेजमाल रा भंवारा तणीजग्या । शरीर खावण लागग्यो। महावीर अजेज चढियो अर जाय रतनुवां रो वैर लियो ।कवि प्रभुदान देवल पेमावेरी रै आखरां में -<br />वैर रतनू तणो सेह धणी वाल़ियो<br />पाल़ियो वचन ज्यां राव पाबू।<br />आवता लूटवा देस उसराण रा<br />कटक सब वैहता किया काबू।।<br />महावीर तेजमाल सूं महारावल़ जसवंतसिंह शंकित रैवण लागा।तेजमाल ई मारको वीर सो किणी री गिनर नीं करै।महारावल़ नैं लोगां भरमाया कै तेजमाल गढ कब्जै कर र रावल़ बण सकै।आपसी कजियै सूं राड़ इती बधी कै छेवट हाबूर मे महारावल री सेना अर तेजमाल रै भिड़ंत हुई जिण में तेजमाल रै घणा घाव लागा अर रगत परनाला छूटा।बचण री आश नीं रैयी जद इण शूरमे आपरै हाथां आपरै लोही सूं माटी पिंड बणाय पिंडदान कर वीरगति वरी ।इण लड़ाई में सिरुवै रो रतनू हरपाल ई साथै हो।हरपाल ई वीर अर अडर पुरुष।महारावल आदेश दियो कै कोई भी तेजमाल रो दाह संस्कार नीं करैला। हरपालजी आदेश नैं गिणियो अर हाबूर रै भाटियां री सहायता सूं दाह संस्कार कियो ।अठै महारावल़ अर तेजमालजी रै मिनखां बिचै दाह संस्कार सारु .हुई लडाई में दो झीबा चारण ई काम आया ।रतनू हसपाल री वीरता विषयक ओ दूहो घणो चावो है -<br />झीबां पाव झकोल़िया उडर हुवा अलग्ग।<br />पह रतनू हरपाल़ रा प्रतन छूटा पग्ग।।<br />महारावल़ कन्नै खबर गई कै इणगत रतनू हरपाल मांडै तेजमाल रो दाह संस्कार कियो।दरबार आदेश दियो कै म्है कोई दूजो कदम उठाऊं उण सूं पैला हरपाल़ जैसलमेर छोड दे।रतनू हरपाल़ तुरंत जैसलमेर छोड भिंयाड़ कोटड़ियां कन्नै गया परा।<br />क्रमशः</div>
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhE53SsNHeFzJhPLhluEEaCPzvWkdnVBS-gNtdSjnu9yJfVlI3NZg2S5e9aK8Rzck9N4wHO-tpF4ZGcmT76oyPeXMmmxCCp9CoLgqcLDzHOnoIUgh8P2LNtkQEtUE9f23uStYEnH_MPTGa7/s1600/20160327_075203_1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1032" data-original-width="580" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhE53SsNHeFzJhPLhluEEaCPzvWkdnVBS-gNtdSjnu9yJfVlI3NZg2S5e9aK8Rzck9N4wHO-tpF4ZGcmT76oyPeXMmmxCCp9CoLgqcLDzHOnoIUgh8P2LNtkQEtUE9f23uStYEnH_MPTGa7/s320/20160327_075203_1.jpg" width="179" /></a></div>
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<br /></div>
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<div data-ft="{"tn":"H"}" style="font-family: inherit;">
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<a ajaxify="/bhatihistory/photos/a.314328288665589.69274.313931455371939/921467227951689/?type=3&size=960%2C1280&fbid=921467227951689&source=13&player_origin=story_view" class="_4-eo _2t9n _50z9" data-ft="{"tn":"E"}" data-ploi="https://scontent-sin6-2.xx.fbcdn.net/v/t31.0-8/12593567_921467227951689_5105710845217300157_o.jpg?oh=f493b4ecf6d6f3a00ee8ae0c6ece7958&oe=59D6137C" data-render-location="permalink" href="https://www.facebook.com/bhatihistory/photos/a.314328288665589.69274.313931455371939/921467227951689/?type=3" rel="theater" style="box-shadow: rgba(0, 0, 0, 0.05) 0px 1px 1px; color: #365899; cursor: pointer; display: block; font-family: inherit; position: relative; width: 476px;"></a></div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-86203761910729803302017-06-15T03:44:00.000-07:002017-09-14T20:10:37.950-07:00मालानी रा संस्थापक रावल मलिनाथ जी (लोक देवता संत महापुरुष )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #666666; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 12px; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
रावल मल्लिनाथजी</div>
<div style="background-color: white; color: #666666; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 12px; margin-bottom: 1em; margin-top: 1em;">
<br />मल्लिनाथजी अेक बौत ई पराक्रमी पुरुष हा। आपरै पराक्रम सूं वै सारौ महैवौ प्रदेेस आपरै कब्जै में कर लियौ हौ, जकौ बाद में उणां रै नाम सूं मालाणी मश<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">हूर हुयौ। जठै उणां रै वंशजां रौ ई कब्जौ रैयौ। अै मारवाड़ रै राव सलखाजी रा पुत्र हा, सिदध पुरुष ई हा। मुंहता नैणसी मुजब "मल्लिनाथ फगत सिद्ध पुरुष ई नीं हा, उणां नै देवतावां रौ चमत्कार ई प्राप्त हौ। वै भविष मांय घटण वाली बातां पैली ई जाण लेवता हा।"<br />कैयौ जावै के अेक सिद्ध जोगी री दुआ सूं वै रावल पदवी धारण करी ही। इणी कारण उणां रा वंशज ई रावल बाजता रैया है। यूं मारवाड़ रा लोग तौ उणांनै ई सिदध या अवतारी पुरुष मानता रैया है अर इणरौ प्रमाण है लूणी नदी रे किनारै बस्यौडै़ तिलवाड़ै गाम में बण्यौड़ौ इणां रौ मिंदर, जठै आयै बरस चैत महीनै में अेक मेलौ लाग्या करै। इणरै अलावा मंडोर में आयौड़ी चावी देवतावां अर वीरां रा साल में ई घोड़ै माथै सवार णिां री अेक बौत बडी मूरती खुद्योड़ी है।<br />'जोधपुर राज्य री ख्यात' मुजब राव सलखा रै जेठै बेटै रै रूप में मल्लिनाथ रौ जनम वि. सं. 1395 परवाणै ई. स. 1338 में सिवाणा रै गाम गोपड़ी में हुयौ हौ। पिता रै सुरगवास रै बाद बारै बरस री उमर में वै आपरै काकै राव कान्हड़देव रै कनै गया। इणां रै काम करण री कुसलता सूं राजी हुय'र थोड़ै ई बगत में राव कान्हड़देव राज्य रौ सगलौ प्रबंध इणां नै सूंप दियौ।<br />अेकर दिल्ली रै बादसा कानी सूं कीं आदमियां रै साथै अेक किराड़ी दंड वसूलण नै आयौ। सिरदारां री राय सूं कान्हड़देव दंड नीं देवण रौ तै कर्यौ, साथै किराड़ी समेत बादसा रै सै आदमियां नै मारण रौ ई। पण मल्लिनाथ कूटनीति रौ सहारौ लेय'र किराड़ी री बौत खातिरदारी करी अर उणनै सही-सलामत दिल्ली पुगवाय दियौ। इण बात माथै बादसा इणां नै महेवै री रावलाई रौ टीकौ दियौ। पण कीं इतिहासकार इणनै नीं मानै। जद कान्हड़देव रौ देहांत हुयौ तो मल्लिनाथ सोचण लाग्या के बादसा टीकौ तौ देय दियौ पण जद तांई त्रिभुवनसी जीवतौ है, राज म्हारै हाथ लागण वालौ नीं। सो सेवट वै महेवै री गादी माथै बैठ्यै त्रिभुवनसी नै उणरै इज भाई पद्मसिंह रै हाथां मरवाया दियौ। त्रिभुवनसी नै मरवावण रै बाद मल्लिनाथ सुभ म्हौरत दिखाय'र महेवै पूग्या अर पाट बैठ्या। वै चौफेर आपरी आण फिराई। लगैटगै सगला ई राजपूत आय'र उणां सूं मिलग्या। इण भांत उणां री ठकराई दिनौदिन बढ़ण लागी।<br />मल्लिनाथ मंडोर, मेवाड़, आबू अर सिंघ रै बीच लूट-मार कर करनै जद मुसलमानां नै तंग करणा सरू कर्या, तद उणां री अेक बौत बडी सेना चढा़ई करी, जिणमें तेरै दल हा। मल्लिनाथ तैरै ई दलां नै हराय दिया। 'जोधपुर राज्य री ख्यात' मुजब आ घटना वि. सं. 1435 (ई. सं. 1378) में हुई। इण हार रौ बदलौ लेवण सारू मालवै रौ सूबेदार खुद इणां माथे चढ़ाई करी, पण मल्लिनाथ री शूरवीरत अर जुद्ध-कौसल रै सामी वौ टिक नीं सक्यौ।<br />मारवाड़ में औ अघदूहौ घणौ चावौ रैयौ है-<br />तेरा तुंगा भांगिया, मालै सलखाणीह।<br />मतलब सलखा रौ बेटौ मालौ आपरै अनूठै पराक्रम सूं मुसलमानां री फौज रै तेरा तुंगां (दलां)नै हराय दिया।<br />मल्लिनाथ सालोड़ी गाम आपरै भतीजै चूंड़ै (राव वीरम रै बेटै) नै जागीर में दियौ हौ अर उणरै नागौर माथै चढ़ाई करण में उणरी मदत ई करी ही। इणरै अलावा वै सिवाणौ मुसलमानां सूं खोस'र आपरै छोटै भाई जैतमाल नै, खेड़ (किणी-किणी ख्यात में भिरड़कोट) सोतैलै भाई वीरम नै, अर ओसियां सोतैलै भाई शोभित नै जागीर में दिया है। दरअसल ओसियां माथै उण बगत पंवारां रौ कब्जौ हौ अर मल्लिनाथ री इजाजतसूं शोभित उणां नै हराय'र उण माथेै कब्जौ कर्यौ हौ।<br />रावण मल्लिनाथ महान वीर अर नीतिज्ञ शासक हा। उणां नीं सिरफ राठौ़डी राज रौ विस्तार करियौ, बल्कै उणनै मजबूती ई प्रदान करी मल्लिनाथ रौ सुरगवास वि. सं. 1456 (ई.स. 1399) में हुयौ। इतिहासकार रेउ मुजब मल्लिनाथ रै 5 बेटा हा अर ओझा मुजब 9, जिणां में जेठौ बेटौ हुवण रै कारण जगमाल पाटवी हुयौ।<br />आखरी दिनां में साधु वृत्ति धारण करण सूं रावल मल्लिनाथ नै सिद्ध-जोगी रै रूप में आज ई मारवाड़ याद करै। अै बडा करामाती सिद्ध अर वीर तौ हा पण अेक पंथ ई चलायौ। इणां री राणी रूपां दे रै चमत्कारां अर उगमसी भाटी रै उपदेशां सूं प्रभावित हुय'र पंथ में दीक्षित हुया। जिण में गुरु भगती अर ईस्वर भगती रै माध्यम सूं मिनखा जूंण री सफलता नै खास घैय मानियौ।</span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3V2LexxHC8AaauY4sBrC6ufm5gwpkoJNijPcXZTaUp4ISeOyaEj4dFKc4J4211SYYIJ5P6_ElQImkiEDpKalmCKKFcK4e_YSpI4LMZR9w7aEkltR5ey8mdId4M11aT5Q_0S2v1aD4S1wO/s1600/download+%25282%2529.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="258" data-original-width="196" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3V2LexxHC8AaauY4sBrC6ufm5gwpkoJNijPcXZTaUp4ISeOyaEj4dFKc4J4211SYYIJ5P6_ElQImkiEDpKalmCKKFcK4e_YSpI4LMZR9w7aEkltR5ey8mdId4M11aT5Q_0S2v1aD4S1wO/s200/download+%25282%2529.jpg" width="151" /></a></div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-20745984466219240912017-06-14T00:51:00.002-07:002017-10-01T02:05:13.662-07:00बणीर जी कांधलोत (राठोड़) री बात<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
-:<br />****************************<br />रावत कांधल जी रा बडा बेटा हा बाघ जी अर बाघ जी रा बेटा बणीर जी जद सारंग खान सूं कांधल जी रो बदलो लेवण सारू राठौड़ां रो सगळो कडूम्बो अर भाईबन्ध भेळा होय बड़ी भारी फौज लेय'र हंसार रै फौजदार सारंग खान माथै चढ़ाई किणी जद सारंग खान बी सामों फौज करनै आयो गांव झांसल मांय दोनूं सेनांवां रो टकराव हुयौ अर सारंग खान ने मार'र बाघ जी बी सुरगां सिधाया ।पछे राठौड़ां रावत कांधल जी रो बदलो लेय घणा राजी होया अर साहवा मांय आय दाढ़ी बणवाय सोग रा कपड़ा उतार'नै राजसी वस्त्र पैरिया पछे रावत कांधल जी री पाग रो दस्तूर हुयौ उण टेम बणीर जी बाळी उम्र रा हा जिणसूं रावताई रो टीको इणां रे काकोसा राजसिंह जी ने दिरिज्यो।राजसिंह रे ठिकाणो राजासर ,अरडकमल जी रे साहवा अर बणीर जी रे ठिकाणो चाचावाद पांति आयो जिका पेल्यां ई कांधल जी आपरा बेटा रै बांध दिया हा।चाचावाद सूं आय बणीर जी साहवा रैया पछे आपरौ ठिकाणो मेलुसर बांध्यो अठे पाणी री घणी मारा मारी ही जणा बणीर जी मेलुसर मांय ऐक तळाव बणवायो जिकौ आज बी बणीर सागर रै नांव सूं जाण्यो जावै है।<br />मेलुसर रो ठिकाणो बणाय'र बणीर जी चायलों माथै चढ़ाई करनै उण नै मार भगाया अर आपरौ नूवों ठिकाणो घांघू बणायो अर घांघू मांय गढ़ बणवायो।बीकानेर री मदत सारू बणीर जी घणा जुध लड़िया बणीर जी रा च्यार ब्याव हुया उण मांय एक ब्याव री बात इण तरु बताईजै ।</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh0serD56xBz3Br0B5_Rd8lYZYJvuyIc9EG2jfLbydXr9NIsz-WbfItfywLcQLu_WLLEECoIUSTX9wnwtuBoKjPOmlnGDpnIQYCTi_qGYJSUmGN2VZJT_5etAcUGkb_aYcTWlkHBDdJhSJB/s1600/18766088_1155574624546433_2590952106628593778_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="807" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh0serD56xBz3Br0B5_Rd8lYZYJvuyIc9EG2jfLbydXr9NIsz-WbfItfywLcQLu_WLLEECoIUSTX9wnwtuBoKjPOmlnGDpnIQYCTi_qGYJSUmGN2VZJT_5etAcUGkb_aYcTWlkHBDdJhSJB/s200/18766088_1155574624546433_2590952106628593778_n.jpg" width="168" /></a></div>
बणीर जी कांधलोत री बात :-<br />
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बरसलपुर रा भाटी सिरदार आपरा रावला अर पशुओं नै लेय घांघू रे नजीक खारिया गांव री रोही मांय डेरा लगाय आपरा पशुओं नै चरावै जणा बणीर जी री घणी ख्याति सुणी भाटी सिरदार रे एक डीकरी ही उछरंगदे ।बणीर जी रो घणो नांव सुण राख्यो हो जद भाटी सिरदार सोच्यो कै बाई रो ब्याव बणीर जी रे बडा बेटा मेघराज सूं करदेवां तो आछौ रैवे आ मनडा मांय धार आपरी कुंवरी उछरंगदे रो नारेळ घांघू भेजीयो।उण टेम ठाकरां बणीर जी बूढ़ा हुयग्या हा अर घणो अम्ल तमाखू खाय खांसी मांय हलाडोब रेंवता हा जद भाटीयों रा पिरोयत नारेळ लेय दरबार मांय हाजर हुया उण टेम बणीर जी खांसी मांय घणा उलझेड़ा हा जद सिरदारां बणीर जी नै कैयो कै आपरा बेटा मेघराज खातर भाटियाँ सूं सगपण रो नारेळ आयो है तो बणीर जी हांस'र बोल्या भाई नारेळ तो जवानडां रो ई आवै बुढा रो कुण भेजे है।बणीर जी री आ बात उणरै बेटा मेघराज बी सुण ली ही जणा मेघराज पिरोयत जी सूं कैयो के ओ नारेळ आप म्हारैबापजी नै ई झिलावो जद पिरोयत जी बोल्या कै म्हारी बाईसा तो अजै टाबर है अर ऐ बुढा डोकर इणनै कुण आपरी बेटी देवैलो।<br />अबै बात घणी खींचताण री हुयगी भाटियाँ रो आयोडो नारेळ पाछो जावे तो राठौड़ो री घणी भुंड रै साथै ई भाटीयों रो बी अपमान ।मेघराज तो साव नाटग्यो के इण नारेळ माथै म्हारै दाता रो मन आयग्यो इणसूं इण नारेळ हाली तो म्हारी माव बरोबर ।जद आखर मांय पिरोयत जी बोल्या कै जै थां म्हारी बाईसा सूं होवण हाली औलाद नै टिकायत बणावण रो कौल करो तो म्हे म्हारी बाईसा रो ब्याव बणीर जी साथै करणनै राजी हा जद मेघराज ओ कौल करियौ के इणा सूं होवण हाळा बेटा नै म्हे म्हारा हाथां सूं घांघू री गदी माथै बिठाय तिलक करस्यूं।<br />मेघराज रे इण भांत कौल करिया पछे भटियाणी उछरंगदे बरसलपुरी रो नारेळ पिरोयत जी बणीर जी नै झिलाय'र ब्याव रो आछौ सो म्हूरत देखनै दिन धरियो ।घांघू सूं विदायगी लेय पिरोयत जी गांव खारिया आय भाटियाँ रे डेरां हाजर होयनै सगळी बात बताय'र ब्याव री त्यारी करण रो कैयो सगळी बात समझ्यां पछे भाटी सिरदार बी घणा राजी होया ब्याव री त्यारियां हुयी बान तेल हुया मंगल गीत गाईज्या।<br />बणीर जी बारात लेय आया भटियाणी जी सूं ब्याव करनै पाछा व्हीर हुया।बणीर जी घोड़ा माथै हा अर अम्ल रो पुरो नशो करियोडो हो भटियाणी जी पालकी मांय खारिया सूं व्हीर हुय थोड़ीक दूर ई चाल्या हा कै च्यार पांच भेड़िया एक खाजरु नै मार'र बींरा मास रा लोथड़ा मुण्डा मांय दाब्यां घोड़ी रे आगू कर भाज'र निसरया जणा बणीर जी री घोड़ी बिदकगी।ठाकरां नशा मांय हलाडोब हुयौडा हा जणा साम्भल कोनी सक्या अर छाती घोड़ी री जीण री खुंटी सूं आय लाग्यी अर बणीर जी पड़'र बेसुध हुयग्या ।उणी टेम सुगनियां कैयो कै इण राणी सूं इतरा बेटा होसी इण भौम रै च्यारूं कानी उणरौ राज होसी ।राणी भटियाणी हुँस्यार ही बण आपरी पालकी आगै करवायी अर बाकी सगळा गेल्यां गेल्यां चाल्या ।<br />भटियाणी जी बणीर जी रो अम्ल कमती करणो सरू कियौ अर थोड़ो थोड़ो करतां करतां एकदम ई बन्द कर ठाकरां रो अम्ल छोडाय दीन्यो चौखो खाणो दाणो सरू कर बणीर जी नै पाछा डीलडौल सूं तगड़ा करलिया इण ठकुराणी भटियाणी जी सूं च्यार बेटा मालदेव ,अचलदास ,महेशदास अर जैतसिंह हुया। इणी मालदेव जी पछे आपरौ नूवों ठिकाणो आपरै जोर सूं चुरू बणायो अर घांघू रो ठिकाणो आपरै भाई अचलदास नै बगस्यो।बणीर जी बीकानेर री मदतसारू पन्दरा लड़ाया अर जुद लड्या ।<br />(१)जद बीकोजी जोधपुर माथै चढायी कीनी उण टेम बणीर जी बी आपरी जमीयत लेय'र गिया अर जीत'र आया ।<br />(२)जद बीकाजी मेड़ता री मदत मांय बरसिंघ ने अजमेर रा नवाब सूं छुडावण खातर अजमेर माथै चढायी कीनी उण बगत बी बणीर जी मदत नै गिया अर बरसिंघ नै छोडाय लाया।<br />(३)बीकाजी खण्डेला रा राव रिड़मल माथै हमलो करियौ जद बणीर जी बी दुजा कांधलोतां राजसी अर अरडकमल जी रे साथै आपरी फौज लेय बीकानेर री मदत सारू गिया अर जीत'र आया।<br />(4)बीकाजी जद खण्डेला रा राव अर हिन्दाल रा नबाब माथै व्हार कीनी जद बणीर जी भी मदत सारू गिया अर इण लड़ाई मांय हिन्दाल अर रिड़मल दोन्यू मारया गिया अर जीत राठौड़ां री हुवी।<br />(5)विक्रम संवत 1566 मांय जद राव लूणकरण ददरेवा माथै चढायी कीनी जद बणीर जी आपरै साथ सूं गिया इण लड़ाई मांय ददरेवा रो मानसिंह मारयो गियो अर बठै कब्जो राठौड़ां रो हुयग्यो।<br />(6)विक्रम संवत 1569 मांय बीकानेर राजा लूणकरण फतेहपुर माथै हमलों करियौ जणा बाकि राठौड़ां रै साथै बणीर जी भी मदत सारू गिया अर जीत्या।<br />(7)विक्रम संवत 1570 मांय जद नागौर रो नवाब बीकानेर माथै हमलों करियौ जद बणीर जी,राजसी,अरडकमल जी बगैरा सगला राठौड़ बीकानेर री मदत सारू गिया अर नवाब माथै व्हार चढ्या नवाब चोट खाय घायल हुये भाजियों अर जीत राठौड़ां री हुवी।<br />(8)जैसलमेर राव राठौड़ां रे चारण लालो जी महड़ू रो अपमान करियौ जणा चारण आय पुकार करी जद राव लूणकरण राठौड़ां नै लेय जैसलमेर माथै चढायी कीनी जद बणीर जी ,खेतसी साहवा,रावत किसनसिंघ राजासर,महेसदास सारूण्ड़ा ,सांगा बिदावत आद सिरदारां जैसलमेर रावल नै हराय पकड़ीया जणा जैसलमेर रावल लाला महड़ू सूं माफ़ी मांग राठौड़ां नै आपरी कन्यावां परणाय राजीपो करियौ।<br />(9)राव लूणकरण विक्रम संवत 1583 मांय नारनोल रा नवाब माथै चढायी कीनी जद बणीर जी,खेतसी,रावत किसनसिंघ आद भी मदत सारू साथै गिया पण बीदावत कल्याणमल दगो कर नै दुस्मयां सूं जाय मिलियो जिण सूं राव लूणकरण मारिया गिया आ लड़ाई ढोसी मांय हुयी।<br />(10)राव जैतसी रा भाणेज सांगा कछावा बीकानेर सूं मदत मांगी जणा बीकानेर कानी सूं बणीर जी,खेतसी,किसनजी,महेस सारूण्ड़ा,रतनसी महाजन आद फौज लेय गिया अर सांगा री मदत कीनी राठौड़ां री मदत सूं सांगा कछावा आमेर री घणी भौम ढबाय आपरै नांव सूं सांगानेर बणायो<br />(11)राव गांगा जोधपुर रा जद विक्रम संवत1585 मांय बीकानेर राव जैतसी सूं मदत मांगी जद जैतसी मदत सारू गिया उण बगत बणीर जी,खेतसी कांधलोत,किसन जी राजासर,सांगा बिदावत,महेश मण्डलावत आद सिरदार साथै मदत सारू गिया अर जोधपुर राव गांगा इणरी मदत सूं विजयी हुया।<br />(12) विक्रम संवत 1591 मांय बाबर रो भाई कमरू(कामरान )भटनेर माथै बहोत बड़ी फौज लेय हमलों कियौ भटनेर रा स्वामी राव खेतसी आपरा थोड़ा सा रजपूतां नै साथै लेय'र उणरौ मुकाबलो करियौ पण दुस्मयां री फौज घणी होवण सूं घणे सुरापण सूं लड़तां थकां वीरगति नै व्हीर हुया पाछै कामरान बीकानेर माथै चढायी कीनी जणा राव जैतसी मुगलां माथै आपरै थोड़ा सा रजपूतां साथै रातिवाहो कियौ जिणमें कामरान रा घणा आदमी मारिया गिया कामरान राठौड़ां रो प्रबल वेग झाल नीं सक्यो अर डरतो भाग खड्यो हुयौ कैबत चालै कै मुगलों इतणो डरग्यो कै पाछो मुड़गे ही नीं देखियौ।इण लड़ायी मांय जैतसी री मदत सारू बणीर जी कांधलोत, किसन जी राजासर ,साईंदास पुत्र खेतसी कांधलोत, रतनसी महाजन,घड़सी, महेश सारूण्ड़ा आद सिरदार सामल हा।बणीर जी री इण जुध माय वीरता माथै बीठू सूजा भी राव जैतसी रे छन्द माय लिख्यो है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"फरहरई फउरि फरि अफरि फुल।<br />ऊंचास अस्मि अरिखि अमूल।।<br />बणवीर चढ़िय तेवहि ब्रहासि।<br />अहिंकारि थम्भ आडर आयसि।।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
(13)जद विक्रम संवत1597 मांय राव मालदेव बीकानेर माथै हमलों करियौ जद बीकानेर री मदत सारू बणीर जी ,किसन जी,साईंदासजी आद सिरदार भी गिया इण जुध मांय राव जैतसी मारया गिया अर बीकानेर माथै जोधपुर रो कब्जो हुयग्यो।<br />(14)विक्रम संवत1603 मांय जद मालदेव मेड़ता परियां चढायी कीनी जद जयमल बीकानेर सूं मदत मांगी जद बीजां सिरदारां रे साथै बणीर जी भी जयमल री मदत सारू गिया।<br />(15) हाजीखां पठान जद जोधपुर रै विरुद्ध बीकानेर सूं मदत मांगी जणा बीजा सिरदारां रै साथै बणीर जी भी मदत सारू गिया।इण तरु बणीर जी कांधलोत घणी लड़ाया अर जुध लड़िया जिण मांय घणकरा जुध बीकानेर री मदत सारू लड़िया।बणीर जी री मृत्यु गांव घांघू मांय विक्रम संवत 1605 मांय हुयी इणरै चार रानियां थी जिणसूं दो बेटी अर ग्यारह बेटा हुया।बणीर जी री औलाद बनीरोत कांधल कहावे है बनीरोतो रो बड़ो ठिकाणो चुरू </div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
आभार -अजयसिंह राठौड़ </div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-51262195195808489062017-06-14T00:18:00.001-07:002017-10-01T02:05:13.669-07:00साईंदास कांध्लोत राठोड री बातां <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">-:साईंदास कांधलोत री बात :-</span><br style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">रावत कांधल जी रा पोता खेतसी अरड़कमलोत भटनेर री रिख्या करतां मुगले कामरान सूं लड़तां जुद्ध मांय काम आया अर कामरान भटनेर माथै कब्जो कर लिन्यो।पछै कामरान बीकानेर माथै चढायी कीनी बीकानेर रा राव जैतसी उण बखत किले री रिख्या आपरै आदमीयां नै सूंप'र देसनोक आयग्या पाछै सूं कामरान गढ़ माथै कब्जो कर लिन्यो।राव जैतसी माँ करणी जी नै सिंवर नै आपरा ऐक सो नव बीर जोधावां ने साथ लेय'र रातिव</span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">ाहो (रात मे हमला)करियौ जीण मांय साईंदास खेतसीयोत(रावत कांधल के प्रपोत्र)बणीर जी(बाघ जी कांधलोत के पुत्र) सांगा बीदावत,रतनसी, देवीदास,महेस मण्डलावत जेडा वीरों ने साथै लेय हमलों करियौ।कामरान रा आदमी मदवा हुवा सुता हुँता राठौड़ी जोधवां कामरान री फौज मांय रापट रोळ मचायदिनी घणा मुगलां नै काट बाढ़ दिन्या लोई री नदियों बैवण लागी कैवे के इण बखत माँ करणी जी घणो चमत्कार दिखायो राठौड़ां रे मांय भगवती आय विराजिया अर मुगलां रे लोई रा खप्पर भरिया लाशां रा ढेर लागिया कामरान राठौड़ां री इण तरु री रापट रोळ ने झाल नीं सकियो अर आपरी फौज लेय भाज निसरियो कैबत चालै के भागते कामरान रो छत्र अर चँवर छोटड़िया गांव मांय धरणी माथै पड़ग्यो जिणनै उठावण री बी हिम्मत उणरी नीं हुवी राठौड़ां री मारकाट सूं कामरान इतणो डरियो के उण समझ्यो के किणी पीर री दरगाह माथै पग पड़ियो अर पीर रिसाणा होयगो कामरान तो पाछो मुड़'र नीं देख्यो।राठौड़ां आपरो बीकानेर पाछो लेय लिन्यो।साईंदास कांधलोत इण जुद्ध मांय घणो सुरापण दिखायो जिणरी बड़ाई राव जैतसी रा छंद मांय बी करिजि है।<br /><br />"वाजिनि चडिय वाहण वियास।<br />दानवां दलेवा साईंदास।।(३२६)<br /><br />राव लूणकरण री बेटी बाला बाई आमेर रा राजा पिरथीराज सूं परणायेडा हा पिरथीराज राज रे मरिया पछै उणरा रा पाटवी रतनसी भादवा बदि9 विक्रम संवत 1593 मांय आमेर री गादी विराजिया रतनसी दारू घणी पिंवता हा जिणसूं राज री वैवस्ता घणी बिगड़ गी इण बात नै लेय'र सांगा कछावा जिका रतनसी रा द्विमात भाई हा रे साथै अणबण हुयगी जद सांगा जी आपरै मामा राव जैतसी कनै बीकानेर आयनै मदत री मांग कीनी जड़ जैतसी आपरै सिरदारां नै सांगा री मदत सारू भेजिया जिणमांय ऐ सांवठा सिरदार आप आप री जमीयत लेय'र गिया रावत किसनसी राजासर सूं, बणीर जी कांधलोत चाचावाद सूं, महेशदास मण्डलावत सारूण्ड़ा सूं, बीको रतनसी महाजन सूं, राव सांगा द्रोणपुर सूं भोजराज रूपावत, देवीदास घड़सीसर,पूगल रो वरसिघ भाटी जेडा सिरदारां रे साथै साईंदास जी बी साहवा सूं आपरी जमीयत लेय'र गिया<br />इण तरु सगळी फौज 15000 री हुय सांगा कछावा री मदत सारू व्हीर हुय'र पेल्यां अमरसर पुगी जठै रायमल सेखावत बी इणरे सामल हुयौ अर आपरै बेटा तेजसी जिका आमेर राज रा मंत्री हुँता नै बी केयो कै जीत तो सांगा री हुसी क्यूंकै इणरै साथै राठौड़ां री इतणी बड़ी फौज है जणा तेजसी बी आय'र सामल हुयौ जद सांगा पेल्यां मोजाबाद माथै चढायी करण रो विचारयो जणा तेजसी बोलियो कै मोजाबाद रा नरुका करमचन्द यूँ सोरो तो मार में आवै नीं उणनै दगा सूं मारस्यां पछै करमचन्द रा भाई जयमल नरुका ने बुलाय कैयो के थारै भाई ने लाय नै सांगा रे पांवां लगावो जणा माफ कराय देस्यां इण तरु धर्मकोल करिया पछै जयमल आपरै भाई करमचन्द नरुका नै लेय आयौ जिणनै तेजसी बातां मं लगाय लिन्यो अर पीछै सूं लालो सांखला दगा सूं तरवार रे वार सूं करमचन्द रा दो टूक कर दिन्या जद जयमल तेजसी नै कैयो "रे तेजसी तनै धिकार है म्हे थारै कैवण सूं म्हारै भाई ने ल्यायौ अर तूँ दगो करियौ" अर इणरै साथै ही तरवार रे वार सूं तेजसी नै मार न्हाख्यो जयमल सांगा कछावा ने बी मार लेंवतो पण उणी बखत राठौड़ां जयमल नरुका ने मार लिन्यो ।राठौड़ां री मदत सूं सांगा कछावा आमेर री घणी भौम दबाय आपरै नांव सूं नुवो नगर सांगानेर बसाय आपरौ न्यारो राज थरपियो पछै रतनसी महाजन रो तो बठै ही आपरा भाणजा सांगा कनै रिया अर दूजा राठौड़ आप आपरै ठौड़ गिया<br /><br />राव मालदेव रो बीकानेर माथै हमलो:-विक्रम संवत1598 मांय राव मालदेव जोधपुर आपरौ राज बढ़ावण री मनसा सूं बीकानेर माथै चढायी कीनी जद राव जैतसी आपरी फौज लेय सामां गिया अर गांव सोवा मांय डेरा लगाया राव जैतसी री मदत सारू रावत किसनसी कांधलोत, बणीर जी कांधलोत अर दूजा सगला सिरदार आप आपरी फौज लेय'र गिया साहवा सूं साईंदास जी बी आपरी फौज लेय गिया अर राव जैतसी रे सामल हुया पण रात री बखत राव जैतसी सिरदारां नै बिना बतायां किणी काम सूं बीकानेर आयग्या जणा पाछै सूं सिरदारां नै ठाव पड़ियो कै राव जैतसी तो बीकानेर अपुठा गिया जद सगळा सिरदार आपरी फौज लेय पाछा आपरै मुकाम बावड्या अठीनै राव जैतसी पाछा सोवै आया जद सगळा सिरदार गिया परां उणी बखत राव मालदेव हमलो करियौ जैतसी आपरा150 आदमीयां नै घणा सुरापण सूं लड़तां थकां कुंपा मेहराजोत रे हाथां सूं मारिया गिया पछै मालदेव बीकानेर परियां बी भोजराज रूपावत अर उणरा बाकी जोदावां नै मार कब्जो कर लिन्यो।उण बखत जैतसी रो कडूम्बो अर कल्याणमल सिरसा रैया रावत किसनजी कांधलोत जद सिरसा मातम पुरसी करण आया तो किणी मेणो मारयो जड़ रावत किसनसी पाछा राजासर आय आपरा कांधलोत भायां नै भेळा करिया जिण मांय बणीर जी अर साईंदास जी बी सामल रैया अर मालदेव रा थाणा परियां हमला करणा सरू करिया लूणकरणसर ,गारबदेेसर रा थाणा उजाड़ दिन्या अर भीनासर तांई कब्जो कर लिन्यो पछै कुंपा मेहराजोत नै केवायो के कै तो बीकानेर गढ़ खाली करदे नीं मुकाबलो करण री तैयारी कर जद कुंपा कहियौ के म्हारौ पाछोनीं करो तो महुँ गढ़ खाली करुं इण तरु बीकानेर परियां कांधलोतां अधिकार करनै रावत किसनसी राव कल्याणमल री दुहाई फेर दी बठिनै भींवराज बी दिलली सूं बादसाह री फौज लेय आविया जिणसूं मुकाबला मांय जेता अर कुंपा लड़तां थकां मारिया गिया अर मालदेव हार नै भाज निसरियो।इण तरां साईंदासजी जद बी बीकानेर नै जुरत पड़ी आपरी फौज लेय गिया अर मदत किणी।<br /><br />रावत कांधल जी रा बेटा अरडकमल जी ।अरडकमल जी रा बेटा खेतसी।<br />खेतसी रा बेटा हा साईंदास जी जिका साहवा रा धणी।जद राव जैतसी मालदेव सूं लड़तां थकां काम आया जद बण रा बेटा कल्याणमल जी सिरसा आय रैया अर सिरसा मांय खावण नै नाजदाणो पुगावण री जुमेवारी ही शेखसर रे गोदारां री जिका ओखा सोखा होयै घणो दोरो नाज दाणो ऊंठा री कतार माथै भिजवांता क्यूंकै शेखसर मांय बी थाणो मालदेव रो हूंतो।<br />ऐक बार साईंदास जी बीकानेर राव जी सूं मिलण खातर गिया जद रात हुयगी साईंदास जी पूग्या उण बखत रावजी ढोलिया माथै पौढ़ीया हा उणरौ एक पग तो सीधौ हो अर दूजे पग नै रावजी भेळो कर राख्यो साईंदास जी सोच्यो कै रावजी रे पग मांय दर्द दीख़ै जणा बोल्या हुकूम पग मांय दर्द है कांई ऐक पग भेळो क्यूं कर राख्यो है।पैलडा मिणख सूरवीर तो घणा हुँता पण मन रा भोळा हुँता अर कांधला नै तो लोगबाग बैयां ही भोळा बतावै ।<br />रावजी पण आपरौ डांव फेंक्यो बोल्या इण पग रे दड़बा रो भीलों अड़े है जिणसूं ओ पग सीधौ नीं हुवै ।<br />अर साईंदास रे तो बात लागगी अर लागै बी क्यू नीं पड़पोता तो उणी कांधल जी रा हा जिका ऐक बोल रे माथै इतणा कष्ट झाल लड़ायाँ लड़ भतीजे बीकाजी नै राज थरपियो हो ।साईंदास जी तो विदा मांग'र कैयो के अबै तो भीला नै मारिया ही मुंडो दिखाव सूं आ कैय व्हीर हुया ।<br />बठै सूं आय'र ऊंठां री कतार बणाय दड़बा रो गेलौ पकडियो अर जाय पूग्या दड़बा रे हल्का मांय ।<br />भीलो बैनीवाल तगड़ो सूरवीर दारू अमल रा दौर चलावै नै पात्रां रमावै अर तालाब रे मांय माटां (बड़ा घड़ा)री मचाण(नाव) बणाय पाणी रे बीच मांय रैवे दड़बा अर आसा पासा रा इलाका मांय घणो ख़ौफ़ अर दबदबो<br />आवण जावण हाला ओठयां सूं दाण लेवै नीं अर दाण लिया बिना पाणी बी ना पिवण दे।<br />साईंदास जी तो लेय आपरी कतार जायै पूगा तळाव रे माथै अर ऊंठा नै पाणी पावण लाग्या।साईंदास जी नै पाणी पावंता देख'र भीलो बैनीवाल हाको करियौ ''अरे कुण है तू बिना दाण दीयां पाणी कैंया पावै पेल्यां म्हारौ दाण दिराव"<br />साईंदास जी बोल्या "पेल्यां पाणी पीवै लूं पछै बात करस्यूं"<br />भीलो ओज्यूं बोल्यो नीं पेल्यां म्हारौ दाण चुका"<br />जद साईंदास जी कैयो "महूँ अजै तणी किणनै ही दाण नीं दियौ तूं दाण लेवण हालो कुण ह"<br />महूँ भीलो बैनीवाल अजै तणी किण नै ही दाण लीया बिना पाणी बी नीं पिवण दूं।<br /><br />इण तरु करतां राड व्हैगी तरवारां खड़कीजि अर साईंदास जी भीला ने मार नाख्यो<br />पाछै घोड़े असवार हुयै निसरिया पाछा सूं हाको पड़ियो सगळा बैनीवाल भेळा हुय भीला रो बदलो लेवण सारू साईंदास रे गेल्यां वाहर चढिया साईंदास जी आपरौ घोड़ो भजायां जावै उन्हाळे रा दिन लाय घणी बळती चालै चालतां चालतां तिरसा घणा हुयग्या होंठ एकदम सुकग्या पाछा मुंडो करनै देख्यो तो लारै रेत रा भुंतालिया उठता आवै साईंदास जी देख्यो वाहर तो आयै पुगी पण पाणी बिना तो जीव इयां ही निसरियो जावै चालतां चालतां ऐक ढाणी रे कनै आय पूग्या ढाणी रे फलसा आगै ऐक डीकरी ऊभी क्यु काम करण लागरी फलसा कनै ही पाणी रा घड़िया पड्या साईंदास जी कनै आय'र घोड़ा नै ढबाय डीकरी नै कैयो "ऐ बाई पाणी पाव ,,<br /><br />जणा डीकरी बोली "बीरा घोड़ा सूं उतरै नै पाणी पीवले"<br /><br />जद साईंदास जी बोल्या "बाई तूँ उतावली सी म्हानै घोड़ा माथै ही पाणी रो लौटो झलाय दे म्हारै गेल्यां वाहर आवण लागरी है"<br /><br />डीकरी बोली "भाई जणा ही तो महूँ थानै कैवूं घोड़ा सूं नीचा आवनै थावस स्यूं पाणी पीवो महूँ थानै क्यु नीं होवण दूं"<br /><br />डीकरी री घणी जिद पछे साईंदास जी घोड़ा परियां उतरणै पाणी पीवौ<br />पछे डीकरी साईंदास जी नै मांय लेजाय'र कोठडी मांय बिठाया अर घोड़ा नै बी बाड़ा मांय लेजायै लुकावियो इतणी दार में तो बेनिवालां री वाहर आयै पुगी अर डीकरी नै पूछियो कै बाई अठै सूं कोई घोड़ा रो निसरियो जद डीकरी बोली म्हें तो कोनी देख्यो<br />बेनिवालां देख्यो के डीकरी साव कुड़ी बोलै घोड़े रा खुरां रा निसाण सामां दीखे रोळो मचियो<br />बेनिवालां रा आदमी बोलिया बाई क्यूं कुड बोलै घोड़ा रा खुर बतावै कै घोड़ो अर असवार अठै ही है<br /><br />जद डीकरी बोली हाँ अठै ही है पण उणनै मारण स्यूं पेल्यां म्हानै मारणी पड़सी उण असवार म्हानै बाई कैयो अर म्हारै कैवण सूं घोड़ा सूं उतरणै पाणी पीवौ<br />इतणी दार में गांव रा बूढ़ा बडेरा बी रोळो सुण आयग्या अर पूछ्यौ कांई बात है जद डीकरी सगळी बात बताय कैयो के महुँ उणनै शरण दी है उणनै मारण सूं पेल्यां म्हानै मारणी पड़सी जद बेनिवालां डीकरी ने पूछ्यौ के बा कांई साख(गोत)री है जद बा बोली के महुँ बेनिवालां री बेटी हूँ<br />जद स्याणा आदमी बोल्या इणनै मारणो ठीक नीं आपणो आपस मांय बैर होज्यावसी जद वाहर हाला बोल्या ठीक है नीं मारां पण बण सुरे नै म्हानै दिखावण तो करावो जिकै ऐकला भीला ने मार नाख्यो जणा बण डीकरी कोठडी मांय सूं साईंदास जी ने लेय आयी पछे बूढ़ा बडेरा बोल्या के अबै आपस रो बैर भुलाय दयो जद बठै अमल गळियो पछे बेनिवाला अर साईंदास जी अमल री मनवारां किणी अर साईंदास जी कैयो के आज सूं म्हारौ अर बेनिवालां रो धरमेलो हुयौ अर आज रे पछे बेनिवालां री भाण बेटी म्हारी बी भाण बेटी हुयी आज रे पछ बेनिवालां री बेटी म्हारै सूं अर म्हारी औलाद सूं परदो नीं करैली चाहै बा म्हारै गांव मांय ब्याव नै ही क्यु नीं हो म्हारी औलाद बण नै आपरी भाण बेटी मानसी<br />इण तरु साईंदास जी धरमेलो करनै पाछा साहवा आविया अर नगर मांय इण प्रण रो ऐलाण करवायो साईंदास जी रो करियोडो प्रण साईंदासोत कांधला में अजै तणी चालै अर इणरा वंसज अजै तांई आपरै पुरखे रो करियोडो कौल निभावे है।अबै बी घणाई साईंदासोतां अर बेनिवालां मं धरमेलो है।<br /><br />साईंदास जी आपरै जीवण मांय घणी लड़ायां लड़ी पण सगळी लड़ाया री जानकारी नीं मिलै साईंदास जी री मौत बी लड़तां थकां हुवी जिकै री बात लोक मांय घणी चालै लोकमानता अर किवन्दत्यां सूं जिकौ ठाव लागै बो इण तरु बताईजै<br />लोक मानता है कै जद साईंदास जी नितकर्म करण जाणता जद आपरो भालो जमीन मं रोप'र बी रै माथै आपरी कटार अर जनेऊ टांग नै नितकर्म ने जांवता इणी तरु ऐक दिन साईंदास जी आपरौ भालो रोप'र जनेऊ अर कटार भाले माथै टांग'र हाथ मांय पाणी रो लौटो लेय'र निंवटण गिया जद निवट नै पाछा बावड्या उणी टेम दुस्मयां घात कर दीन्यो जिका बठै ई झाड़कां मांय लुकियोडा हा दुसमी घणा अर साईंदास जी ऐकला अर हाथ मांय खाली एक लौटो अस्त्र सस्त्र तो घणी दूर भाले माथै टंगेडा हा पण साईंदास जी दकाल नै दुस्मणा रो सामों करियौ अर हाथ मांय पीतल रे भारी लोटा स्यूं कैयी दुस्मणा ने मार न्हाख्या जनश्रुति रे मुजब साईंदास जी अठारह आदमीयां नै मार'र पछै आप बी सुरगां सिद्धारया ।साईंदास जी री मौत रो टेम अर जिगां(स्थान) शोध् रो विषय है।साईंदास जी री सगळी लड़ाइयां रो ब्योरो नीं मिले साईंदास जी रा वंसज साईंदासोत कांधल कहावै साईंदासोतां रो बीकानेर राज मांय घणो दखल रैयो जद जुरत पड़ी बीकानेर री मदत सारू त्यार रैया अर आपरी सुतंत्रता खातर बीकानेर सूं लड्यां बी घणा साईंदासोतां रो भादरा ठिकाणो इतो तकड़ो हो कै इणनै खालसा करण सारू जद बीकानेर फौज अर जैपर शेखावाटी फौज मिल'र भादरा नीं भेळ सकी जणा पटियाला रा सिखां री फौज री मदत लेय कैयी मिन्हाऊँ भादरा खालसा करीजी।साईंदास जी रे सात बेटा हा जिका इण तरु है।<br />(१)जयमल जी ठिकाणा साहवा<br />(२)कान्ह जी ठिकाणा गडाणा<br />(३)ठाकरसिंह बेऔलाद<br />(४)खिंवजी बेऔलाद<br />(५)खंगार सिंह जी ठिकाणा सिकरोडी<br />(६)जालाण जी बेऔलाद<br />(७)लक्षमण जी बेऔलाद<br />साईंदास जी रा तीन बेटा स्यूं साईंदासोत कांधल वंस चाल्यो।<br /><br />साभार :-अजयसिंह सिकरोड</span><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiAAz8A7uyOUSgH4tfgI0IX8dr6KVspPqlO8HmAzFyrnceG4WfCEPiMczOcXnkmmV178FPSzQEYsp02gHS7yFM9S2Zz60gSNGSNwql4VhwOuI3Vo_tKp0W7BCmMFO-shwcd_FknYBT16wfD/s1600/18839114_1155585147878714_7703072868802778611_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="640" data-original-width="480" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiAAz8A7uyOUSgH4tfgI0IX8dr6KVspPqlO8HmAzFyrnceG4WfCEPiMczOcXnkmmV178FPSzQEYsp02gHS7yFM9S2Zz60gSNGSNwql4VhwOuI3Vo_tKp0W7BCmMFO-shwcd_FknYBT16wfD/s200/18839114_1155585147878714_7703072868802778611_n.jpg" width="150" /></a></div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-20126202029571218682017-06-13T20:35:00.001-07:002017-06-13T20:35:50.130-07:00शेरगढ़ के सूरमा अमर शहीद प्रभूसिंह इनकी 5 पीढ़ी राष्ट्र सेवा में (परिचय)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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शहीद प्रभू सिह </div>
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जीवन परिचय:-प्रभु सिह का जन्म जोधपुर जिले में शेरगढ़ तहशील के खिरजा खास गांव में हुआ था उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव से ही प्राप्त की।फिर अपने परिवार से प्रेरित होकर उनके मन में भी देश सेवा करने की जिज्ञासा जग उठी,उन्होंने आर्मी ज्वाइन करने की ठान ली,और उनके मन मे आर्मी में भर्ती होने की बात घर कर गई थी इस हेतु उन्होंने पूर्ण तैयारी-अभ्यास करना प्रारम्भ कर चुके थे भारत-पाक की सिमा का जिक्र आते ही वो बड़े ध्यान से सुनते थे और फिर क्या था उन्होंने आर्मी ज्वाइन कर देश सेवा में लग गए। उनके मन में कुछ कर गुजरने की इच्छा थी </div>
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22 नवम्बर कुपवाड़ा के माछिल सेक्टर में अपनी ड्यूटी पर तैनात थे आप पेट्रोलिग के समय गाइड की भूमिका निभाते थे सीमा रेखा के नजदीक पेट्रोलिंग करते समय गहन झाड़ियों में छिपे आतकवादीयो ने सहसा गोलियों की बौछार कर दी। प्रथमतः आपके पैर में गोली लगने से नीचे गिर पड़े और अपनी जगह सुनिशिचत कर कमान सभाल ली। आमने सामने की अंधाधुन्ध फायरिग में हौसला रखते हुए दुश्मनो को करारा जवाब दिया ।भयकर गोलीबारी में एक बूस्ट सीने पर लगा फिर भी हौसला बनाये रखा ।अत्यधिक सख्या में घात लगाए बैठे दुश्मनों की गोलियों से राइफलमैन प्रभु सिंह वीरगति को प्राप्त हुए।</div>
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आइये जाने इस परिवार की सघर्ष की गाथा:-</div>
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पहली पीढ़ी:-अजीत सिंह ने महाराज मानसिंह के काल में दिया था पहला बलिदान अजीत सिंह भभूत सिह के पुत्र थे </div>
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दूसरी पीढ़ी:-खुम्भ सिंह के 3बेटों ने अपने दादा की तरह देश सेवा चुना।</div>
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तीसरी पीढ़ी :-पुंजराज सिह के 3बेटो ने अपने पिता दादा वह परदादा की परंपरा का निर्वहन किया ।</div>
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चौथी पीढ़ी :-65 के युद्ध में पाक को धूल चटाई </div>
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अचल सिह पुंजराज सिह के भतीजे थे वे रजवाड़े में सरदार इन्फेंट्री में जोधपुर में तैनात थे उनके 6बेटो में 4 ने देश सेवा की केप्टन हरी सिह जम्मु वह सियासिन सहित 65 के युद्ध में दुश्मनो से लोहा मनवा चुके है</div>
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पांचवी पीढ़ी:-शहीद प्रभु सिंह और केप्टन हरी सिंह के पुत्र 1आर्मी में और दूसरे एयरफोर्स में है उम्मेद सिह के पुत्र भेरू सिह फौजी रहा खीव् सिह के पुत्र अगर सिंह आर्मी में हे ।शिवदान सिह के पुत्र रिड़मल सिह तो प्रभु सिह के लगा और अभी पंजाब में तैनात है।</div>
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इस तरह शेरगढ़ वीरो की जन्म भूमि है।सबसे ज्यादा सैनिक शेरगढ़ तहसील होते है याह के जवान अपना राष्ट्रधर्म राष्ट्रसेवा को मानते है वो राष्ट्रसेवा में हसते हसते जान पर खेल जाते है शेरगढ़ का योगदान प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर करगिल युद्ध तक अविस्मरणीय रहा।द्वितीय विश्वयुध्द में शेरगढ के 79जवान शहीद हुए थे<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6CnTPGKtMHiTaAwmyPmkq5AXHAHR7Avsh1qkp-IEW8zkx9QAijansdpGG3Id4dplslfOvwLxtzwChZL1CWPX0QDnBvIlxT8RWegjCougxOojdZELbrAb5hsi2pI2Z6fuFCXrcZoSMFZhr/s1600/images+%25283%2529.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="313" data-original-width="470" height="133" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6CnTPGKtMHiTaAwmyPmkq5AXHAHR7Avsh1qkp-IEW8zkx9QAijansdpGG3Id4dplslfOvwLxtzwChZL1CWPX0QDnBvIlxT8RWegjCougxOojdZELbrAb5hsi2pI2Z6fuFCXrcZoSMFZhr/s200/images+%25283%2529.jpg" width="200" /></a></div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-31511940414885036332017-06-09T23:02:00.000-07:002017-10-01T02:08:00.669-07:00शीश कट्यो धङ लङी भाटी कुळ रो भाण। जय जुन्झारा आपरी अमर रहे जैसाण<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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"शीश कट्यो धङ लङी भाटी कुळ रो भाण। </div>
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जय जुन्झारा आपरी अमर रहे जैसाण<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSM4eY3UAFmoOVcWo5hfaqLOwRjNyICzGLARbY0ZQJppSrhHibOd885D5wsyI3dx4X2qQHbpOmovVyXcetg8NG8Iy8r2hT2CSY44DiBwttFQd2bR7T2nprnjwcoR9_FsALt9t4Guwi8vAV/s1600/IMG-20170610-WA0052.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="833" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSM4eY3UAFmoOVcWo5hfaqLOwRjNyICzGLARbY0ZQJppSrhHibOd885D5wsyI3dx4X2qQHbpOmovVyXcetg8NG8Iy8r2hT2CSY44DiBwttFQd2bR7T2nprnjwcoR9_FsALt9t4Guwi8vAV/s320/IMG-20170610-WA0052.jpg" width="246" /></a></div>
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"।। </div>
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बाबरा की बही जो ठिकाणे के समय से ही लिखी जाती थी जो फिलहाल बीकानेर ग्रन्थालय में सुरक्षित है से जानकारी के अनुसार बाबरा के फौजदार भाटी जीवराज सिंह ने विक्रम संवत 1801 में बाबरा ठाकूर अखेराज जी की अनुपस्थिति में मेवाशियों से गायोें को बचाने हेतु अपने प्राणों का बलिदान दिया और बाबरा के प्रथम झुन्झार हुऐ। </div>
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करीब 8 माह पूर्व खुदाई के दौरान उनकी 4 फुट बङी प्रतिमा लिलङी नदी के तट पर प्रकट हुई। </div>
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वर्तमान में बाबरा के भाटी परिवारों ने नये भव्य स्मारक का निर्माण करा दिनांक 5-06-2017 को विधिवत रूप से पूजा अर्चना करवाकर मूर्ति की स्थापना करवाई। </div>
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1833 में बाबरा ठाकूर दौलत सिंह जी के मेङता लङाई में जाने पर उनकी अनुपस्थिति में मराठों ने कर देने से मना कर दिया। तब तत्कालिन फौजदार भाटी जसरूप सिंह जी मराठों से युद्ध में शहीद हुऐ। </div>
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उनका स्मारक भी लीलङी नदी के तट पर पहले से स्थित है। </div>
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नोट:- बाबरा के भाटी जैसा गोयन्ददासोत नख के है</div>
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भाटियों को लवेरा से विक्रम संवत 1745 में बाबरा गांव के फौजदार का पद इनायत हुआ था बाबरा आने वाले प्रथम फौजदार भाटी शंकरदास (लवेरा के भानीदास के वशंज)थे।</div>
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-52454264184326290162017-06-08T06:21:00.000-07:002017-10-01T02:05:15.299-07:00जालोर के वीर शासक कान्हडदेव चौहान और जालोर का शाका <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जालौर के वीर शासक कान्हड़देव का नाम आते ही लेखकों की कलमें ठहर जाती
है तो पढ़ने वालों के कलेजे सिंहर उठते हैं। कारण यह नहीं कि उसने अपने से
कई गुना शक्तिशाली दुश्मन को मात दी और अंत में बलिदान दिया। यह तो
राजस्थान की उस समय की पहचान थी। कलम के ठहरने और कलेजों के कांपने का कारण
यह था कि कान्हड़देव जैसे साहसी एवं पराक्रमी शासक का अंत ऐसा क्यों हुआ ?
क्यों नहीं अन्य शासक उसके साथ हुए, क्यों नहीं सोचा कि कान्हड़देव की
पराजय के बाद अन्य शासकों का क्या होगा। शायद डॉ. के.एस. लाल ने अपने
इतिहास ग्रंथ 'खलजी वंश का इतिहास' में सही लिखा है कि'पराधीनता से घृणा
करने वाले राजपूतों के पास शौर्य था, किंतु एकता की भावना नहीं थी। कुछेक
ने प्रबल प्रतिरोध किया, किंतु उनमें से कोई भी अकेला दिल्ली के सुल्तान के
सम्मुख नगण्य था। यदि दो या तीन राजपूत राजा भी सुल्तान के विरुद्ध एक हो
जाते तो वे उसे पराजित करने में सफल होते।'<br /> डॉ. के.एस. लाल की उक्त
टिप्पणी बहुत ही सटीक है। कान्हड़देव की वंश परम्परा के सम्बन्ध में ही
उदयपुर के ख्यातिनाम लेखक एवं इतिहासवेता डॉ. शक्तिकुमार शर्मा 'शकुन्त' ने
लिखा है कि- 'चाहमान (चौहान) के वंशजों ने यायव्य कोण से आने वाले
विदेशियों के आक्रमणों का न केवल तीव्र प्रतिरोध किया अपितु 300 वर्षों तक
उनको जमने नहीं दिया। फिर चाहे वह मुहम्मद गजनी हो, गौरी हो अथवा अलाउद्दीन
खिलजी हो, चौहानों के प्रधान पुरुषों ने उन्हें चुनौती दी, उनके
अत्याचारों के रथ को रोके रखा तथा अन्त में आत्मबलिदान देकर भी देश और धर्म
की रक्षा अन्तिम क्षण तक करते रहे।<br /> बस, यही सब कुछ हुआ था इस चौहान वं
श के यशस्वी वीर प्रधान पुरुष जालौर के राजा कान्हड़देव के साथ भी।
पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद चौहानों की एक शाखा रणथंभौर चली गई तो
दूसरी शाखा नाडौल और नाडौल से एक शाखा जालौर में स्थापित हो गई। कीर्तिपाल
से प्रारम्भ हुई यह शाखा समरसिंह, उदयसिंह, चा चकदेव, सामन्तसिंह से होती
हुई कान्हड़देव तक पहुँची। किशोरावस्था से अपने पिता का हाथ बांटने के
निमित्त कान्हड़देव शासन र्यों में रुचि लेना शुरूकर दिया था। संवत 1355
में दिली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात जाने के लिए मारवाड़ का
रास्ता चुना। कान्हड़देव को इस समय तक अलाउद्दीन के मनसूबे का पता लग चुका
था। वह अपने इस अभिमान के तहत सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ना चाहता था। उसने
कान्हड़देव को खिलअत से सुशोभित करने का लालच भी दिया मगर वह किसी भी तरह
तैयार नहीं हुआ और सुल्तान के पत्र के जवाब में पत्र लिखकर साफ-साफ लिख
भेजा-'तुम्हारी सेना अपने प्रयाण के रास्ते में आग लगा देती है, उसके साथ
विष देने वाले व्यक्ति होते हैं, वह महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करती है,
ब्राह्मणों का दमन करती है और गायों का वध करती है, यह सब कुछ हमारे धर्म
के अनुकूल नहीं है, अत: हम तुम्हें यह मार्ग नहीं दे सकते हैं।”<br />
कान्हड़देव के इस उत्तर से अलाउद्दीन खिलजी का क्रोधित होना स्वाभाविक था।
उसने समूचे मारवाड़ से निपटने का मन बना लिया। गुजरात अभियान तो उसने और
रास्ते से पूरा कर लिया लेकिन वह कान्हड़देव से निपटने की तैयारी में जुट
गया और अपने सेनापति उलुग खां को गुजरात से वापसी पर जालौर पर आक्रमण का
आदेश दिया।उलुगखां अपने सुल्तान के आदेशानुसार मारवाड़ की और बढ़ा ओर
सर्वप्रथम सकराणा दुर्ग पर आक्रमण किया। सकाराणा उस समय कान्हड़देव के
प्रधान जेता के जिम्मे था। द्वार बन्द था। मुस्लिम सेनाओं ने दुर्ग के बाहर
जमकर लूटपाट मचाई, लेकिन यह अधिक देर नहीं चली और जेता ने दुर्ग से बाहर
निकलकर ऐसा हमला बोला जो उलुगखां की कल्पना से बाहर था, उसके पैर उखड़ गये
और भाग खड़ा हुआ। जेता मुस्लिम सेना से सोमनाथ के मन्दिर से लाई पांच
मूर्तियां प्राप्त करने में सफल रहा। इतिहास में अब तक इस युद्ध पर अधिक
प्रकाश नहीं डाला गया है लेकिन गुजरात लूटनेवाली सुल्तान की सेना को पराजित
करना आसान काम नहीं हो सकता था, अत: निश्चित ही जालौर विजय से पूर्व यह
युद्ध कम नहीं रहा होगा। स्मरण रहे कि इस युद्ध में सुल्तान का भतीजा मलिक
एजुद्दीन और नुसरत खां के भाई के मरने का भी उल्लेख है।<br /> इस पराजय के
बाद 1308 ई. में. अलाउद्दीन ने कान्हड़देव को अपने विश्वस्त सेनानायक व
कुशल राजनीतिज्ञ के द्वारा दरबार में बुलाया, बातों में आ गया और वह चला भी
गया। जब पूरा दरबार लगा था, अलाउद्दीन ने अपने आपको दूसरा सिकन्दर घोषित
करते हुए कहा कि भारत में कोई भी हिन्दू या राजपूत राजा नहीं है जो उसके
सामने किंचित् भी टिक सके। कान्हड़देव को यह बात खटक गई, उसका स्वाभिमान जग
उठा, उसने तलवार निकाल ली और बोल पड़ा-"आप ऐसा न कहें, मैं हूँ, यदि आपको
जीत नहीं सका तो युद्ध करके मर तो सकता हूँ, राजपूत अपनी इस मृत्यु को
मंगल-मृत्यु मानता है।'<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtFMRZNX880DNOdbHojvtblf3aSG_ItidVUw1EL_QcYuBM-CMT8ljFPqtT-hnmDNmERj_ySmdoLsZKTCpjasONzto1UBaxkl8thKr65O7-x3W7AEliZLmPWuRA6tO55IdKp7xS6h6C1q8n/s1600/jalor_gad_mai_jahar11387_medium.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="269" data-original-width="180" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtFMRZNX880DNOdbHojvtblf3aSG_ItidVUw1EL_QcYuBM-CMT8ljFPqtT-hnmDNmERj_ySmdoLsZKTCpjasONzto1UBaxkl8thKr65O7-x3W7AEliZLmPWuRA6tO55IdKp7xS6h6C1q8n/s200/jalor_gad_mai_jahar11387_medium.jpg" width="132" /></a> यह कह कान्हड़देव अलाउद्दीन खिलजी का दरबार
छोड़कर वहाँ से चल पड़ा और जालौर आ गया। सुल्तान ने कान्हड़देव के इस
व्यवहार को बहुत ही बुरा माना और 1311 ई. में तुरन्त दंड देने के लिए जालौर
की ओर अपनी सेना भेजी। डॉ. के.एस. लाल का कहना है कि राजपूतों ने शाही
पक्षों को अनेक मुठभेड़ों में पराजित किया और उन्हें अनेकबार पीछे धकेल
दिया। उन्होंने यह भी माना कि जालौर का युद्ध भयानक था और संभवत:
दीर्घकालीन भी। गुजराती महाकाव्य 'कान्हड़दे प्रबन्ध' के अनुसार संघर्ष कुछ
वर्षों तक चला और शाही सेनाओं को अनेक बार मुँह की खानी पड़ी। इन अपमान
जनक पराजयों के समाचारों ने सुल्तान को उतेजित कर दिया और उसने अनुभवी मलिक
कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। सुल्तान की सेना
का जालौर से पूर्व ही सिवाणा के सामंत सीतलदेव ने सामना किया। दोनों के
बीच ऐसा युद्ध हुआ जिसकी कलपना संभवत: सुल्तानी सेना नायकों के मस्तिष्क
में थी भी नहीं। यही कारण था कि एक बार पुन: पराजय झेलनी पड़ी और वहाँ से
दूर तक भागना पड़ा। सुल्तान को ज्यों ही पुन: पराजय का समाचार मिला, कहते
हैं कि वह स्वयं इस बार पूरी शक्ति के साथ जालौर पर चढ़ आया।<br /> अब तक
सुल्तान को यह आभास अच्छी तरह हो गया था कि युद्ध में रणबांकुरे राजपूतों
को पराजित करना कठिन ही नहीं असम्भव है। परिणाम स्वरूप अब सुल्तान की ओर से
कूटनीतिक दांव-पेच शुरू हो गये और दुर्ग के ही एक प्रमुख भापला नामक
व्यक्ति को प्रचूर धन का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। भापला ने दुर्ग के
द्वार खोल दिये और मुस्लिम सेना ने दुर्ग में प्रवेश कर लिया। दुर्ग में
तैयारियां पूर्ण थी। ज्यों ही सुल्तान की सेना का प्रवेश हुआ, अन्दर
राजपूतों महिलाएं जौहर करने के लिए आगे बढ़ी तो पुरुष भूखे शेरों की तहर
टूट पड़े। घमासान छिड़ गया। संख्या में राजपूत कम अवश्य थे लेकिन युद्ध को
देखकर ऐसा लग रहा था मानो हजारों की सेना आपस में भिड़ रही हों। यहाँ यदि
यह कहा जाए तो अतिश्योति नहीं होगी कि मुट्ठीभर राजपूतों ने पुन: यह बता
दिया कि वे मर सकते हैं लेकिन हारते नहीं। देखते ही देखते जालौर के दुर्ग
में मरघट की शान्ति पसर गई। 18 वर्ष का संघर्ष समाप्त हो गया। कान्हड़देव
का क्या हुआ, इतिहास के स्रोत मौन है लेकिन जालौर का पतन हो गया और साथ ही
उस शौर्य गाथा को भी विराम मिल गया जिसका प्रारम्भ चौहान वंशीय वीर-पुत्र
कान्हड़देव ने किया था।<br /> अलाउद्दीन को जालौर-विजय की खुशी अवश्य थी,
लेकिन उसने यह समझने में किंचित् भी भूल नहीं की कि राजपूताने को जीतना
कठिन है। यही कारण है कि इस विजय के उपरांत उसने यहाँ के राजपूत शासकों के
संग मिलकर चलने में ही अपनी भलाई समझी और फिर कोई बड़ा अभियान नहीं चलाया।
स्वयं डॉ. के.एस. लाल ने अपनी पुस्तक 'खलजी वंश का इतिहास' के पृष्ठ 114 पर
लिखा है.राजपूताना पर पूर्ण आधिपत्य असंभव था और वहाँ अलाउद्दीन की सफलता
संदिग्ध थी।" अपनी इस बात को स्पष्ट करते हुए डॉ. लाल लिखते हैं
कि-'राजपूताना में सुल्तान की विजय स्वल्पकालीन रही, देशप्रेम और सम्मान के
लिए मर मिटनेवाले राजपूतों ने कभी भी अलाउद्दीन के प्रांतपतियों के सम्मुख
समर्पण नहीं किया। यदि उनकी पूर्ण पराजय हो जाती तो वे अच्छी तरह जानते थे
कि किसी प्रकार अपमानकारी आक्रमण से स्वयं को और अपने परिवार को मुक्त
करना चाहिए, जैसे ही आक्रमण का ज्वार उतर जाता वे अपने प्रदेशों पर पुन:
अपना अधिकार जमा लेते। परिणाम यह रहा कि राजपूताना पर अलाउद्दीन का अधिकार
सदैव संदिग्ध ही रहा। रणथम्भौर, चित्तौड़ उसके जीवनकाल में ही अधिपत्य से
बाहर हो गये। जालौर भी विजय के शीघ्र बाद ही स्वतन्त्र हो गया। कारण स्पष्ट
था, यहाँ के जन्मजात योद्धाओं की इस वीर भूमि की एक न एक रियासत दिल्ली
सल्तनत की शक्ति का विरोध हमेशा करती रही, चाहे बाद में विश्व का
सर्वशक्तिमान सम्राट अकबर ही क्यों न हो, प्रताप ने उसे भी ललकारा था और
अनवरत संघर्ष किया था।<br />
साभार-तेजसिंह तरुण <br />
<br /></div>
यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-340760193740617782017-06-08T05:30:00.003-07:002017-10-01T02:05:14.428-07:00पीरो के पीर बाबा रामदेव पीर रुनिचा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
!!घणी घणी खम्मा राजा रामदेवजी ने !!<br /> || कौन थे राजा अजमल जी ||<br /> !! क्यों कहते हैं बाबा !!<br /> !! कौन थी डाली बाई !!<span class="_5mfr _47e3"><span class="_7oe"></span></span><span class="_5mfr _47e3"></span><span class="_5mfr _47e3"><span class="_7oe"></span></span><span class="_5mfr _47e3"></span><span class="_5mfr _47e3"><span class="_7oe"></span></span><span class="_5mfr _47e3"></span><span class="_5mfr _47e3"><span class="_7oe"></span></span><span class="_5mfr _47e3"></span><br /> ||श्री बाबा रामदेवजी की कथा<br />
भगवान श्री रामदेव का अवतार संवत् १४६१ भांदों सुदी दोज शनिवार को पोखरण
के तोमरवंशी राजा अजमल के यहां हुआ था। वह भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त
और धर्मपरायण राजा थे, लेकिन नि:संतान होने के कारण दुखी रहते थे। नि:संतान
होने के कारण उन्होंने द्वारकाधीश यात्रा के दौरान समुद्र में देह त्यागने
का संकल्प किया और कूद गए। लेकिन जब आंख खुली तो वह द्वारकाधीश श्रीकृष्ण
के सामने थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर बरदान मांगने
को कहा तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण जैसा पुत्र मांगा।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCDikzLnefWypHOAl2q3alwql0uMTPC8i13P9nPnbdkMjtRUMvT4CvFViSqz08nPS9__rc9vo0Iv6LYnWjn7dg29E71TYApynIbg_mlajGH07Pblhzv9SJnN-iXecaIkYkNvXPCm8ocYnK/s1600/panch.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="282" data-original-width="368" height="153" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCDikzLnefWypHOAl2q3alwql0uMTPC8i13P9nPnbdkMjtRUMvT4CvFViSqz08nPS9__rc9vo0Iv6LYnWjn7dg29E71TYApynIbg_mlajGH07Pblhzv9SJnN-iXecaIkYkNvXPCm8ocYnK/s200/panch.JPG" width="200" /></a></div>
<span class="_5mfr _47e3"></span><br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgS8RrC2NDzV-qthsi05HqsIWlF8BJvlWRtz2-WwZzz1m3Z8yygS0bRH03P_9GW-rXulYxlX6AEAkXqSQlemUUYfpBaqOKTRSC7CZnVAAXMnsKECucObuFcosaDudS7DC6S1bANfNw-ZKz3/s1600/%25E0%25A4%25AB.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="259" data-original-width="194" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgS8RrC2NDzV-qthsi05HqsIWlF8BJvlWRtz2-WwZzz1m3Z8yygS0bRH03P_9GW-rXulYxlX6AEAkXqSQlemUUYfpBaqOKTRSC7CZnVAAXMnsKECucObuFcosaDudS7DC6S1bANfNw-ZKz3/s200/%25E0%25A4%25AB.jpg" width="149" /></a> श्रीकृष्ण ने
स्वंय बलरामजी के साथ उनके घर अवतरित होने का वरदान दिया। इसी वरदान के
कारण पहले बलरामजी ने वीरमदेव के रूप में राजा अजमल की पत्नि मैढ़ादे के
गर्भ से जन्म लिया, इसके नौ माह बाद भगवानश्रीकृष्ण श्रीरामदेव के रूप से
पालने में अवतरित हुए। भगवान ने बालकाल से ही अपनी बाल लीलाएं दिखाना
प्रारंभ की। पालने में प्रकट होने के बाद माता मैनादे को चमत्कार दिखाया,
उनके आंचल से दूध की धार भगवान रामदेव के मुख में गिरने लगी और चूल्हे पर
रखे बर्तन से उफन-उफन कर दूध बाहर गिर रहा था, उसे पालने से ही भुजा पसार
कर उतार दिया। मां मैनादे को चतुरभुज रूप में दर्शन दिया। पांच वर्ष की
उम्र में दर्जी रूपा द्वारा बनाए कपड़े के घोड़े को आकाश में उड़ाया वह
तुरंत ही सजीव नीला घोड़ा हो गया। भैरव राक्षस को इसका पता चला तो उसने
छोटे भाई आदू को रामदेव और वीरमदेव को पकडऩे भेजा, तब भगवान श्रीरामदेव ने
घोड़े पर सवार होकर आदू नामक राक्षस को भाले से मारा।आदू के मरने के बाद
उसने राज्य की जनता पर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया। श्री रामदेव ने भैरव
राक्षस का वध कर राज्य की प्रजा को अत्याचारों से मुक्त कराया। व्यापारी
लाखा बंजारा बैल गाडिय़ों में मिश्री भरकर पोखरण की ओर जा रहा था, तभी
रास्ते में उसकी भेंट घोड़े पर आ रहे भगवान रामदेव से हुई, उन्होंने पूछा
गाडिय़ों में क्या है तब लाखा ने कहा बाबजी नमक भरा है तो रामदेव जी ने कहा
जैसी तेरी भावना। यह कहते ही गाडिय़ों की सारी मिश्री नमक बन गई। तब लाखा
बंजारे को अपने झूठ पर पश्चाताप हुआ, उसने श्री रामदेव से माफी मांगी तब
उन्होंने नमक को मिश्री बना दिया। बोहिता राजसेठ की नाव को समुद्र के तूफान
से निकालकर किनारे लगाया। स्वारकीया भगवान रामदेव का सखा था उसकी मृत्यु
शर्प के डंसने से हो गई तब श्री रामदेव जी ने उसका नाम पुकारा वह तुरंत ही
उठकर बैठ गया। दला सेठ नि:संतान था, साधू संतों की सेवा उसका नित्य काम था
भगवान श्री रामदेव की कृपा से उसे पुत्र प्राप्त हुआ उसने रूढि़चा स पत्नि
बच्चे के साथ पैदल यात्रा की रास्ते में उसे लुटेरों ने मार दिया सिर धड़
से अलग कर दिया, भगवान श्रीरामदेव की कृपा से पुन: उसका सिर धड़ से जुड़
गया। भगवान रामदेव कलयुग के अवतारी हैं शेष शैय्या पर विराजमान महाशक्ति
विष्णु का अवतार भगवान कृष्ण व भगवान राम का था। उसी शक्ति ने कलयुग में
अवतार भगवान रामदेव के रुप में लिया था। उन्होंने अंधों को आंखें दी,
कोढिय़ों का कोढ़ ठीक किया, लंगड़ों को चलाया। बाद में उन्होंने पोखरण
राज्य अपनी बहिन लच्छाबाई को दहेज में दे दिया और रूढि़चा के राजा बने।
यहीं पर संवत् १५१५ भादों सुदी ग्याहरस को ५३ वर्ष की आयु में जीवित समाधि
ली। भगवान रामदेव की कृपा से आज भी उनके दरबार में अर्जी लगाने पर पीडि़त
लोग ठीक हो रहे हैं।<br />
!! कौन थे राजा अजमल !!<br /> .<br /> राजस्थान में
पोखरण के राजा श्री अजमल द्वापर में अर्जुन थे। उनका पूरा समय परिवार
विवाद ,राजपाठ की लड़ाई में चला गया, भगवान कृष्ण का सानिध्य होते हुए भी
वह उनकी सेवा नहीं कर सके। भगवान श्री कृष्ण जब मृत्यु लोक से वापिस अपने
धाम जाने लगे तब अर्जुन ने कहा था कि हे भगवान आपका छत्रछाया पाकर भी में
इस जन्म में आपकी सेवा नहीं कर पाया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा
उसे कलयुग में सेवा करने का अवसर देंगे। कलयुग में वही अर्जुन पोखरण के
तोमरवंशी राजा हुए और भगवान श्री कृष्ण की अनन्य भक्ति की, श्री कृष्ण के
दर्शन पाए। उन जैसा पुत्र मांगा इसी कारण भगवान श्री कृष्ण उनके घर
श्रीरामदेव जी के रूप में पुत्र बनकर अवतरित हुए। सिर्फ तीन प्रतिशत ठीक
नहीं होंगे भगवान रामदेव का कहना है कि उनके दरबार में आने वाले ९७ प्रतिशत
पीडि़त ठीक होंगे, लेकिन तीन प्रतिशत वे लोग ठीक नहीं होंगे जो भगवान पर
विश्वास नहीं रखते।<br />
!! क्यों कहते हैं बाबा !!<br /> .<br /> भगवान
रामदेव की परीक्षा लेने मक्का के पीर आए थे, जब उन्होंने परीक्षा के बाद
वापिस जाने के लिए आज्ञा मांगी तो श्रीरामदेव जी ने कहा कि अब तुम वापिस
नहीं जाओगे, मेरे साथ ही रहोगे। क्योंकि पीरों को बाबा कहा जाता है।
श्रीरामदेव तो पीरों के भी पीर हैं, इसलिए उन्हें भी लोग बाबा कहकर पुकारते
हैं।रामा धणी के नाम से पुकारते हैं।<br />
!! कौन थीं डॉली बाई !!<br /> .<br />
द्वापर में भगवान श्री कृष्ण की भक्त कुबजा थीं भगवान ने उनकी भक्ति के
कारण उनकी कूबड़ ठीक कर स्वास्थ्य शरीर किया था। वही कुबजा द्वारकाधीश के
श्री रामदेव अवतार में डालीबाई बनीं और भगवान श्रीरामदेव की भक्ति की। उनको
भगवान ने भक्त महासति डालीबाई का पद दिया।<br />
|| समाधि ||<br /> .<br />
बाबा रामदेवजी महाराज ने १५२५ को भादवा सुदी ११ के दिन रुणिचा गांव के राम
सरोवर पर सब रुणिचा वासियों को समझाया तत्पश्चात आपने समाधी ली|रामदेव जी
ने समाधी में खड़े होकर सब के प्रति अपने अन्तिम उपदेश देते हुए कहा प्रति
माह की शुक्ल पक्ष की दूज को पूज पाठ, भजन कीर्तन करके पर्वोत्सव मनाना,
रात्रि जागरण करना। प्रतिवर्ष मेरे जन्मोत्सव के उपलक्ष में तथा
अन्तर्ध्यान समाधि होने की स्मृति में मेरे समाधि स्तर पर मेला लगेगा। मेरे
समाधी पूजन में भ्रान्ति व भेद भाव मत रखना। मैं सदैव अपने भक्तों के साथ
रहुँगा। इस प्रकार श्री रामदेव जी महाराज ने समाधी ली।प्रभु ने समाधी ली और
प्रजा में शोक संचार हो गया, उनमे बेचैनी बढ़ गयी| दुखित होकर सभी पुकारने
लगे और जब प्रजा से रहा नहीं गया तो उनहोंने समाधी को खोदा| समाधी खोदते ही
उस जगह पर फूल मिले और सभी प्रजा ने नमन कीया और उस जगह पर बाबा कि समाधी
बनाई |<br />
॥ घणी घणी खम्मा राजा रामदेवजी ने </div>
यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-60782777573912583362017-06-08T05:20:00.000-07:002017-06-08T05:20:29.435-07:00स्वाभिमानि वीर दुर्गादास राठोड़ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="_5pbx userContent" data-ft="{"tn":"K"}" id="js_2f">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg60tCf7CpxCslOoqW1urGsoNcBl5s2Pm81sHmDC04OquPo8fvVrvBM0-LkdbrwY3vICLfAyV59rRQWa_xOixHOrmMeoeBOKej4LWiL8xNNMDeP1UdP7R42dmj7Zi-tnSjnD52KzaR-3iXu/s1600/durgadas.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="345" data-original-width="250" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg60tCf7CpxCslOoqW1urGsoNcBl5s2Pm81sHmDC04OquPo8fvVrvBM0-LkdbrwY3vICLfAyV59rRQWa_xOixHOrmMeoeBOKej4LWiL8xNNMDeP1UdP7R42dmj7Zi-tnSjnD52KzaR-3iXu/s200/durgadas.jpg" width="144" /></a></div>
महाराजा जसवंतसिंह जी की शहादत के बाद मारवाड राजघराने के एक मात्र जीवित
चिराग राजकुंवर अजितसिंह को जब औरंगजेब ने अपने किले मे बन्दी बनाकर मारने
की योजना बनाई. जिसकी भनक लगते ही वायु से भी तेज वेग और बिजली से भी अधिक
फुर्ती से राष्ट्रवीर दुरगादास राठौड मुगलिया किले मे प्रवेश कर राजकुंवर
अजितसिंह को अपनी पीठ पर बांधकर किले से बाहर लेकर आये. मेवाड, सिरोही और
मारवाड रिसायत के अलग अलग ठिकानो पर शिशु अजितसिंह को औरंगजेब की कुदृष्टी
से छुपाकर युगपुरुष वीरवर दुर्गादास राठौड ने उनका लालन पालन कर बडा किया.
कभी गोगुन्दा की पहाडियो के बीच तो कभी सिरोही की चुली, राडबर की पहाडियो
मे तो कभी गोईली गांव मे अजित को छुपाकर रखा. कभी जालोर जिले के जंगलो मे
तो कभी बाडमेर के छप्पन की पहाडियो मे ओट लेकर लगभग 20 वर्षो तक अजितसिंह
को दुनिया की नज़र नही लगने दी. <br /> महाराजा जसवंतसिंह जी को दिये वचन और
महाराजा के भरोसे (आज मै इस पर छाया कर रहा हु एक दिन ये मारवाड पर छाया
करेगा) पर खरा उतरते हुये वीरवर दुर्गादास राठौड ने प्रतिज्ञा ली थी कि जब
तक अजितसिंह को मारवाड का शासक घोषित नही करवा दुं तब तक ना खुद चैन से
बैठुंगा और ना ही औरंगजेब को चैन की निन्द सोने दुंगा. साथ ही ये भी शपथ ली
कि औरंगजेब की मुस्लिम राष्ट्र की निति को मारवाड मे कभी कामयाब नही होने
दुंगा. जिसके चलते ही मारवाड मे हिन्दु धर्म को किसी प्रकार की कोई आंच तक
नही आयी. औरंगजेब मारवाड का एक भी धार्मिक मन्दिर नही तोड सका, एक भी
हिन्दु व्यक्ति को मुस्लिम नही बना सका. औरंगजेब के मिशन इस्लाम को सफल
बनाने मे लगे उसके सिपाहियो और गोळो (गांगाणी का पट्टा प्राप्त करने वाले)
को मारवाड के प्रतिपालक दुर्गादास राठौड ने कभी कामयाम नही होने दिया. वीर
शिरोमणी दुर्गादास राठौड ने मारवाड की जिर्णशिर्ण राजपुत शक्ति को पुनः एक
बार महाशक्ति मे तब्दिल किया. छोटे छोटे कुनबो मे बिखर चुके राजपुतो को
पुनः पंचरंगा ध्वज के निचे एकजुट करके औरंगजेब को इतने घाव दिये कि औरंगजेब
का पुरा शरीर छलनी हो गया. औरंगजेब हर मोर्चे और हर चाल मे विफल होता गया.
यहाँ तक कि उसका स्वयं का पुत्र उसके विरोध मे खडा हो गया. <br /> जिस पर कवि ने लिखा <br />
ढबक ढबक ढोल बाजे दे दे ठोर नगारा की! <br /> आसा घर दुर्गो ना होतो सुन्नत होती सारो की!! <br />
अर्थात आज जिन घरो और मन्दिरो मे ढोल और नगारे बज रहे है यानी कि
हिन्दुत्व कायम है वो सिर्फ और सिर्फ दुर्गादास की वजह से कायम है. अगर
आसकरण जी के घर दुर्गादास ने जन्म नही लिया होता तो आज मारवाड मे चारो ओर
सुन्नत (मुस्लिम ही मुस्लिम) नज़र आती.<br />
देश सपूत वीरवर दुर्गादास
राठौड मात्र मारवाड या राजपुताने तक ही सिमित नही रहे. उन्होने पुरे
हिन्दुस्तान के साथ साथ एशिया और युरोप मे भी अपनी धाक जमाई. काबूल के
पठानो से लेकर अरब के शेखो तक को अपनी तरफ मिलाकर विदेशी आक्रमण से औरंगजेब
को भयभित किया तो मराठा, सिख और गुरखो से अलग अलग विद्रोह करवा कर औरंगजेब
को हमेशा मारवाड से कोसो दुर रखा. क्षात्र धर्म के नेमी वीरवर दुर्गादास
की कूटनिति का ही परिणाम था कि इन 20 से 25 वर्षो तक औरंगजेब कभी शांति से
मारवाड के बारे मे सोच ही नही सका. उपर से वीर दुर्गादास राठौड ने औरंगजेब
की नाक के नीचे से उसके छोटे छोटे पोता पोती को अगवा करके छप्पन की पहाडियो
मे लाकर छुपा दिया. जो औरंगजेब के लिये छुल्लु भर पानी मे डुब मरने जैसी
बात हो गयी. दुर्गादास ने औरंगजेब के पोता पोती को कई सालो तक अपनी कैद मे
रखा. और इस दरम्यान उनको उर्दु तालिम देने के लिये दुर्गादास ने बकायदा एक
मौलवी को तैनात किया. बाडमेर के गढ सिवाणा के पास छप्पन की पहाडियो मे एक
छोटा सा किलानुमा पोल बनायी. उसके पास ही उनको रखा गया था. जहाँ स्वयं वीर
दुर्गादास राठौड प्रतिदिन उनकी देखभाल के लिये आते थे. लेकिन इतने सालो मे
एक बार भी इस वीर ने औरंगजेब के पोता पोती को अपना चेहरा नही दिखाया, पर्दे
की ओट मे ही उनसे बातचित की जाती थी. जिसके कारण दोनो बच्चे दुर्गादास जी
को केवल आवाज़ से ही पहचानते थे शक्ल से नही. जब वीरवर दुर्गादास राठौड और
औरंगजेब के बीच समझौता हुआ, उसने मारवाड के शासक के रूप मे अजितसिंह को
स्वीकार किया तब उसके पोता पोती को ससम्मान वापस पहुंचाया गया. बच्चो से
मिलकर जब औरंगजेब ने पुछा कि बच्चो आप कहाँ थे? और आपको वहाँ किसने रखा था?
तो बच्चो ने कहा जगह का तो पता नही पर हम वहाँ दुर्गा बाबा के पास थे. तब
औरंगजेब ने कहा आपका दुर्गाबाबा कौन है हमे भी बताओ तब बच्चो ने कहा हम
उनको शक्ल से तो नही जानते पर अगर वो बोलेंगे तो हम बता देंगे, हम उन्हे
सिर्फ आवाज़ ही पहचानते है. उनको कभी देखा नही. कहते है वीर दुर्गादास राठौड
ने औरंगजेब के सामने जब उन बच्चो को पुकारा तो दोनो बच्चो ने बाबा को
बाहों मे भर लिया और लिपट गये. कहते है जब औरंगजेब ने ये दृश्य देखा तो
उसके मन से कट्टरता की भावना ही खत्म हो गयी. <br /> ताम्रपत्र को रखा घुटने
पर, औरंगजेब को किया जलिल महाराजा जसवंतसिंह की शहादत के बाद मारवाड को
अपने एकाधिकार मे लेने की सोच के साथ ही औरंगजेब ने एलान करवा दिया था कि
कोई भी व्यक्ति जसवंतसिंह या उसके परिजनो का नाम लेगा उसकी जुबान काट दी
जायेगी. लोग अजितसिंह और जसवंतसिंह का नाम तक अपनी जुबान पर नही लाते थे.
जब वीरवर दुर्गादास राठौड और औरंगजेब के बीच समझौता हुआ. उसके पोता पोती के
बदले मारवाड का राज्य देने की बान बन गयी तब दुर्गादास राठौड को मारवाड
राज्य का ताम्रपत्र जारी किया गया. उस काल की परम्पराओ के अनुसार बादशाह
द्वारा बक्शिस किया गया ताम्रपत्र अपने हाथो मे लेकर सिर पर रखने का रिवाज़
था. एक कहावत कही जाती है कि “राज का आदेश सिरोधार्य”! लेकिन वीर दुर्गादास
ने वो ताम्रपत्र सिर पर नही रखकर अपने दाहिने पैर के घुटने पर रखा. जिसे
देखते ही औरंगजेब तुरंत समझ गया कि स्व. महाराजा जसवंतसिंह का पुत्र
राजकुंवर अजितसिंह अभी तक जिन्दा है. और औरंगजेब के मुंह से अनायास ही निकल
गया “क्या जसवंतसिंह की औलाद जिन्दा है?” तब महान रणनितिकार वीरवर
दुर्गादास राठौड ने कहा “मै नही आप कह रहे है” यानी कि अब जुबान कटवाने की
बारी आपकी है. कहा जाता है कि उस समय औरंगजेब भरी सभा मे बहुत लज्जित हुआ
और फिर इस लज्जा से बचने के लिये आटे से औरंगजेब का एक पुतला बनाकर उसकी
जीभ काटकर औपचारिकता पुरी की गयी.<br />
बाकी अगले अंक मे.... <br />
“शत शत नमन वीरवर दुर्गादास राठौड<br />
”विक्रमसिंह करणोत (पाण्डगरा)<br />
साभार -<br />
<br />
नोट कोपी पेस्ट न करे अन्य ब्लॉग में <br />
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-70365390446454424212017-05-23T08:24:00.002-07:002017-10-01T02:05:37.503-07:00रजपुतानी(प्राण जाये पर वचन न जाये)मार्मिक शौर्यगाथा 1 सोढा राजपूत और रजपुतानी की <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
रेत रा टीबा बळरिया । ऊनी ऊनी लू असी चाल री जो काना रा केसा ने बाळती नीसर जावै । नीचै धरती तपरी, उंचो आकास् बळरियों । खैजडा री छाया में बैठयो सोढो जवान भीतर सू अर बाहर सूं दोनं कानी सूं दाझं रियो । बारला ताप सुं बती हिया में सळगती होली री झाला बाळ री । दुपैरी रा सूरज री सूधी मुंडा साम्हीं किरणों आंख्या में गबोड़ा पाड़ री पण वींनै ईं री सुध नी। वो तो ऊंडा विचार में अस्यों डूबरियों के चारुं दिसा एक सी लाग री । आज वीरे होवण वाला सासरा सुं सुसरा रो सनेसो ले आदमी आयो,<br />
<br />
"परणणो व्हे तो पनरासौ रिपिया तीन दिनों में आय गिणा जावो, नी' तो आखा तीज नै थांरी मांग रो दूजा रे सागैं बियाब करदांला ।<br />
<br />
"सुणतां ही सोढा जवान री आंख्या में झालां उठी। अपने आप हाथ तरवार री मूठ पै पड़ग्यो। दाता सूं होठा ने काट रैग्यो । वीं री मांग दूसरा की हो जासी, जीरी खोळ वींरी मां रिपियो नारेळ घाल आज सुं दस बरसों पैला भरी अर वांरो बियाब कर देणे रा मनंसूबा करता करता मां बाप दोई मरग्या। घर में नैनंपण पड़गी । कुण खेती ,बाडी, गाय भैस सम्भलतो । अबै पनरासौ रिपिया कटा सू लावै ?"ऐ रिपिया दीधा बिना वींरी मांग दूसरा री होजासी, जींरा सपना दस दस वरसा सुं वो देखतो आयो, वीं मांग नै ईज आखा तीज ने दूजा ले लारै कर देला ।<br />
सोढा जवान री आख्या में खून उतर आयो । आज तक कदे ही असी व्ही है मांग रे वास्ते तो माथो कट जावै, म्हूँ जीवतो फिरूँ अर म्हारी मांग ने दूजो परनै ,हरगिज नीं।<br />
"बोहरा काका, म्हारी लाज थारे हाथा है ।"<br />
"लाज तो म्हे घणी ही राखी है । थुं बता कस्या खेता पै पनरासौ गिण दूँ ?<br />
अडानो कायीं राखैला ? "<br />
"म्हारे कने हे ही कायीं ? रजपूत री आबरु एक तरवार खांपो म्हारे बच्यो है ।''<br />
"तो भाई, कीं दूजा बोहरा रो बारणो देख । "<br />
सोढो तड़फग्यो। देख काका, थे म्हारा घर री सली,सली म्हारा नैनपण में झूठा सांचा खत मांड मांड लेय लीधी । म्हारा घर में ठीकरों तक नी छोडूयो । म्हें थने सारो दीधो ,अर जो ही माँगतो व्हे देवण ने त्यार हू । पण ई वगत , म्हारा घराना री लाज राखलै । जीरी मांग दूजारे लारै परी जावै तो जीवतो ही मरयां बराबर है । ई तरवार,<br />
जगदम्बा ने माथै मेल सोगन खावूं थारो पीसो पीसो दूध सूं धोए चुकावूं । थारे दाय आवै जतरौ व्याज मांडले । ई वेलां म्हने रिपिया गिण दे ।<br />
"रज़पूत रो जायो व्हे तो ये अस्या कोल करजे। म्हूँ खत पै जो मांड दू वीं पै थू दसगत कर देवैला कैं ? "<br />
<br />
"माथो चावे तो दे दूं पण अवार म्हारी राज राखलै । "<br />
बाणिये खत मांड'र आगो कीधो । कान पै मैली लगी कलम ने उठाय हाथ में झेलाई ।<br />
<br />
"बांचले खत ने, छाती व्है अर असल रजपूत व्हे तो दसगत करजे ।''<br />
खत बांच्यो, मांड राख्यो "ये रिपिया व्याज सूधी नीं चुकाउ जतरे म्हारी परणी लगी ने बेन ज्यूँ समझुलां ।<br />
<br />
होठां ने दांता बीचे दबाय राती राती झाला निकळती आंख्या सूं झांकतो दसगत कर दीधा ।<br />
<br />
बरसां सुं सोढा रो सूनो घर आज बस्यो । आज वींरी मेड़ी में दीवो बळयो । दीमकां लाग्यो,, लेवड़ा पड्यो घर,लींपयो चुंप्यो हंस रीयो ।घणा बरसां पछै आज वीरे घर में घुंघरा री छम छम व्ही ।पीयर सूं डायजा में आयोड़ा गाड़ो भरया असबाब सूं गिरस्थि जमाई ।सोढो जीमवा बैठ्यो ,बींनणी हाथ सूं पोयोडी चीडा री बींझणी ले पवन घालवा लागी।दांत रो चूडो पेरया हाथां सूं परूस री।सारो घर आज कायीं रो कायीं सोढा नै लाग रियो । ऱजपूताणी री आंख्या में नेह ऊझल रियों पण सोढा री आंख्या गम्भीर ।वा परुसती री यो जीमतो रियो । सोढो बोलणो चावै पण बोलणी आवै नी, वा तो आगे व्हे बोलै ही किण तरह ?खाय, चलू करण लागो, रजपूताणी झट ऊठ लोटा सु हाथा पै पाणी कूढवा लागी, सोढा री नजर घुँघटा में पसीना री बूंदा सूं चमकता मूडा पै पडी, वींरी आख्या रे आगे बाणिया रो खत भाटा री चट्टान ज्यू ऊभो व्हेम्यो, वीरां हाथ कांपग्या । लोटा सूं पड़ती पाणी री धार जमी' पै बैयगी । रात पड़ी सोने री वैला आईं ।सासरा सूं आयोड़ा ढोल्या पै सूता । झट म्यान सुं तलवार काढ़ दोय जणां रे बीच में मेल,मूंडो फैर सोयग्यो ।<br />
<br />
रजपूताणी सगमगी । "यूँ क्यों म्हारा सूं कांई नाराजै हैं "?<br />
एक, दो, तीन, दस पनरा राती बीत्तगी । या हीज तरवार काली नागण ज्यू रोज दोवा रे बीच । दिन में बोले, बात करे जद तो जाने सोढा रे मूंडा सु अमरत झरे ,आंख्या सूं नैह टपके पण रात पडती ही वींज मुंडा सूं एक बोल नी' निकलें, वे हीज आंख्या सामी तक नी झांके । रात भर अता नजदिक'रैवतां थका ही घणा दूर। दिन में घणां दूर रेवतां थकां ही घणां नजीक ।<br />
रजपुतानी बारीकी सूं सोढा रो ढंग देखे गैंरांई सूं सोचै । वीं सूं रीयो निं गियो ।ज्यूँ ही तलवार काढ़ ढोल्या पै सोवा लाम्यो, झुक पग पकड़ लीधा ,<br />
"म्हारो कायीं देस है ?म्हारा पै नाराज क्यूं ?गलती कीधी तो म्हारा बाप जो थाने रिपिया सारुं फोडा पाड़या ।" टळ टळ करता आंसूं सोढा रे पगाँ पै जाय पड्या `।<br />
“कुण के म्हूँ थारा पै नाराजं हूं । थुं म्हारी, म्हारा घर री धणियाणी है । आपरा हाथ सुं वींरा हाथां ने पगा सूं दूर करतो सोढो बोल्यो।<br />
"तो अतरा नजीक रेवतां लगाँ ,म्हासु अतरा दूर क्यों ?'' सोढा रे ललाट पे दो सळ पड़ग्या<br />
<br />
" थुं जाणणो ही चावै ? ”<br />
"हा । ''<br />
"तो ले बांच हैं खत ने ' । "<br />
दीवा री बाती ऊंची कर टमटम करता दीवा रा चानणां में खत बांचवा लागी '<br />
ज्यूँ वाँचती गी ज्यूँ वीं रा मूंडा पै जोत सी जागती गी।आंजस अर संतोस सू वीरों मूंडो चमकवा लाग्यो ।खत झेलाती लगी,बेफिक्री री साँस लेती बोली''ई री कोई चिन्ता नी, म्हनै तो डर हो थांरी नाराजगी रो । वरत पाळणो तो घणो सोरो ।"<br />
दिन उगता ही आपरो छोटो मोटो गैंणोगांठो, माल असबाब रो ढिगलो सोढा रे मूंडा आगे जाय कीधो ,<br />
"ई नै बेच घोडा लावो, करजो उतारनो सबसू पैलो धरम हैं । धरे बैठ्या तो करसा चोखा लागै । रजपूत चाकरी सू सोभा देवै । कोई राजा री जाय चाकरी करां ।<br />
<br />
"" थनें पीयर छोड़ दूं ? थुं कठे रेवेला?''<br />
"पीयर क्यूं? जटे थां बटे ही म्हु दो घोडा ले आवो । "<br />
"पण, पण थुं साथै निभेला कस्या ? "<br />
"क्यूं-नी, म्हु किसी रज़पूत री जायोडी नी के , रज़पूताणी रा चूंख्या नीं के ? म्हने ही थारी नांईं तरवार बांधनो आवै, म्हे ही म्हारा बाप रा घोडा दौड़ाया है । "<br />
"" थारो मन, सोचले । "<br />
"सोच्योडौ है ।"<br />
तेज सुं चमकतो मूंडो सोढो देखतो रैग्यो ।<br />
<br />
सवा हाथ सूरज आकास में उंचो चढयो व्हेला। चित्तोड़ री तलेटी सुं कोस दो एक पै दो घोडा एकीबेकी करता चितोड़ साम्हा जाय रिया । दोई जवान स्वार एक सी उमर, एक भी पोसाक पेरियां, घोडा ने रानां नीचै दबाया दौडायां जाय रिया ।<br />
हाथ रा भाला, उगता सूरज री किरणों सुं चमक चमक कर रिया । कमर में बंधी तरवारां घोडां रे दौड़वा रे साथे साधे रगड़ खाय री । वां मे देख कुण केवै के या में एक स्त्री है । रज़पूताणी ई वगत एक सूरापण भरया जवान सी लाग री। दांत रो चूडो पेरया कँवली कलाया नी री । मजबूत हाथ भाला ने गाढो पकड़यां लगा । लाजती लाजती<br />
धीरे धीरै कोयल री सी बोली री जगी अबै भेरी रो सो कंठ सुर बणाय लीधो । घुंघटा में ही सरम सु लाल पड़जावा वाला कपोल नीं रिया । सूरज री किरणां री नांईं मुंडा सू तेज फुट रियो । लाली लीधां लोयणां सुं नेहचो ऊफण रियो । जाणे सागी दुरगा रो सरुप व्हे।<br />
<br />
घोडा दौड़ता, एक झपाटा में चितोड़ री तलेटी में जाय पूगया। वठी ने राणाजी दरवाजा बारे निकळया । नजर सुधी वांरा पै पड़ी दो पल वीं जोडी पैं नजर रुकगी ।<br />
घोडा री लगाम खेंच पूछ्यो<br />
<br />
"कस्या रजपूत?''<br />
"' सोढा । "<br />
<br />
"अटी नै किसतरै आया हैं ?"<br />
<br />
"सेर बाजरे, सारुं, अन्नदाता ! '"<br />
<br />
"सिकार में साथेे हाजर व्हे जावो । "<br />
<br />
मुजरो कर दोई जवाना घोडा री वाग् मोड़, लारै घोडा कीधा ।<br />
<br />
सूरा रे लारै घुडदौड व्ही । आगे आगै सूर भागरियो वारे लारै हाथ में भाला लीधां सिरदार घोडा नै नटाटूट फेंकरिया । एकल सूर टुंड री मारतो विकराल रुप करयां घोडां रा घेरा नै चीरतो बारे निकल्यो । चारुं कानो हाको व्हीयो, एकल गियो, गियो,<br />
जावा नी' पावै, मारो मारो । "<br />
<br />
सगला ही घोडा री रासां एकल कानी मुड़ी जतराक में तो एक घोडों बीजली री नांई आगै आयो, सवार भाला रो वार कीयो जो पेट नै फाड़तो, आंतडां रो ढिग्लो करतो आर पार जाय निकलग्यो । राणाजी दूरा सु देखतां ही साबासी दीधी ।<br />
<br />
पसीनो पुंछतो लगो सवार नीचै उतर मुजरो कर घोडा री पूठ पै पाछो जाय बैठ्यो । कुण सोच सके के भाला रा एक हाथ में एकल सूर ने धुल करवा वाली लुगाई है । राणाजी राजी-व्हे हुकम दीधो "थे वीर हो, आज सू थां दोई भाई म्हारा ढोल्या रा पै 'रा री चाकरी दो । " ' -<br />
<br />
खम्मा अन्नदाता कर चाकरी झेली ।<br />
<br />
सावण रो मी' नो खळ खळ करता खाळ बैय रिया । तलाब चादर डाक रिया ।डेडका हाका कर रिया । एक तो अंधारो पख, ऊपरे चोमासा री काली रात, काला कांटा बादल छाय रिया । बीजां सलाका लेवे तो असी के आंखयां मींच जावे खोल्या खुलें नी' । इन्दर गाजै तो अस्यो के जाने परथी ने ही पीस दूं । अंधारी भयावणी रात, हाथ सूं हाथ नी' सूझे । ,राणाजी तो पोढया दोई रजपूत्त पैरोे देवै ।<br />
<br />
हाथ में नांगी तरबारां लेय राखी । बीजली चमके जो यांरी नांगी तरवारां वीं चमक मेँ झलमल करे । आधी रात रो वगत राणाजी ने तो नीद आयगी पण राणी री आंखया मैं नीद नी' । सूती सूती कुदरत रा रुप रा अदभुत मेळ ने देख री ।<br />
<br />
. दोई रजपूत्त तरवारा काढयां मे'लां रे बारणा आगै ऊभा ।<br />
उत्तर में बिजली चमकी, रजपूताणी नै याद आई म्हारा देस कानी चमक री है ।<br />
<br />
ई याद रे लारै केई बातां याद आयगी । आज कमावा खातर यो मरदानों भैस करया विदेस में आधी रात रा पैरो देयरी हूँ । दूजी स्त्रियां घरों में आडा बन्द कर सोय री है ।<br />
म्हु नांगी तलवार लीधां ऊभी रातां काटू। अतराक में कने ही पपैयो बोलयो पी पी<br />
नारी हिरदे री दुरबल्ता जागी । "पी कठे?" " घणोई खने है पण कायीं व्हे ?"म्हारी गिणती नी तो संजोगण में है, नी विजोगण में । म्हासु तो चकवा चकवी चोखा जो दूरा दूरा बैठ वियोग काढे । म्हु तो रात दिन साथै रेवती लगी ही विजोगण सु भूंडी। वींरो बांध टूट गियौ । जाय 'र सोढा रा कांधा पै हाथ मेलयो, जाणे बीजली पडी व्हे । दोई जणा कांपग्या । सोढो चेत्यो, "चेतो कर रजपूताणी । रजपूताणी समहली । एक निसासो न्हाक्ति बोली,<br />
<br />
देस बिया घर पारका पिय बांधव रे भेस ।<br />
जिण दिन जास्या देस में, बांधव पीव करेस ।।<br />
<br />
देस छूटगयो परदेस में हां । पति है तो भाई रा रुप में है कदे ही देस में जावांला जद ई नै पति बणांवाला ।<br />
<br />
राणी सूती सूती या लीला देख री । दिन ऊंगताँ ही राणी राणाजी ने काहयो "यां सोढा भाइयां बीचै तो कोई भेद है हैं। क्यों कांई बात है ?माथो तोड़ दू ?"<br />
. "तोड़ण री नी जोड़ण री बात है । या में एक लुगाई है । "<br />
राणी भोली बात मत करो। या सूरता यो आंख रो तौर, या मरदानगी लुगाई में व्हे कदी?"<br />
<br />
"आप मानो भले ही मत मानों । या में एक लुगाई है अर कोई आफत में है । ,,<br />
<br />
"यां रो पत्तों कस्या लगावा?<br />
"इं री परीक्षा म्हे करुं । आप मेँ’लां में बिराज जावो जाली में सू झांकता रीजो वां दोई भाइयों ने बुलावु ।'<br />
<br />
चूल्हा पै दूध चढाय दीधो डावडी ने इसारो कीयो वा बारे निकलगी । दूध उफणतो देख्यो तो रजपूताणी हाकों कर दीधो "दूध उफ़ने दूध उफने ।" सोढो आँख रौ ईसारौ करे ज़तरै तो राणीजी बारे निकल पूछ्यो'बेटी सांच बता तूं कुण है ।म्हारा सूं छिपा मती।<br />
<br />
रजपुताणी आंख्या आगै हाथ दे राणीजी री छाती में मुंडो घाल दीधो । "<br />
सोढे सारी बात सुणाई । राणाजी घणां राजी व्हीयां ।<br />
"थांराँ करजा राँ रिपिया ब्याज सूधा म्हु सांडणी सवार रे साथै थारे गाँव भेजू ।थां अठे रेवो गिरस्थि बसाओ।"<br />
सोढे हाथ जोड्या"अन्नदाता रो हुकम माथा पै पण जठा तांई म्हु जाय म्हारा हाथ सुं रिण चुकाय खत फाड़ नी न्हाकु जतरे हुकम री तामील किया व्हे ।म्हाने सीख बगसावो ।<br />
<br />
राणाजी करजा राँ रिपिया अर गिरस्थि बसाने रो घणो सारो सामान दे वाने सीख दीधी ।<br />
वीं पड़वा री रात राँ आन्नद रो विचार ही कतरो मीठो है ।<br />
<br />
साभार -मांझल रात रानी लक्ष्मीकुमारी चुंडावत<br />
टँकनकरता-यदुवंसी सुरेन्द्रसिंह भाटी तेजमालता<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCIM9zRKCtFeZRMCyTSTkMQb5WZBn8DCu_1Z6RA5G06nTWPnQvxITooggW75LzviwDl-gaAPRjeI_mi3yZBCPuu2fVib371s2MEMFHEoQBsFkhwddYh5t_IRdFrpxKuV-XpwyP3ElP6DmZ/s1600/images-3.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCIM9zRKCtFeZRMCyTSTkMQb5WZBn8DCu_1Z6RA5G06nTWPnQvxITooggW75LzviwDl-gaAPRjeI_mi3yZBCPuu2fVib371s2MEMFHEoQBsFkhwddYh5t_IRdFrpxKuV-XpwyP3ElP6DmZ/s200/images-3.jpg" width="131" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">नॉट-फोटो काल्पनिक है ।</td></tr>
</tbody></table>
</div>
यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-27555105886085340932017-05-15T07:35:00.000-07:002018-06-04T04:38:26.407-07:00लाख पसाव करोड़ पसाव जानिये कींन किन राजाओं ने कितने पसाव दान दिया और पसाव की कितनी वेल्यू होती थी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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*पसाव*</div>
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-चारणों ने रजपूतों की कीर्ति बढ़ाने में कसर नहीं रखी है उनके इनामों के भी लाखपसाव, किरोड़पसाव और अरबपसाव नाम रख रख कर दरजे बढ़ा दिये और नजीर के वास्ते कई राजों को चुन रखा है जैसे कहते हैं कि अजमेर के राजा बठराज गौड़ ने अरबपसाव दान दिया था । आमेर के महाराजा मानसिंघ ने 6 किरोड़ पसाव दिये । बीकानेर के राजा रायसिंघ ने सवा किरोड़ और सिरोही के राव सुरतान ने किरोड़ पसाव दिया था । उत्तम मध्यम 5 हजार रुपये का सिरोपाव लाखपसाव, इससे दूना किरोड़ पसाव और किरोड़ पसाव से जियादा अरबपसाव कहलाता है । मगर सासन गांव सबके साथ होते हैं । जोधपुर के तो हरेक महाराजासाहिब जब पाट विराजे हैं चारणों को लाख पसाव देते रहे हैं । महाराजा श्री जसवंतसिंघजी ने भी राजतिलक के समय कविराजमुरारदानजी को लाख पसाव दिया था । 6/337-8. -लाख पसाव का अर्थ एक लाख रूपयों के इनाम से है जो भाट-चारणों को राजा देते हैं । यह पुरस्कार नकद रूपये में नहीं दिया जाता है किन्तु हाथी, घोड़े, ऊंट, रथ, रत्न, जमीन व धान आदि के रूप में दिया जाता है । इन सबका मूल्य साधारणतया 30 हजार रूपये के होता है लेकिन फिर भी यह ‘लाख पसाव’ ही कहलाता है । 2/153. -‘ख्यात से पाया जाता है कि महाराजा जसवंतसिंह के समय ‘लाख पसाव’ के नाम से केवल 1500 ही मिलते थे । यह माना है कि गजसिंह के समय ‘लाख-पसाव’ का मूल्य 2500 के स्थान में 25000 होना चाहिये, पर इस रकम का घटता हुआ क्रम देखकर तो मानना पड़ता है कि उस स्थान पर दिये हुए 2500 ही ठीक है ।’ 3/471. </div>
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-महाराजा अभयसिंहजी ने मेवाड़ के सूलवाड़ा गांव के चारण कवि करणीदान कविया को ‘विरद श्रंगार’ पुस्तक के लेखन पर प्रसन्न होकर उसे लाख पसाव तथा अलावास गांव और कविराजा की उपाधि दी । 2/131.</div>
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-महाराजा अभयसिंघजी कविया करणीदान को लाख पसाव देकर जोधपुर से मंडोर तक जहां उसका डेरा था पहुंचाने के वास्ते पधारे थे -‘अस चढि़यो राजा अभो, कवि चाढ़े गजराज । पोहर अेक जलेब में मोहर बुहे महराज ।1। 6/337.</div>
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-महाराजा गजसिंह ने सिंहासनारूढ़ होने के बाद उसने तीन बार चांदी का तुलादान किया - पहला वि.सं. 1680 (ई.स.1623), दूसरा 1681 (ई.स. 1624) तथा तीसरा (श्रावणादि) 1690 (चैत्रादि 1691 - ई. स. 1634) में । वह विद्धानों, चारणों, ब्राह्मणों, आदि का अच्छा सम्मान करता था । उसने चारणों, भाटों आदि को सोलह बार ‘लाख-पसाव’ और 9 हाथी दिये थे । ख्यात से पाया जाता है कि एक लाख पसाव के नाम से 2500) दिये जाते थे । 3/411.</div>
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-बाहर के सम्मान पानेवाले व्यक्तियों में मेवाड़ के दधवाडि़या खींवराज (खेमराज) जैतमालोत तथा सिरोही के आढ़ा दुरसा के नाम उल्लेखनीय है । इन्हें लाख-पसाव के अतिरिक्त हाथी, तथा क्रमशः राजगियावास (परगना सोजत) वि.सं. 1694 कार्तिक सुदि 9 (17 अक्टोबर, 1637) को और पांचेटिया (परगना सोजत) गांव वि.सं. 1677 (ई.स. 1620) में मिले थे । 3/412.</div>
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-महाराजा जसवंतसिह ने कई अवसरों पर ब्राह्मणों, कवियों, चारणों आदि को गांव, सिरोपाव, अश्व इत्यादि देने के साथ ही उसने ‘आड़ा किशना दुरसावत’ तथा ‘लालस खेतसी को लाख-पसाव दिये । 3/470.</div>
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-महाराज जसवंतसिंघजी लोहाईरा डेरां संवत् 1698 रा आसोज सुद 10 बाईस घोड़ा चारणांनूं नै सिरदारांनूं दिया, दोय लाख पसाव दिया, अेक लालस खेतसीनूं, दूजेरो आढ़ा किसनानूं । 15/30.</div>
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-महाराजा मानसिंह ने ‘महामंदिर’ की प्रतिष्ठा वि.सं. 1861 की माघ वदि 5 (20 जनवरी, 1805) को वणसूर जुगता को लाख-पसाव, ताजीम ओर पारलाऊ गांव दस हजार रूप्ये की आमदानी का दिया । 2/150.</div>
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-महाराजा मानसिंहजी नेे डिंगल भाश्ष के महाकवि बांकीदासजी, जो जयपुर के कविश्वर पदमाकर के साथ शास्त्रार्थ में विजयी हुए थे उन्हें वि.सं. 1870 (ई.स.1813) में प्रसन्न हो उन्हें ‘कविराजा’ पदवी, ताजीम, जागीर और लाख पसाव में एक गांव चवां (लूनी जंकसन) और डोहली दिया । महाराजा मानसिंह ने बाद में इन्हें एक और लाख पसाव दिया । महाराजा को आम दरबार में अपमान सूचक खरी खरी सुनाने के कारण बांकीदासजी को तीन बार देश-निकाला भी हुआ । 2/153.</div>
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-महाराजा तख्तसिंहजी ने बाघजी भाट (अहमदनगरी)को लाख पसाव दिया । 2/170.</div>
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-सवाई राजा गजसिंहजी ने 14 कवियों को लाख पसाव दिये - 1. भाट गोकुलचंद ताराचंदोत, 2. चारण भादा अज्जा कृष्णावत, 3. चारण आडा दुर्सा मेहराजोत, 4. चारण बारहट राजसी अखावत, 5. भाट मपोहर, 6. चारण संडायच हरिदास बाणावत, 7. चारण कविया पचाण, 8. चारण महड़ू कल्साणदास जाडावत, 9. चारण दधिवाडि़या जीवराज जयमलोत, 10. बारहट राजसी प्रतापमालोत, 11. चारण केसा मांडण, 12. सामोर हेमराज, 13. चारण कविया भवानीदास नाथावत, और </div>
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14. कृष्ण दुर्सावत । 2/117.</div>
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-उदयपुर के महाराणा जगतसिंघजी अपनी ड्योढ़ी से सौ सवा सौ पांवड़े बाहर तक आये थे -मूंधियाड़ के कवि करणीदान को लेने के लिये - ‘करनारो जगपत कियो, किरत काज कुरब । मनजिन धोको ले मुओ, शाहदिलीश सरब ।’ 6/337.</div>
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जैसलमेर री ख्यात अनुसार 67. भीमसेन ‘भाट’ ने क्रोड़ पसाव दीयौ । 5/21. </div>
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-126. राजा तेजपालजी क्रोड़ पसाव दीनो भाट साण नै, गढ़ लाहोर । 5/28.</div>
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-76. राजा मरजादपति भाट जेहल ना सात क्रोड़ पसाव दीनोै । 5/23.</div>
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-170. रावळ लांझोजी विजेराज लुद्रवे बहुत दातार हुवो ।धार परण गयो जठै सवा क्रोड़ को त्याग बांटियो । भाट नाढ़ाजी ने क्रोड़ पसाव दीनों 5 गांव पांच सांसण दीना, 2 भटनेर के परगने 3 देरावर के परगने । छड़ी अर सुखपाल बगसी, तंबू अर जाजम बगसी सं. 1195 । दूजा कवीयां नै सात सांसण दिया । 5/44.</div>
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-83. राजा मघवान जैतजी ने भाट अंगद नै लाख पसाव दीनौ, मथुरा सुथान । 5/24.</div>
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-172. रावळ जैसल संवत् 1212 सावण सुद 12 अदीतवार मूल नक्षत्र गढ़ जैसलमेर की नींव दीनी । किलो थाप्यो राजस्थान बांध्यो । भाटों ने नामा मंडाय लाख पसाव दीयो भाट टीकमदास नै । ग्राम दोय दीना, नात यांकोहर, भदड़ीयो । हाथी चढ़ाय हवेली पहुंचाया । कुरब भी दीनो, छड़ी तंबू जाजम बगसी । 5/47.</div>
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-193. रावळ हरराजजी पाट बैठा सं. 1618 । हरराजजी लाख पसाव दीनोै भाट गोपाळदासजी नै गांम मंडा नुं घोड़ा 10, ऊंट 11, तंबू, बछायत, बंदूक, तरवार, कटारी 2, सिरोपाव 30 आभुषण सहित हुवौ, दूजौ रोकड़ संवत् 1620 की साल,जैसलमेर थान । 5/72.</div>
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-199. रावळ अमरसिंघजी पाट बैठो संवत् 1716 की साल । लाख पसाव दीनौ भाट वेणीदासजी नै -घोड़ा पांच, ऊंट पांच, सिरपाव, आबूखण सिहेत 22, हाथी 1 रुपिया नवसौ रोकड़ा । 5/78.</div>
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-206. रावळ गजसिंघजी पाट बैठा संवत् 1876 फागण वद 5 । यां चारणां भाटां नेै लाख पसाव दीया । 5/86.</div>
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-राजा रामचंद वीरभांणरो वडो दातार हुवो, दांन च्यार कोड़ दिया- 1 कोड़ नरहर महापात्रनूं, 1 कोड़ चत्रभुज दसौंधीनूं, 1 कोड़ भइया मधुसूदननूं, 1 कोड़ तानसेन कलावंतनूं । 10/122. </div>
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-बाधूगढ़ राजा रामचंद वीरभांणरो वाघेलो वडो दातार हुवो । च्यार कोड़पसाव एक दिन किया- नरहर महापात्रनूं, अेक भइया मधुसुदन नरहररो पुत्र जिणनू,............, कलावंत मियां तानसेननूं.....। 15/133.</div>
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-जाम ऊनड़ साढ़ा तीन करोड़ रुपियांरो सिंघासण छत्र दे सात ही सिंध सूदा कवी सांवळनूं दिवी । 15/122.</div>
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-मेवाड़ के प्रसिद्ध ख्यात एवं वंशावलियों के लेखक बड़वा देवीदान के वंशज हरिराम एवं रामदान 1930 ई. में महाराणा को अपनी पोथी सुनाने आये, जिन्हें बागोर हवेली के सत्कारालय में ठहराया गया । इस अवसर पर महाराणा ने इन्हें हाथी, घोड़ा, मोतियों की माला स्वर्ण आभूषण, सिरोपाव एवं 500 रुपये दान में दे कर हाथी पर बिठा कर बागोर हवेली तक विदा किया । -विश्वमभरा पृ. 37, वर्ष-18, अंक-3-4, 1986.</div>
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-मूळीरै धणी सोढ़ै रतन ऊंगा -आंथवियां ताईं मीसण परबतनूं कोड़पसाव दियो । पचास लाख नगद, पचास लाखरो भरणो नै लाख रुपियांरो माल नवैनगर बाई सोढ़ीनूं मेलियो । 15/180.</div>
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-राजा रायसिंघजी बारट संकरनूं सवा कोड़ दीवी जद पांडसर साजनसर दोय गांव तांबापतर दिया बीकानेररा -‘करमचंद करसो किसूं, अन धन जोड़ अपार,नवी जग खाटो नहीं, ले जासो की लार ।’ 15/75.</div>
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-रासीसर सांखलो खीमसी रायसलरो बेटो रहै । रायसलरौ खीमसी चरूंसूं गाळ गाळ जिण वीठूनूं दोयड़ पसाव दिया, पोळपात थापियो । 15/139.<br />
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-76159064420538759192017-05-09T03:24:00.000-07:002017-05-09T03:24:14.940-07:00महाराणा प्रताप रो जस कवि स्वर्गीय भंवरदान जी झणकली<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कवि स्व श्री भंवरदान<br />
झणकल़ी<br />
<br />
<br />
*** महाराणा प्रताप रौ जस ***<br />
<br />
"उतर दियौ उदीयाण दिन पलट्यौ पल़टी दूणी।<br />
पातल़ थंभ प्रमाण़ शैल गुफावा संचरीयौ।<br />
<br />
मिल़ीयौ मैध मला़र मुगला री लशकर माय।<br />
कलपै राज कुमार मैहला़ चालौ मावड़ी।<br />
<br />
महल रजै महाराण कन्दरावा डैरा किया।<br />
पौढण सैज पाखांण हिन्दुवां सुरज हालीया।<br />
<br />
उलटीया एहलूर म़ाझल़ गल़ती रात रा ।<br />
पछटयौ पालर् पुर गाडरीया झुकीया गिरा।<br />
<br />
झंखड़ अकबर जाण़ राजन्द झुकीया गिरा।<br />
पातल़ थम्भ प्रमाण इडग रयौ धर ऊपरां।।<br />
<br />
गीत<br />
रौवण लागा राज दुलारा, रल़कीयौ नीर रैवास।<br />
वाव सपैटै दीप बुझायौ, उझमी जीवण आस।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।1।।<br />
<br />
ब़ीज बल़ौबल़ जौर झबुकै, घौर माय घमसाण।<br />
हिन्दुवौ सुरज डैरड़ै हाल्यौ, पौढ़वा सैज पाख़ाण।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।2।।<br />
<br />
बिलखती माता कैह विधाता, तै ही लिख्या तकदीर।<br />
राजभवना रा आज रैवासी, फड़फडै़ जाण फकीर।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।3।।<br />
कंवर कंवरी कंध चढ़ाय, महाराणी समझाय् ।<br />
आवै राणौसा तौ हालस्या अपै, महल़ पिछौलै माय।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ, ।।4।।<br />
<br />
मांगड़ै आवतौ मुन्छ मरौड़ै, वल़ीयौ पाछौ वीर।<br />
आज मैहल़ा आजाद करावा, न लैवा अन्र नीर।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।5।।<br />
आवतौ माल़क सार अवैल़ौ हिसीयौ हैवन हार ।<br />
सज वाहुणी लगा़म संभ़ाल़ै आवियौ पीठ अमीर।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।6।।<br />
<br />
चीरतौ पाण़ी घौड़ल़ौ चाल्यौ, कुदतौ थौहर कैर।<br />
आंच आवै असवार ना तौ मारौ जीवणौ खारौ ज़ैर।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।7।।<br />
<br />
पाव घड़ी माय पुगीयौ पवन पिछौल़ै री पाल़।<br />
पाव पख़ाल़ण काज़ पिछौल़ौ आवियौ लौप औवाल़।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।8।।<br />
<br />
कौयल़ा सारस कीर कबुतर पंखीड़ा घण़ प्रीत।<br />
दैश धणी ना आवत़ौ दैख गुटकवा लागा गीत।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।9।।<br />
रुखड़ल़ा पण दैख राणै ना अंजसीया हौय अधीर।<br />
झुमती शाखा पगल़ा झुकी नैह त्रमंकयौ नीर।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।10।।<br />
<br />
वीर शीरौमण नांव मा बैठा पा़ण ग्रहै पतवार ।<br />
पार पुगावण काज पिछौलौ धावीयौ गंगाधार।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।11।।<br />
<br />
आवती नैया सार अवैल़ी ताणीया तीर कबाण।<br />
भील़ण़ी जाय़ा शब्द भैदी जैरौ ना चुकै निश़ाण।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।12।।<br />
<br />
जवान बैटा ना संभता दैखै बौल़ीयौ ब़ुढ़ौ भ़ील़।<br />
आज बैटा कुण बाग मां आयौ ईडग़ा तौड़ी ईल़।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।13।।<br />
<br />
आज क्या मारी आंख फरूखै अंग उमंग अनुप।<br />
एहड़ै सुगनै भैट करावै अवस मैवाड़ौ भुप।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।14।।<br />
<br />
बाप री बात़ा साम्भल़ै बैटा नाखीया तीर कब़ाण ।<br />
दैश धणी रै दरसण़ा हैतू अंजसीया औस़ाण़।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।15।।<br />
आय् किनारै नावड़ी उभी भागीया सामा भील़।<br />
चौखसी राणै तीर चढ़ायौ दैख उबाण़ा डील़।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।16.।।<br />
<br />
आपरा चाकर जा़णा़ै अन्रदाता माफ करौ शक मैट।<br />
पातशाह रै पौहरै उभ़ा पाल़वा पापी पैट।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।। 17।।<br />
<br />
माफ करौ माही बाप कै मा़झ़ी पांव पड़या अकुलात् ।<br />
बाट जौवता मारा दिनड़ा बीता रौवता का़ल़ी रात्।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।18।।<br />
कैकू पगल़ा कीच भराण़ा धौऊ नैण़ा जलधार्।<br />
खाम़द़ा रौ दुख दैख खूपै मारै काल़जै बीच कटार्।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।19।।<br />
<br />
आंखड़ीया भर आवीया आंसु बादल़ा ज्यू बरसात।<br />
आज सौनै रौ सुरज उगौ हिवड़ल़ौ हरसात।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।। 20।।<br />
<br />
रंक हैतालू बौलीयौ राणौ हाख मा थांमै हाथ।<br />
बीती सौ ही बिसार दै वाल़ा पौर भयौ परभात् ।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।21।।<br />
<br />
आज कसौटी रंगत आणै सौलवौ सौन कहाय् ।<br />
आज हु जैड़ै कारज आयौ मारौ कारज सिद्ध कराय।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।22।।<br />
<br />
नींद मा मुगल़ सैन निचींती और भयौ् अंधकार ।<br />
प्रौल़ीया ऊभ़ा तीन पाराधी (पाराथी) काल़ीयौ किल्लैदार।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।23।।<br />
<br />
चौर गुफा मां पुगीयौ च्यरौ उन्चल़ी मंझील आण़ ।<br />
बारणै भ़ुखा सिंह बंधाड़ै सैज पौढीयौ सुल्ताण।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।24।।<br />
<br />
सिंह छैड़ा तौ शौर मचावै जाग अकबर जाय् ।<br />
एक ताड़ी सुण़ फौज असंख्या प्राण हैरै पल़ माय् ।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।25।।<br />
दैश धणी ना दैख उद्द्यासी भीलड़ौ सौच भराय।<br />
छैरूवा कानी बातड़ी छानी सानी मा समझाय।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अ,कबर शाह ऊन्घाण़ौ।।26।।<br />
<br />
जगत् सु बैटा एक दिन जावणौ खाटल़ी सुता खाय।<br />
मात्रभुमी रै काज मरा तौ जीव वैकुटाय जाय।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।27।।<br />
<br />
बाप ना बैटा बैरवा बैठा मुखड़ा धारै मौन।<br />
च्यार चीराल़ै कर न चाल्या चारवा सिहा चुण।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।28।।<br />
<br />
पंड कीधौ बलिदान पाराधी हंसतै कमल़ हाय।<br />
मरतां वैल्या जनम मांगयौ दैश मैवाड़ै माय।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।29।।<br />
<br />
आंखड़ीया भर आविया आंसु राण भराणौ रीस।<br />
अनवीया वाल़ी ईल तौड़ै न शिशौद नमायौ शीश।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।30।।<br />
<br />
पैढ़लीया कर पार राणैजी सांभ लैही शमसैर।<br />
हिन्दुवै सुरज हाथ उठायौ बाल्वा जुनौ बैर ।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।31।।<br />
एक अंतै माय आवियौ हिलौ कांप गई किरपाण ।<br />
बिन बाकारयां मारणै सु मारौ दैश लाजै उदीयाण़।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।32।।<br />
<br />
राजपुती री रीत रुपाल़ी नींद मा सुतौ न धाय्।<br />
सात पीड़ी रै शत्रु ना पैश पड़या बगसाय।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।33।।<br />
<br />
आंगली चिरै मांडीया आखर सामली भ़ीत सुजाण।<br />
आखरी वैल़या आज अकबर दैवा जीवनदान ।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।34।।<br />
<br />
आज प्रभाता त्याग उदयपुर कूच करै कमठ़ाण़।<br />
दुसरा मौका न दैवा हु थारै मांझल रौ मैहमाण।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।35।।<br />
<br />
रंग रै राणा रात थारी ना रंग जाती रजपुत।<br />
रंग माता जकै गौद रंमाड़्यौ पातल़ जैड़ौ पूत।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।36।।<br />
अवतरीया ईण धरती पर मौकल़ा वीर महान।<br />
सुरमा री मरजाद सुणावै बारट भंवरदान ।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।<br />
अवतरीया ईण धरती पर मौकल़ा वीर महान।<br />
सुरमा री मरजाद सुणावै बारट भंवरदान ।<br />
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।37<br />
<br />
🙏 मेवाड़ की माटी के वीर सपूत हिंदुआ सूरज महापराक्रमी महाराणा प्रताप की जन्म जयंती की सभी को कोटी कोटी शुभकामनाए । 🙏🌹🌹🌹<br />
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🙏जय महाराणा 🙏<br />
🙏 जय मेवाड़🙏<br />
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-13260501955939656142017-05-08T08:21:00.001-07:002017-10-01T02:08:00.666-07:00पूगल की पद्मिनी भटियानी चितोड़ की पद्मावती महारानी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मेवाड़ की इतिहास प्रसिद्ध रानी पद्मिनी जैसलमेर के रावल पूनपालजी, जिन्हें सन् 1276 ई. से वहां से निर्वासित कर दिया गया था और जिन्हें अपना शेष जीवन मरुस्थल की वीरानी से बिताने के लिए बाध्य होना पडा, की राजकुमारी थी । इन्ही के पढ़पौत्र राव रणकदेव ने सन् 1380 के में थोरियों से पूगल जीतकर भाटियों का एक नया स्वायत्तशासी राज्य स्थापित किया ।ढोला…मारू के इतिहास प्रसिद्ध प्रेमाख्यान की नायिका, मरवाणी भी पूगल के पाहू भाटियों की राजकुमारी थीं। समय व्यतीत होने के साथ "पूगल री पद्मिनी' दिव्य सौंदर्य का पर्यायवाची बन गई और पूगल क्षेत्र के भाटियों की सभी बेटियों की सामान्य पदवी पूगल री पद्मिनी हो गई । आज भी यह परम्परा यथावत है ।<br />
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यह एक सुप्रसिद्ध तथ्य था कि पूगल संभाग की कन्याएं वहुत सुन्दर, व्यवहारकुशल, सुडौल,सुगठित देह और तीखे नाक नक्श वाली होती थीं । जहॉ विवाह के पश्चात् नए घर की यथा कला व्यवस्था करने में वह चतुर होती थीं, वहाँ उनमें पति का अगाध प्यार प्राप्त करने की कुशलता के साथ साथ वह पूरे परिवार को स्नेहपाश में बाँध लेती थीं और परिवारजन भी बदले में उससे भी अधिक स्नेह देते थे । पानी की कमी, साधनों का अभाव, जीवन के लिए जीवट से संघर्ष से उनमें मितव्ययता, भाग्यवादिता और निर्मीकता के गुणु आत्मसात् होते थे ।<br />
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उनके आकर्षक चेहरे-मोहरे, तीखी आकृति हलके-फुलके अनुपात में देह का मॉठल गठन का मुख्य कारण, उजवेगिस्तान (बोखारा), ईरान, कश्मीर, अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रान्त से उनका प्राचीन भौगोलिक सम्बन्थ ब सम्पर्क होना रहा था। उन क्षेत्रों की अपेक्षाकृत ठंडी जलवायु से गोरा रंग, गुलाबी गाल व होठ होना स्वाभाविक वा, किन्तु जब पूगल क्षेत्र की उष्ण व खुश्क जलवायु से इसका शताब्दियों तक मृदु सम्मिश्रण होता रहा तो उनकी सुन्दरता से चार चाँद जुड़ गए । केवल यही नहीं कि इस क्षेत्र की कन्याएँ सुन्दर, आकर्षक व सुडौल होती थी पूगल क्षेत्र की 'राठी' नस्ल की गाएँ भी उष्ण व खुश्क जलवायु और वातावरण के प्रभाव से अछूती नहीं रहीँ, उनका गठन, डीलडौल, रंग, चालढाल व दूध देने की क्षमता अन्य संभागों से अब भी इक्कीस है । यह सब रेतीली उपजाऊ मिट्टी, अत्यंत उष्ण व शीत जलवायु,शांत व सामान्य खाना-पीना एवं सहिष्णुता की देन थे । जब भाटियों के बेटे बेटियो के वैवाहिक सम्बंन्ध पश्चिम के सिन्ध और पंजाब प्रदेशों के बजाय पूर्वी व् दक्षिणी पडोसियों से होने लगे तो इनकी पुत्रियों के शारीरिक गुणों का जहाँ हास हुआ, वहाँ भाटी माताओं से अन्य राजपूतों की संतानों के शारीरिक गुणों में शोभनीय अभिवृद्धि हुई ।<br />
अगर हम प्राचीन इतिहास काव्य और साहित्य पर दृष्टि डाले तो पाएंगे कि रानी पद्मिनी के माता -पिता और उनकी जाति व् कुल को अनावश्यक,विवाद का विषय बना दिया गया है मेवाड़ की रानी के जीवंत की यथार्थता पर सभी सहमत थे, परन्तु कोई भी राजपूत जाती उसे अपनी बेटी मानने को उद्धत नहीं हुई, क्योंकि सभी अपनी स्वनिर्मित हींन भावना के कारण उसकी सुंदरता । व् नाम से अकारण घबराते ये । उनके अन्ताकरण में कहीं न कहीं यहः घहरि भावना बैठी हुयी थी की ऐसी पद्मिनी पूगल के सिवाय और कहीं की कैसे हो सकती थीं । पूगल के भाटियों की विवशता यहः थी कि कुल मिलाकर यह अनपढ़ थे । उनका अपना लिखित कोई इतिहास न था ।और परिस्थतिवश उन्होंने अपने आपको रेगिस्तान के सुरक्षात्मक फयय के एकान्त में समेट लिया था ।कोई भी निश्चित मौखिक कथन पर विश्वास करने या ध्यान देने को ततपर नहीं होता था । उन्हें तो लिखित प्रमाण, चाहे भले ही सरासर मिथ्या ही क्यों न हो, ऐसा कोनसा अभागा वँश होगा जो पद्मिनी बेटी जैसी दिव्य शोधा,गुणों की खान और बलिदान की प्रतिमूर्ति को अपनी प्रेतक वँश परम्परा में जोड़कर गीरवान्वित नहीं होगा । पूगल के इतिहास से अल्प परिचित अनभिज्ञ इतिहासकारों ने पद्मिनी को कहीं न कहीं अपनी पसन्द की खाँप या जाति की उपयोज्यता बना दीं। ओर अगर संयोगवश वह उसके वंश और खानदान की सही पहचान करने में सफल नहीं हुए तो उन्होंने उसके अस्तित्व पर पूर्णवुराम लगाकर इतिश्री का दी ।<br />
<br />
तवारिख जैसलमेर और जैसलमेर री ख्यात के अनुसार रावल पुनपाल जी के तीन रानियां थी: (1) रानी पैपकंवर पडिहारजी यह बेलवा के राणा उदयराज की पुत्री थी ,इनसे लखमसी भोजदेव, दो राजकुमार हुए । पुगलिया या पुंगली भाटी भोजदेव के वंशज हैं । (2 ) सिरोही की राणी जामकंवर देवडी, इनके चरड़ा और लूणराव, दो राजकुमार ये । इनके वंशज क्रमश:चरडा और लूँनराव भाटी है । इन रानी की पुत्री राजकुमारी पद्मिनी थी । (3)थर-पारकर के राणा राजपाल की पुत्री सोढी रानी । इनके पुत्र रणधीर के वंशज रणधीरोत भाटी हैं ।<br />
<br />
पूनपालजी द्वारा सन् दृ 1276 ई. में जैसलमेर त्यागने के पश्चात् उनकी रानी जामकँवरं देवडी (चौहाँन) के सन 1285 है से राजकुमारी पद्मिनी ने जन्म लिया । इनका विवाह चितोड़ के रावल रतनसिंह के साथ हुआ था । रानी जामकंवर देवडी नाडोल से जालोर आये देवडो की पुत्री थी । जालोर के चौहान शासकों का विस्तृत राज्य था। जामकेंवर देवडि के पिता वर्तमान जालोर राज्य के सामंत थे ।<br />
'जायसी ग्रंथावली', पृष्ठ 24 पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने रानी पद्मिनी के पति का नाम रत्नसिंह (या स्तनसेन) दिया है, यहीं नाम आइन-ई-अकबरी में दिया गया है । कवि जायसी ने भी शासक का नाम रतनसी दिया है । पंडित शुक्ल के अनुसार (वर्तमान) राजपूताना या समीप के गुजरात में "सिंघल" नाम का छोटा राज्य होना चाहिए था । सिरोही राजस्थान और गुजरात की सीमा' पर है । श्रीलंका में चौहानो का कोई उपनिवेश नहीं था । श्रीलंका के निवासी कभी गोरे नहीं होते थे,इसलिए राजकुमारी पद्मिनी जैसी सुंदर कन्या वहां की संतान नहीं हो सकती । सिंघल द्वीप और वहाँ की पद्मिनु केबल गोरखपंधी साधुओं की कल्पित कथा है ।<br />
<br />
"सोनगरा सांचोरा चौहानों का इतिहास', पृष्ठ 45, मैं हुकमसिह भाटी, गोरा और बादल जालौर के सोनगरा चौहान थे । गोरा, बादल के चाचा थे । चितौड़ आने से पहले यह गुजरात के शासक, वीसलदेव सोलंकी के प्रधान थे ।<br />
<br />
इनकी भानजी का विवाह चितौड़ होने के बाद इनके मामा गोरा और ममेरा भाई बादल,सोलंकियों की सेवा छोडकर चितौड़ आ गए थे ।<br />
<br />
विद्वान पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने थोडी भूल कर दी है । रानी जामकैवर देवडी, देवड़ा चौहानों के अधीन राजस्थान से लगती गुजरात सीमा में सिंहलवाडा संभाग की थीं । रानी जामकेंवर देवडी के भाई गोरा, रानी पद्मिनी के मामा थे और बादल उनके ममेरे भाई । क्योकि गोरा और बादल रानी पद्मिनी के ननिहाल से थे, इसलिए सन् 1303 ई. के चितौड़ के जोहर से पहले उन्होंने मर्यादा सम्बन्धित मार्गदर्शन अपने ननिहाल पक्ष से भी लिया था ।<br />
<br />
नाडौल के देवडा गुजरात के सोलंकी शासकों के प्रधान सामन्त थे और लंबे समय तक उनकी सेवा में रहे । आसराज चौहान ने इन देवड़ा वंशजों के पास सिंहलवाडा की जागीरी थी । इसलिए राजा देवडा हमीरसिंह की पुत्री राणी जमकंवर देवड़ी इसी सिंहलवाड़ा से थी । कवि जायसी ने सिंहलो की भूमि सिंहलवाड़ा को कल्पना से 'सिंहल द्वीप’ की संज्ञा देकर अर्थ का अनर्थ कर दिया सम्भवतः पूर्वी भारत में दूर बैठे जायसी को उस काल में सिंहलवाड़ा के अस्तित्व का बोध तक नही था ।उन्होंने पद्मिनी और सिंहल देश का नाम सुनकर या कही पढ़कर सिंहल द्वीप की उड़ान भर ली और इसी भृर्म में मौज से पद्मावत काव्य की भूमिका बुनकर ऐतिहासिक काव्य की रचना कर डाली। कवि के भ्रमात्मक आधार ने पद्मिनी के सही अस्तित्व को सदियों तक उल्झाये रखा।<br />
<br />
<br />
वस्तुस्थिति यह रही कि रावल पूनपालजी की रानी जामकेंवर देवही सिंहलवाडा के राजा हमीरसिंह्र देवडा की पुत्रो थी । इनके राजकुमारी पद्मिनी हुई, जिनका विवाह मेवाड़ के रावल रतनसिंह के साथ हुआ । हमीर देवड़ा पद्मिनी के नाना थे । पद्मिनी के मामा गोरा चौहान और इनका भतीजा बादल, पहले गुजरात के सोलंकी शासकों की सेवा में थे, अपनी भानजी का विवाह मेवाड़ हो जाने के बाद वह गुजरात की सेवा छोड़कर मेवाड़ के रावल की सेवा से चितौड़ आ गए । राजपूतों में यह परम्परा भी थी कि बहन या बेटी के पास पीहर और ननिहाल पक्ष से सरदार, पुरोहित व सेवक,सेविकाऐ अवश्य रहते थ । ताकि नए घर में पीहर के विछोह में बेेटी उदास नहीं रहे । निकट के यहःसम्बन्धी उसके पीहर की मान-मर्यादा से उसे अवगत कराते रहते थे और संकट की घडी से उसका साथ देते थे । -<br />
<br />
सन् 1295 है से हुए जैसलमेर के पहले शाके तक राजकुमारी पद्मिनी सयानी हो चली थी।वह सुन्दर कन्या तरुणाई से प्रवेेश कर रहीं थी ।शाके के बाद के दिनो से भाटी बाहुल्य प्रधान क्षेत्रो में अललाऊद्दीन खिलजी के गुप्तचरों, भेदियों की भरमार थी । पूनपालजी को चिंता थी कि कहीँ राजकुमारी के अद्भुत सौंदर्य और रूप लावण्य की सूचना सुलतान तक नहीं पहुँच जाए । और फिर,अगर सुलतान ने उनसे पद्मिनु की माँग कर ती तो उनक पास इस अबोध बालिका के बचाव का कोई साधन भी तो नहीं था, वापस जैसलमेर की शरण लेना आत्मश्ताघी पूनपालजी के प्रतिष्ठा का प्रश्न था और शाके के बाद जैसलमेर से उनका साथ देने वाला बचा ही कोन था। अगर उसकी गिद्ध निगाहों और क्रूर हवस से पद्मिनी का कुछ बचाव सम्भव नहीं हो सका तो उनके पास स्वय के हाथों पद्मिनु का गला घोंटने या जहर देने के सिवाय कोई विकल्प शेष नहीं था । संभावित परिदृश्य पर विचार करके पुनपालजी ने जल्दी से पद्मिनी का राजकुमार रतनसिंह के साथ विवाह किए जाने के प्रस्ताव स्वरूप परम्परागत नारियल कुल-पुरोहित के साथ मेवाड़ के रावल समर सिम्हा के पास भेजा ।पुरोहित के साथ रावल को यहः भी कहला भेजा कि राज्यु से निर्वासित लिए जाने के कारण वह मेवाड़ की प्रतिष्ठा के अनुरूप दहेज़ आदि की व्यवस्था करने में असमर्थ थे । मेवाड़ के शासक उनकी व्यथा समझते ये, सारे घटनाक्रम के जानकार थे इसलिए उन्होंने पद्मिनी के राजकुमार रतंन सिंह भीमसिंह) के साथ विवाह का प्रस्ताव तत्परता से स्वीकार कर लिया। अपनी अपेक्षाकृत पतली दशा तथा उस समय मेवाड़ की उच्च प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए पुंनपाल जी ने पद्मिनी का 'डोला‘ मेवाड़ भेज दिया विवाह की सारी रश्म रिवाज धार्मिक विधिपूर्वक चितोड़ मे की गयी । राजकुमारी पद्मिनी का जन्म सन 1285 ई में और विवाह सन 1300 ई में हुआ था ।<br />
भाटी और मेवाडी एक-दूसरे से अनजान नहीं थे, प्राचीनकाल से इनके आपस में वैवाहिक सम्बन्थ होते आए थे । रावल सिद्ध देवराज का एक विवाह राव सुरुँजमल गहलोत की राजकुमारी सरुंजकैवर रावल मुंधजी का विवाह अड़सीजी की राजकुमारी रामकंवर से रावल विजयराव लांझा जी का विवाह रावल करन समसिजियोत की राजकुमारी शिवकवर से, रावल शालिवाहन का रावल जयसिंह की राजकुमारी राजकंवर से हुआ था । मेवाड़ के प्रथम राणा राहुल, पूगल की पाहू भाटी राजकुमारी रणकदेवी के पुत्र थे । राव रिड़मल राठौड़ का एक विवाह बीकमपुर के भाटियों के यहाँ हुआ था और उनकी बहन हँसा बाई चितौड़ के राणा लाखा को ब्याही थी, जिनके पुत्र राणा मोकल थे । इस प्रकार भाटियों और मेवाडीयों के पीडी दर-पीडी आपस में वैवाहिक आदानप्रदान होते आये थे । पत्नी के चुनाव का मुख्य आधार उसके गुणु, सुन्दरता और खानदान होते थे, प्रमुख शासकीय जातियों के लिए वधू के पिता की समृद्धि गौण होती थी । जैसलमेर के भाटियों से मेवाड़ के वैवाहिक सम्बन्थ बाद की शताब्दियों में भी यथावत वने रहे ।<br />
<br />
राजकुमार रतनसिंह पद्मिनी जैसी उत्कृष्ट सुन्दरी के रूप में पाकर निहाल हो गए ।उन्होंने अपने शुभनक्षत्रों को इसके लिए बार-बार धन्यवाद दिया । किन्तु उनका अमृतचुल्य सुख अल्पावधि का रहा । जिस दूरदर्शिता से पूनपालजी ने पुग्ल के मरुदेश की अमूल्य धरोहर को अलाउद्दीन खिलजी के गुप्तचरों व भेदियों की तीखी निगाहों से बचाकर मेवाड़ व चितौड़ की अभेद्य सुरक्षा प्रदान करनी चाही थी, उनकी यह कामना पूर्ण नहीं हुई । चितौड़ में सुलतान खिलजी के शिविर के आस पास तुच्छ पुरस्कारों के लिए मंडराते हुए मेवाडी भृत्यों ने रानी पद्मिनी के अदम्य रूप लावण्य की प्रशंसा उनके सामने का डाली । बस विनाश हो चुका । जिस नियति की आशंका पूनपालजी को चितौड़ से तीन सौ मील दूर पगल में थी ।उसी नियति के खेल ने पद्मिनी को चितौड़ में रंग दिखाया । वह अट्ठारह वर्षों की नवयौवना चितौड़ के गढ में सन् 1303 ई. में अग्नि के बलि चढ़ गई । कहाँ मरुदेश के रेतीले शुष्क वातावरण में पली पोषी उचरखल पद्मिनी का भाग्य उसे "खींचकर अरावली की धाटियों में ले गया, जहाँ वह रक्त…रंजित संघर्ष का कारण बनकर स्वाह हो ।गई और राजपूतों व मेवाड़ के इतिहास में पूजनीय बनकर अमर हो गई ।<br />
<br />
भाटियों को गर्व है कि पूगल की माटी बेटी रानी पद्मिनी भटियाणी ने जीवित रहने के लिए भाटियों और गहलोतों के आत्म सम्मान व स्वाभिमान से समझौता किए बिना हजारों क्षत्राणियों वृद्धा व युवा, का नेतृत्व करके उन्हें आत्मदाह का मर्यादा का मार्ग बताया । कहते हैं कि जौहर पद्मिनी ने अपने मामा गोरा और ममेरे भाई बादल से विचार विमर्श किया था । दोनों ने मर्यादानुसार सर्वोच्च बलिदान का मार्ग चुना एक राख बन गई, दूसरों का रक्त धरती माँ की माटी ने बीज सुरक्षित रखने के लिए सोख लिया। जितना पूगल की पद्मिनी के रूप-लावण्य, साहस व् बलिदान ने भारतीय वाड्मय को प्रभावित किया है उतना अन्य किसी ने नहीं क्रिया । क्योकिं पद्मिनी का सौन्द्रर्यं साधारण संग्राहक की सोच-शक्ति से परे था इसलिए तथाकथित विद्वानो ने बिना सोचे-समझे, रुके, इसकी वंश-परम्परा को कहीं भी किसी के यहाँ, टाँककर एक गौरवमय इतिहास की इतिश्री कर दी । उनके लिए पूगल इतना समीप का साधारण पडोसी था कि वह पद्मिनी जैसी असाधारण रानी की जन्मन्यूमि हो ही नहीं सकती थी।आज्ञान, ईष्यों, जनश्रुति आदि कारणों से बाध्य होकर विद्वानों और अज्ञानियों ने पद्मिनी को ऐसी दूर जगह स्थापित करके संतोष किया ,जिसे किसी ने कभी देखा तक नहीं था, केवल उसकी स्तुति रामायण से सुनी थी ।<br />
<br />
यहाँ यह बताना सामयिक होगा कि रानी पद्मिनी से सौ साल पहले पूगल के ही पाहू घाटियों की बेटी रानी रणकदेवी मेवाड़ के प्रथम सिसोदिया राणा, राणा राहुप, की माता थीं ।<br />
<br />
पूगल क्षेत्र की सभी सुन्दर कुमारियों को ’पद्मिनी' नाम से सम्बोधित किया जाता था, उनका असली नाम चाहै कुछ और ही होता था । 'पद्मिनी जातिवाचक संज्ञा थी, न की<br />
व्यक्तिबाचक ।<br />
<br />
मंडोर के बाउक प्रतिहार शासक की भटियाणी माता को सम्मान से 'पद्मिनी' कहते थे,उनका असली नाम पद्मिनी नहीं था ।<br />
<br />
जय क्षात्र धर्म की<br />
सन्दर्भ ग्रन्थ-गजनी से जेसलमेर<br />
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-74326256570547386082017-05-07T08:01:00.006-07:002017-10-01T02:08:00.675-07:00उतर भड़ किवाड़ भाटी क्यों कहा जाता है जानिए भाटीओं को और विजयराज लांझा राहड़,मांगलिया,हटा,भींया भाटीयों की साखाओं का प्रादुर्भाव <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सन 841 ई. में अपने पितामह राव् तणुजी की पराजय और मृत्यु के पश्चात् घाटियों के राज्य के संस्थापक मूलपुरुष रावल सिद्ध देवराज राज्यविहीन हो गए थे । अपने 121 वर्षों के लम्बे शासनकाल का उन्होंने आनन्द से उपभोग लिया, बहुत विख्यात हुए और समृद्ध रहे । उनके उत्तराधिकारियों, रावल मुंधजी एवं दुसाजी के भाग्योदय की प्रधानता अगली तीन शताब्दीओ तक बनी रही । रावल विजयराव लांझा के काल में यह चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई । इसके पश्चात 1152 ई. में इनके पुत्र युवा रावल भोजदेव का युद्ध के मैदान में प्राणोत्सर्ग होने के<br />
साथ भाटियों के यशस्वी और शौर्यपूर्ण इतिहास में थोडा विराम लग गया ।<br />
<br />
रावल विजयराव लांझा के निम्नलिखित शासक समकालीन थे …-<br />
<br />
113. रावल विजयराव लांझा लुद्र्वा ( सन1122-1147ई.)<br />
<br />
समकालीन :-<br />
अजमेर के चौहान शासक<br />
1.अजयराज(द्वितीय)1110-35 ई. ।<br />
2.अर्णोराज (अंनोजी) सन 1135-50 ई. ।<br />
<br />
इन्होंने गजनी के शासक सुलतान वहरामशाह<br />
के बिद्रोही मोहम्मद भालिन को शरण देकर,नागोर का परगना दिया । इसलिए सुलतान बहरामशाह ने अजमेर पर आक्रमण कर. दिया, किन्तु वह अनासागर के पास पराजित होकर शीघ्रता से वापस लौट गए ।<br />
<br />
अर्णोराज ने पल्लू हो कर सरस्वती धाटी पंजाब पर आक्रमण करके साम्राज्य की सीमाओं का पंजाब के बडे क्षेत्र में विस्तार किया ।<br />
<br />
' यहः गुजरात के सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के विरुद्ध युद्ध में विजयी रहे,परंतु बाद में गुजरात के कुमारपाल चालुक्य (सन 1143-73ई. ) से पराजित हो गए ।<br />
<br />
नाडोल के चौहान शासक :-<br />
1.रतनलाल सन 1119-32 ई.<br />
(2) इनके पश्चात सन् 1148 ई. तक ।<br />
रायपाल, सहजपाल, कटुदेव व जैतसी<br />
शासक बने ।<br />
<br />
मालवा के परमार शासक : यशोवर्मन ।<br />
<br />
आबू-किराडू के परमार शासक :<br />
विक्रमसिम्हा और सोमेश्वर<br />
<br />
गुजरात के शासक :<br />
11) सिद्धराज जयसिंह सोलंकी, सन<br />
1094.1143 ई., यह मूलराज चालुक्य<br />
से सातवें वंशज थे ।<br />
कुमारपाल चालुक्य, 1143-73 ई.<br />
गजनी के शासक :<br />
सन् 1115 से 1158 ई. तक सुलतान<br />
बहरामशाह गजनी के शासक रहे ,परन्तु सुल्तान मसूद ,मौदूद एवं इब्राहिमशाह के शासनकालों में शक्तिशाली बने स्लजुक तुर्क इन पर नियंत्रण रखते थे ,या यों कहें कि सुल्तान का ताज इन तुर्को के कारण सुरक्षित था ।<br />
113. रावल विजयराव लॉझा : यह वि.संवत 1179 (सन 1122 ई) में लुद्र्वा के शासक बने। इन्होंने वि. स. 1204 (सन् 1147 ई.) तक पचीस वर्ष शासन किया । इनके पांच रानियों, पॉच राजकुमार एवं दो राजकुमारियों, लाछाँ एवं लाँघ थी।<br />
<br />
1. युवराज भोजदेव". यह अपने पिता के पश्चात् रावल बने । इनकी माता अणहिलवाड़<br />
गुजरात के शासक सिद्धराज जयसिंह सोलंकी की राजकुमारी रानी सोलंकीणी थी ।<br />
<br />
2.राजकुमार राहडजी<br />
इनके कुमारों, नेतसी एवं केकती के वंशज राहड़ भाटी कहलाए<br />
इनके ज्येष्ठ पुत्र कुमार भोपत वर्तमान बीकानेर क्षेत्र की और जाकर बस गए थे और छोटे कुमार कर्ण के वंशज मुसलमान बन गए । उनके वंशज राहड़ भाटी मुसलमान ,सिंध प्रांत के खैरपुर में बस गए ।<br />
3. राजकुमार हट्टोजी, इनके वंशज हट्टा भाटी कहलाए ।<br />
<br />
4.राजकुमार मंगलजी, इनके वंशज मांगलिया भाटी कहलाए । यह 'थल' संभाग के चालीस गाँवों में रहते थे । इन्होंने यहीं शाहगढ के पास "कोट छाँरण' नाम का किला बनवाया । उन चालीस गाँवों में रहने वाले माँगलिया भाटी सामूहिक रूप से मुसलमान बन गए थे । अब इनकी पहचान मुसलमान फकीरों" के रूप में है ।<br />
<br />
5. राजकुमार भीम, इनके वंशज भीया भाटी कहलाते है ।<br />
<br />
एक पहुंचे हुए सिद्ध जोगी के आशीर्वाद से रावल बिजयराव लॉंझा को अतुल्य धनसम्पदा प्राप्त हो गई थी। इन्होंने वि.सं. 1195 (सन् 1138 ई.) में नढाजी भाट को पांच गाँव, भटनेर परगने में दो और देरावर परगने में तीन, दे कर उन्हें सोने की 'छडी और सुखपाल भेंट किए थे ।<br />
इन्होंने अन्य कवियों एवं भाटों को भी सात गॉव दिए । इससे स्पष्ट है कि उस समय के भाटी राज्य की सीमाएं उत्तर में भटनेर से और आगे तक थी और पश्चिम से कम से कम सतलज नदी तक ।<br />
<br />
धार के राजा तिलोकचन्द परमार के तीन राजकुमारियों" थी, जिनकी सगाई क्रमश: लुद्र्वा के राजकुमार विजयराव भाटी,अणहिलवाड़ पाटण के शासक सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के राजकुमार जयपाल और मेवाड़ के रावल विजयसिम्हा के साथ हुई । अपने पिता रावल दुसाजी के शासनकाल में युवराज बिजयराव बरात में सात सौ घुड़सवार लेकर धार गये हुए थे। वहां 1 छोटी सी झारी से कपूर मिले हुए जल को छिड़क रहे मेवाड के रावल से इनकी कहा सुनी हो गयी । इससे आहत राजकुमार बिज़यराव ने अपने सेवकों को आदेश दिए कि धार नगर और इसके आसपास के क्षेत्रों में उपलब्ध समस्त कपूर के भण्डार खरीद कर उसे नगर की सभी बावडियों एवं सहस्रलिग झील के जल में घोल दे, ताकि धार नगर की प्रजा लम्बे समय तक सुगन्थित जल पी सके और इसकी महकी सुगंध का आनंद ले सके । अपनी एक छोटी सी झारी से कपूर मिले हुए जल का<br />
छिड़काव करके दिखावा कर रहे मेवाड़ के रावल को भाटी राजकुमार द्वारा बावडियों एवं झील में संगृहित सम्पूर्ण जल में कपूर मिलाकर सुगन्धित किए जाने से बहुत नीचा देखना पहा । बहुमूल्य कपूर की खरीद के लिए राजकुमार को बहुत धन खर्च करना पड़ा था और बरात के प्रस्थान करके चले जाने के कई महिनों बाद तक, राजा के उपयोग योग्य सुगंधित जल का आनन्द, धार की प्रजा लेती रही । तब से धार की मिलनसार प्रजा उन्हें चाव से 'शौकीने या 'लाँझा' उपनाम, जिन्हें जीवन में अच्छी चीजों की चाहत रहती थी, कहकर स्नेह से सम्बोधित करने लगी और वह विजयराव लांझा कहलाये। ऐसे ही इनके एक पूर्वज 'चूडाला' उपनाम से विजयराव 'चूंड़ाला' कहलाते थे ।<br />
<br />
मेवाड़ के रावल का मानमर्दन करके धार से लुद्रबा लौटने पर विजयी राजकुमार ने वहां सहस्त्रलिंगजी का मंदिर बनवाया और पास में एक तालाब भी खुदवाया ।<br />
<br />
रावल बिजयराव लॉंझा का एक विवाह अणहिलवाडा पाटण के राजा सिद्धराज जयसिंह सोलंकी की पुत्री और जयपाल, जिनका कुछ समय पहले रावल के साथ-साथ धार में विवाह हुआ था कि बहन के साथ हुआ । '<br />
<br />
रावल बिजयराव लाँझा के शासनकाल में पश्चिम में सिन्ध प्रदेश और उत्तर में पंजाब प्रान्त के मुसलमान आक्रांता अपनी शक्ति में बढोतरी करके अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा और दूरस्थ बलख बोखारा व समरकंद से धमकियों भरे हावभाव दिखा रहे थे । उनका मुख्य उद्देश्य भारत की संपदा लूटना, इसके प्राचीन रीतिरिवाजों, जीवन पद्धति व संस्कृति को नष्ट करके राजपूत राज्यों को अस्थिर करना था । उनके निक्टत्तम पडोसी, उत्तरी और पश्चिमी भारत, को नष्ट करने पर उनकी निगाहे टिकी हुई थी । आक्रांताओं की अमानुषिक निष्ठरता के प्रति जनता सामान्यता सचेत थी ।इसलिये उत्तर-पश्चिम भारत में अशान्ति और सतत असुरक्षा के भय की भावना उनमें व्याप्त थी ।उन्ही दिनों रावल विजयराज लॉंझा आबू की परमार राजकुमारी से विवाह करने आबू गए हुए थे ।<br />
विवाहोत्सव मे गहलोतों, परमारों, सोलकियों (चालुक्यों) आदि प्रमुख राजपूत जातियों के उपस्थित शासकों सामंतों ने सहमत होकर रावल विजयराव लॉंझा को 'उत्तर भट्ट किवाड़ भाटी' उतर के द्वार के रक्षक की उच्च उपाधि से सुशोभित करने की घोषणा की । उनका अभिप्राय रावल विजयराज लांझा को गुजरात के चालुक्यों मेवाड में गहलोतों और मालवा के परमारों के राज्यों की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली बन रहे उतर के मुसलमानों सुल्तानों के आक्रमणों के विरुद्ध अवरोधक का उत्तरदायित्व सौंपने का था । यहः उतरी सुल्तान ,सिंध के गजनवी शाशक ,घोर का हुसैन और नागौर का मोहमद भालिम थे ।<br />
<br />
इस उपाधि की पवित्रता को सामाजिक व जातीय महत्व प्रदान करने के अभिप्राय से रावल विजयराव लांझा की सास, आबू की रानी, ने वैवाहिक रीति-रिवाजों से पहले प्रांगण में प्रदेश करने पर रावल के ललाट पर पारंपरिक दही से तिलक करते समय इस उपाधि को उत्साह से दोहराया,जिसके उत्तर में रावल ने उन्हें आश्वस्त किया कि यह और उनके वंशज उन्हें सौंपे गए उत्तरदायित्व 'को प्राणों का उत्सर्ग करके भी सदैव निभाएंगे । उस शुभ अवसर से "उत्तर भड़ किवाड़ भाटी’ उनका और उनके भाटी वंशजों का सतत विरुद बन गया ।<br />
<br />
माँगीलाल मयंक ने "जैसलमेर राज्य का इतिहास' में भी लिखा है कि रावल बिजयराव का एक विवाह आयू की परमार राजकुमारी के साथ हुआ था । उनकी सास ने उनके ललाट पर दही से तिलक करते 'समय उनसे 'उत्तर दिसि भड़ किवाड़ हुई' का प्रण लेने के लिए कहा । इसके प्रत्युत्तर में रावल ने उन्हें विश्वास दिलाया वि; वह मुसलमानों के आक्रमणों के विरुद्ध उनके उत्तरी सीमांत की रक्षा करेगे । डा. दशरथ शर्मा' के अनुसार, अपनी इस उपाधि की सत्यता को सिद्ध करने के लिए रावल बिजयराव ने गजनी के अमीर खुशरोसाह के विरुद्ध युद्ध में विग्रहराज चौहान (चतुर्थ) की सहायता की । यह निष्कर्ष सही नहीं लगता, क्योंकि रावल बिजयराव का देहान्त सन् 1147 ई. में हो गया वा, जब कि विग्रहराज चौहान (चतुर्थ) बाद में सन् 1150 ही में राजगद्दी पर बैठे थे । यह ज्यादा सम्भव था कि अरनोराज़ चौहान, जिन्होंने पल्लू और सरस्वती घाटी हो कर पंजाब पर आक्रमण किया था, रावल बिजयराव के उत्तरी राज्य के इन्हीं भागों से होकर जागे बढ़ने के लिए उनसे सहमति मांगने के साथ सक्रिय सहायता भी मांग ली हो । किन्तु ऐसी एकमात्र घटना भाटियों द्वारा मुसलमानों के आक्रमणों के विरुद्ध निरन्तर किए जा रहे उत्सर्गों के साथ न्याय नहीं करती । वह अरबों के सिन्ध-मुलतान पर आक्रमणों के समय से महमूद गजनी तक के विरुद्ध लोहा लेते रहे थे और बाद में मोहम्मद गोरी ,मंगोल, तैमूर व अन्यौ के विरुद्ध अपनी क्षमतानुसार लड़ते रहे । उन्होंने 'उत्तर भट्ट किवाड़ भाटी' के अपने विश्वास और प्रण को कभी डिगने नहीं दिया ।<br />
<br />
रावल बिजयराव लॉंझा की दोनों राजकुमारियों, लाछाँ और लांझ में जन्म से प्राकृतिक दिव्यता थी । वह रात्रि के समय लुद्र्वा से दूर अपने जैसी अन्य दिव्यात्माओ के साथ धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए एकत्रित होती थीं । उनके इस प्रकार के नित्य रात्रि प्रवास के प्रति उनके भाई युवराज भोजदेव को कुछ स्वाभाविक संदेह होने से वह गुप्तरूप से उनके पीछे जाकर देखना चाहते थे कि वह रात्रि में केसा अनुष्ठान करने जाती थी । एक रात्रि में उन दोनों ने अपने भाई को उनका पीछा करते हुए देख लिया ।क्रुद्ध होकर उन्होंने अपने भाई को श्राप दिया कि उनके पश्चात् उनके स्वयं के वंश का लोप हो जाएगा ।इतना कहकर वह दोनों अनन्त अंतरिक्ष में कभी नहीं लौटने के लिए उडान भर गई ।<br />
<br />
अपनी नामराशि के पूर्वज राव बिजयराव चूड़ाला की भांति रावल बिजयराव लॉंझा भी एक शक्तिशाली शासक थे । ख्यातों में भी ऐसे नाम के दो शासक का वर्णन है । एक से भट्टिका संवत् 501 (व्रि.सं. 1181 . सन् 1124 ई) का एक शिलालेख) प्राप्त हआ है जिसमें शासक का विरुद है 'परम भट्ठारक महाराजाधिराज परमेश्वर बिजयराव देवेन प्रदत्त तनियत महमादृय श्री हरिप्रसाद सूत्रधार श्रीधर । ' रावल विजयराव लॉंझा द्वारा इस प्रकार का उच्च श्रेणी का उत्कृष्ट विरुद अपनाने का कारण स्पष्ट नहीं है । '<br />
<br />
इनसे पहले सांभर के सिंहराज चौहान (सन् 944-71 ई ) ने इस प्रकार का विरुद अपनाया था : 'परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' है कुछ समय पश्चात् पृथ्वीराज चौहान (प्रथम) (सन 1090- 1110 ई.) ने सन् 1105 ई में खोहड़ विजय के उपलक्ष्य में ऐसा ही विरुद धारण किया था । रावल बिजयराव लाँझा के पश्चात् नाडौल के शासक केलण चौहान (सन् 1163-92 ) ने अपने आप को गुजरात के शासक भीमदेव चालुक्य (द्वितीय) के आधिपत्य से स्वतंत्र घोषित करके 'महाराजाधिराज परमेश्वर' का विरुद अपनाया था । जालोर के छाछगदेव चौहान (सन् 1257-82 इं.) ने भी "महामंडलेश्वर राजा, महाराजाधिराज महाराज' का समराजियक विरुद्ध ग्रहण किया था ।<br />
<br />
रावल बिज़यराव लॉंझा ने जैसल और उनके सहयोगी असन्तुष्ट सामंतों को चालुक्यों की सहायता से पराजित करने के पश्चात् शक्तिशाली होकर पंजाब व उत्तर-पश्चिमी भारत से आक्रमण करने वाले मुसलमान आक्रांताओं को परास्त करके उपरोक्त उपाधि ग्रहण की ।<br />
<br />
उनके काल के शिलालेखों में केवल अकेले रावल का नाम दिया गया है । उनके साथ पुर्वजों या राजकुमारों के नाम नहीं दिए गए हैं इसलिए यह अनुमान लगाना कठिन है कि शिलालेख में इंगित बिजयराव कौंनसे थे । श्री दशरथ शर्मा का निष्कर्ष है कि यह रावल बिज़यराव् लांंझा होने चाहिए ।<br />
<br />
रावल बिजयराव लोंझा एक यशस्वी शासक थे अजयराज़ चौहान (द्वितीया )एंव अरणीराज, शाकम्भरी (अजमेर), विजयचन्द्र और गोविन्द-, कन्नौज. परमारदीन मौहबा, पाटन सिद्धराज जयसिंह एवं कुमारपाल उनके समकालीन शासक थे । इन शक्तिशाली एवं यशस्वी<br />
शासकों के साथ उनके पारिवारिक सम्बन्धों का उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु इनकी उपाधि से स्वतः प्रमाणित होता है कि कन्नौज़, पाटन, महोबा, सांभर, अजमेर के शासकों से इनकी प्रतिज्ञा, गौरव प्रभाव कम नहीं था । वह 'शक्ति' के उपासक थे ।<br />
<br />
इनके पिता के रहते हुए राजकुमार का विवाह अणहिलवाड़ पाटन के राजा जयसिंह सोलंकी<br />
(चालुक्य) की राजकुमारी के साथ हो गया था, इसलिए उनके देहान्त पर चालूक्यों की सहायता से स्वय युव्राज जैसल के स्थान पर अन्यायपूर्ण तरीके से लुद्र्वा के शासक वन गए और इन्होंनै चालुक्यों के आधिपत्य से अपने राज्य को मुक्त कराया । तणोट और उसके पश्चिम के क्षेत्रो पर जैसल का अधिकार रहा । यह क्षेत्र उनके पिता ने उन्हें निर्वाह के लिए दे रखा था ।<br />
<br />
गुजरात के शासक कुमारपाल चालुक्य (सन 1142-73 ई) ने अपने अधीनस्थ किराडु के शासक सोमेश्वर परमार (सन 1141-61ई) को निर्देश दिए की वह जैसल के विरुद्ध रावल बिजयराव की सहायता करे । वि.स 1218 (सन 1161 ई.) के किराडू शिलालेख से ज्ञात होता है कि सोमेश्वर परमार ने तनोट ,नोसर (नवासर),उन्छ पर आक्रमण करके असंतुष्ट विद्रोही प्रमुख जज्जक (जैसल) को पराजित किया। शिलालेख ने वर्णित यह तथ्य महत्वपूर्ण है की पराजित प्रमुख के पास तणोट और इसके पश्चिम का क्षेत्र इस शर्त पर रहने दिया गया कि वह शक्तिशाली चालुक्यों के जंवाई ,रावल बीजयराव के साथ छेड़छाड़ नहीं करेंगे । तणोट पर आक्रमण करने के लिए सोमेश्वर परमार ने अंकल, लुद्रवा, रामगढ़ का मार्ग लिया था । अंकल यह स्थान है जहा से लुद्गवा से किरांडु, बाड़मेर और गुजरात की और जाने वाले मार्ग निकलते हैं ।<br />
<br />
<br />
मेरे विचार में उपरोक्त घटना रावल जैसल के शासनकाल की है । उन्होंने चालुक्यों के भानजे भोजदेव को परास्त करके मारकर लुद्रवा पर अधिकार कर लिया था, परन्तु चालुक्यों जिन्होंने उन्हें निर्वासित का विजयराव को लुद्रवा का शासक बनाने में अहम भूमिका निभाई हैं, के आधिपत्य को स्वीकार नहीं क्रिया । इसलिए रावल जैसल, जिनका शक्ति केन्द्र अभी तणोट ओर उसके पश्चिम में था और अधिकांश सेना व समर्थक तणोट से पश्चिम की सिन्ध नदी की घाटी में थे, को अधीन करने के लिए कुमारपाल चालुक्य ने सोमेश्वर परमार को तणोट पर आक्रमण करने के निर्देश दिए । इसके पश्चात् हुई संधि के फलस्वरूप रावल जैसल ने चालुक्यों की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली और बदले में उन्होंने उन्हें लुद्र्वा राज्य एवं तणोट व उसके पश्चिम के क्षेत्रों पर शासन करने<br />
की मान्यता दी । किराडू के शिलालेख में केवल यह उल्लेख है कि सोमेश्वर परमार ने विद्रोही प्रमुख जज्जक को परास्त कीया, परन्तु यह कहीं उल्लेख नहीं है कि वह रावल विजयराव. की सहायतार्थ गए थे। क्यों कोई संदेह नहीं कि पूर्वं में उनके साथ लिए गए अन्याय के कारण रावल जैसल चालुक्यों के विरुद्ध विद्रोही अवश्य थे और लुद्र्वा के शासक बनने पर उन्होंने उनकी प्रभुता को मान्यता नही दी,जिसके कारण चालुक्यों ने बल प्रयोग करके उपरोक्त संधि करने के लिए रावल जैसल को बाध्य किया । रावल विजयराव लांझा अपनी दानशीलता शौर्य एवं प्रजा की भलाई के लिए करवाये गये निर्माण कार्यों के लिए प्रसिद्ध थे ।<br />
<br />
दोहा: यह सह हाले पांखती,भूप अनेड़ माल ।<br />
आयो धणी बन्धावसि,बिजड़ासर री पाल।।<br />
<br />
दोहा: तैसुं वडे न सूमरा ,लांझो बिजेराव ।<br />
मांगण ऊपर हथडा ,बेरी ऊपर घाव ।।<br />
<br />
जय श्री कृष्ण<br />
सन्दर्भ ग्रन्थ :-गजनी से जेसलमेर हरिसिंह भाटी<br />
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-73843610973221720182017-05-03T19:34:00.000-07:002017-10-01T02:08:00.672-07:00श्री कृष्ण से राजा शालिवाहन तक यदुवंशिओ की वंशावली भाटी, जाडेजा,जादोन, सरवैया,चूड़ासमा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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श्रीकृष्ण से आगे यदुवंशियों की उपशाखाओं की वंशावली<br />
<br />
46 राजा श्रीकृष्ण :<br />
<br />
(क) रानी रुक्मणी से इनके पुत्र राजकुमार<br />
प्रधुमन गृहयुद्ध में इनके जीवनकाल में प्रभास में मारे गए ये, यह राजा नहीं बने ।<br />
राजकुमार प्रधुमन के पुत्र थे -<br />
<br />
(1) राजकुमार अनिरुद्ध :- यह अपने<br />
पिता के साथ प्रभास में मारे गए<br />
थे । राजा नहीं वने । इनके कोई<br />
पुत्र नहीं था । '<br />
<br />
(2) राजकुमार वृजनाभ : यह अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् मथुरा से द्वारिका जाते हुए मार्ग में मर गए ।<br />
यह भी राजा नहीं बने। इनके -<br />
वंशज, करौली और बोघोर के<br />
'जादव' (जादोन) हैं ।<br />
<br />
(3) राजकुमार खीर : इनके वंशज सौराष्ट्र में हिन्दू जाड़ेचा" सिन्ध प्रदेश में "मुसलमान जाड़ेचा’ हैं । इन्हें<br />
'जाडेचा जाम' भी कहतेहैं ।<br />
<br />
(ख) राजकुमार साम्ब : श्रीकृष्ण की रानी सत्यभामा से पुत्र । साम्ब के वंशज सिन्ध हिन्दू और मुसलमान<br />
प्रदेश के 'सम्मा या समाएचा कहलाए है ।<br />
इन्हें सिन्ध प्रदेश में 'मुसलमान जाम' और<br />
सौराष्ट्र में "हिन्दू जाम' कहते हैं ।<br />
<br />
इनके दूसरे वंशज हैं गुजरात' सौराष्ट्र के"चूडासिया यादव व चूडासम्मा ।<br />
<br />
राजा व्रजनाभ के पुत्र वज्रनाभ का राज्याभिषेक<br />
मधुरा में किया गया । इनके पाँच पुत्र थे, राजकुमार<br />
,, प्रतिबाहु' बाहुबल, प्रतिवसु, उग्रसेन और सूरसेंन।<br />
2,राजा प्रतिबन्दु (प्रथम) . इनकी कोई राजधानी नहीँ<br />
रहीं । इनके कोई पुत्र जीवित नहीं रहने से इनके छोटे<br />
भाई उग्रसेन इनके गोद आकर राजा बने ।<br />
<br />
3. राजा उग्रसेन :-इनकी भी स्थाई राजधानी नहीं थी<br />
इनके कोई पुत्र जीवित नहीं रहने से छोटे भाई सूरसेन इनके गोद जाकर राजा बने ।<br />
<br />
4- राजा सूरसेन: इनकी भी कोई राजधानी नहीं थी ।<br />
इनके कोई पुत्र जीवित नहीं रहने से इनके बडे भाई<br />
बाहुबल के पुत्र नाभबाहु इनके गोद आकर राजा वने ।<br />
<br />
5. राजा नाभबाहु : इनके चार राजकुमार थे :<br />
<br />
1. राजकुमार सुबाहु : यह अपने पिता के<br />
पश्चात् राजा वने ।<br />
<br />
(2) कुमार चूड्डासम्मा : इनके वंशज सौराष्ट्र के<br />
"चूड़ासमा, कहलाए।<br />
<br />
3. कुमार सरवैया : इनके वंशज जूनागढ<br />
(सौराष्ट्र) के 'सरवैया है<br />
<br />
कुमार जादव : इनके वंशज गिरनार<br />
(सौराष्ट) के 'जादव' है ।<br />
<br />
पेशावर 6. राजा सुबाहु : पलायन के बाद यदुवंशियों की पहली<br />
नई राजधानी पेशावर थी । इनके चार कुमार थे :<br />
<br />
(1) रानी ज़सलेखा तक्षक के पुत्र राजकुमार<br />
राजसेन यह जपने पिता के बाद से<br />
शासक वने ।<br />
<br />
(11) कुमार सहदेव ।<br />
<br />
111 कुमार खीर : इनके वंशज ' चूड़ासमा' और गिरनार के 'सरवैया कहलाये । इन्हें सामूहिक रुप से सौराष्ट्र मै जादम भोमिया कहते है ।<br />
<br />
4.कुमार यदुभाण या जदभांण:- डीग, करौली ,बेहेड़ा में इन्हें जदभाण यादव या जादव (जादोन) कहते है । यथार्थ में चूड़ासिया, चूड़ासमा, सरवैया,जादव, सभी राजा नाभबाहु के वंशज है ।आगे पीछे किसी अन्य के वंशज नही है ।<br />
7.पेशावर:-राजा राजसेन, पेशावर में राजां बने ।<br />
<br />
पेशावर, 8. राजा गजबाहु पेशावर से राजा वने । इन्होंने<br />
आखातीज, रविवार, युधिष्ठिर संवत् 308 के दिन<br />
गजनी की स्थापना की और अपनी राजधानी<br />
पेशावर से आगे गजनी ले गए ।<br />
<br />
गजनी, 9. राजा प्रतिबाहु : यह गजनी में राजा बने, परन्तु बाद गज़नी छोड़कर राजधानी वापस पेशावर ले जानी<br />
पडी ।<br />
<br />
पेशावर 10. राजा दत्तबाहु : पेशावर में राजा वने ।<br />
<br />
पेशावर 1 1. राजा बाहुबल : पेशावर में राजा बने ।<br />
<br />
पेशावर 12. राजा सुभैव (प्रथम) : पेशावर में राजा बने ।<br />
<br />
पेशावर 13. राजा देवरथ (प्रथम) : पेशावर में राजा बने ।<br />
इनके युवराज उगत्तसेन का देहान्त इनसे पहले हो<br />
गया था, इसलिए इनके पश्चात् इनके पौत्र कुमार<br />
पूथ्वीसहाय राजा वने ।<br />
<br />
पेशावर 14. राजा पृथ्वीसहाय पेशावर में राजा बने ।<br />
<br />
पेशावर 15. राजा महीपाल : पेशावर में राजा वने ।<br />
<br />
पेशावर, 16. राजा मर्यादपति : पेशावर में राजा बने । बाद में राजधानी पेशावर से गजनी ले गए ।<br />
<br />
गजनी 17. राजा स्वायतसेन (प्रथम) : गजनी में राजा बने ।<br />
गज़नी 18. राजा सूरसेन (द्वितीय) : गजनी में राजा बने ।<br />
इनके दूसरे पुत्र मंडमराव के वंशज देवपाल के<br />
'मेवाती' है । अब यह सब मुसलमान हैं ।<br />
<br />
गजनी 19. राजा उदयपसेन : गजनी में राजा बने। इनके दूसरे पुत्र पालसेन के वंशज मदनपाल और विजयपाल के<br />
भरतपुर के "सिनसिनवार जाट' है ।<br />
इन जाटो को मेवात में 'उदयक्ररण जाट' कहते हैं ।<br />
<br />
गजनी 20: गजनी में राजा वने, परन्तु आधा राज्य<br />
हार गए! इनके तीसरे पुत्र इन्द्रजीत के वंशजो ने भारत के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र पर शासन किया ।<br />
गजनी 21. राजा कनकसेन (प्रथम) : गजनी में राजा बने ।<br />
गजनी 22. राजा सुगमसेन गजनी में राजा वने ।<br />
<br />
गजनी, 23. राजा मगवनजीत : गजनी में राजा बने, परन्तु बाद राजधानी गजनी से पीछे मथुरा ले गए ।<br />
<br />
मधुरा 24. राजा कुरुतसेन : मथुरा में राजा बने ।<br />
<br />
मथुरा 25. राजा भगबानसेन : मथुरा में राजा बने ।<br />
<br />
मथुरा 26. राजा विदुरथ : मथुरा में राजा बने ।<br />
<br />
मधुरा, 27. राजा विक्रमसेन : मथुरा में राजा बने। गजनी पराजित होकर अपनी राजधानी मधुरा से आगे लाहौर<br />
ले गए ।<br />
<br />
लाहौर 28. राजा कुमुदसेन : लाहौर में राजा वने ।<br />
<br />
लाहौर 29. राजा ब्रजपाल : लाहोर के राजा बने । राजा कुमुदसेन के युवराज राजसेन का देहान्त उनसे पहले हो जाने के कारण उनके पौत्र कुमार बृजपाल उनके बाद से राजा बने ।<br />
<br />
लाहौर 30. राजा वज्रजीत ८ लाहौर में राजा बने। यह राजा ब्रजपाल के तीसरे पुत्र थे ।<br />
<br />
लाहोर 31. राजा मूर्तिपाल लाहोर में राजा बने। यह राजा<br />
वज्रजीत के पाँचवें पुत्र थे ।<br />
<br />
लाहोर 32. राजा रुक्मसेंन लाहोर में राजा वने ।<br />
<br />
लाहौर 33. राजा कनकसेन (द्वितीय) लाहोर के राजा वने ।<br />
लाहोर, 34. राजा उतरासेन :- लाहोर में राजा वने। गजनी पर अधिकार करके अपनी राजधानी लाहोर से जागे<br />
गजनी ले गए ।<br />
<br />
गजनी 35. राजा स्वायत्तसेन (द्वितीय) : गजनी में राजा बने ।<br />
<br />
गजनी 36. राजा प्रतसेन (प्रथम) गजनी में राजा बने।<br />
<br />
गजनी 37. राजा शमसैन या रामसेन : गजनी में राजा बने ।<br />
गजनी 38. राजा सहदेव : गजनी में राजा बने ।<br />
<br />
गजनी 39. राजा देवसवाय :-गजनी में राजा बने, परन्तु बाद मे राजधानी गजनी से पीछे मथुरा ले गए ।<br />
<br />
मथुरा:- 41 ,राजा सूर्यदेव अपने पिता राजा शंकरदेव के जीवनकाल में ही मथुरा में राजा बने ।<br />
मथुरा 42. राजा प्रतापसेन ८ मथुरा में राजा बने ।<br />
<br />
मथुरा, 43. राजा अवनिजीत : मथुरा में राजा बने । बाद<br />
लाहौर अपनी राजधानी मथुरा से आगे लाहौर ले गए ।<br />
<br />
लाहौर' 44. राजा भीमसेन (प्रथम) लाहौर से राजा वने । बाद गज़नी जीतकर अपनी राजधानी आगे व्हा<br />
लाहोर ले गए, किन्तु बाद में गजनी में पराजित होने पर बापस पीछे लाहौर लौट जाए ।<br />
<br />
लाहोर 45- राजा चन्द्रसेन (प्रथम) लाहोर म ैंरांजा बने! इन्होंने गजनी पर पुन अधिकार कर लिया ।<br />
<br />
लाहौर 46 राजा जगस्वात्त : लाहौर में राजा बने । यह राजा चन्द्रसेन के तीसरे राजकुमार थे । इनसे की युवराज<br />
भोजराज और राजकुमार करण ने गजनी के युद्ध से<br />
' वीरगति पाई ।<br />
<br />
लाहौर 47. राजा बैण ८ लाहोर में राजा बने ।<br />
<br />
लाहौर, 48. राजा देवजस लाहोर में राजा बने, बाद से अपनी राजधानी लाहौर से पीछे मथुरा ले गए । इनके कोई पुत्र नहीं होने से इन्होंने राजा जगस्वात के पुत्र<br />
काकुलदेव के पलते, मूलराज क्रो गोद लिया ।<br />
<br />
मथुरा 49. राजा मूलराज (प्रथम) : मथुरा में राजा बने ।<br />
<br />
मथुरा 50. राजा रायदेव मथुरा में राजा बने ।<br />
<br />
मथुरा 51. राजा सतूराव इनके कोई पुत्र नहीं होने से इन्होंने काकुलदेव के परिवार से देवनन्द को गोद लिया ।<br />
<br />
मथुरा, 52. राजा देवनन्द : मधुरा से राजा वने, बाद में अपनी राजधानी मथुरा से जागे लाहौर ले गए ।<br />
<br />
लाहोर, 53. राजा जगभूप लाहोर में राजा बने । वाद से अपनी राजधानी बापस लाहौर से पीछे मथुरा ले गए ।<br />
<br />
मथुरा 54. राजा बुद्ध मथुरा में राजा बने ।<br />
<br />
मथुरा 55. राजा रोहिताश : मथुरा में राजा बने ।<br />
<br />
मथुरा 56. राजा प्रत्तसेन (द्वितीय) : मथुरा में राजा बने ।<br />
<br />
मथुरा 57. राजा मोहतनजी : मथुरा में राजा बने ।<br />
<br />
मथूुरा 58. राजा वसुदेव मथुरा से राजा बने ।<br />
<br />
मथूरा 59. राजा अलभाण मथूुरा में राजा वने ।<br />
<br />
मथुरा 60. राजा वीरसेन मथुरा से राजा बने ।<br />
<br />
मथुरा 61. राजा सुभेव (द्वितीय) : मधुरा से राजा बने ।<br />
मथुरा 62. राजा सूरतसेन मथुरा से राजा बने ।<br />
<br />
लाहौर 63. राजा गुणपयोद ८ इनका राज्याभिषेक मधुरा के बजाय लाहोर में कीया गया ।<br />
<br />
लाहोर 64. राजा जगमाल लाहौर में राजा वने । इनके सबसे छोटे पुत्र खड़गसी जाट कहलाये ।<br />
<br />
लाहोर 65. राजा भीमसेन (द्वितीय) : लाहौर से राजा बने ।<br />
<br />
लाहोर 66. राजा त्तेजसी (तेजपाल) : लाहौर ने राजा वने । यह राजा भीमसेन के पौत्र थे , इनके पिता युवराज<br />
अमरसी का देहान्त राजा तेज़सी से पहले हो गया<br />
था ।<br />
<br />
लाहोर 67. राजा भूपतसेन : लाहौर में राजा वने ।<br />
<br />
लाहोर 68. राजा रसानृप लाहौर में राजा बने । इनके ग्यारहवें एवं सबसे छोटे पुत्र कुमार रतनसी ने गजनी पर<br />
के अधिकार करके यहीं अपना पृथक राज्य स्थापित<br />
कर लिया ।<br />
<br />
लाहौर 69. राजा चन्द्रसेन (द्वितीय) : लाहोर से राजा वने ।<br />
<br />
लाहौर 70. राजा मूलमण लाहौर में राजा बने ।<br />
लाहौर 71. राजा लालमण : लाहौर से राजा बने ।<br />
लाहोर 72. राजा सारंगदेव : लाहौर में राजा बने ।<br />
<br />
लाहौर 73. सजा देवरथ(द्वितीय) : लाहोर से राजा वने ।<br />
<br />
लाहोर 74. राजा जसपत : लाहौर में राजा बने।<br />
लाहोर 75. राजा जगपत : लाहौर से राजा वने ।<br />
<br />
लाहोर, 76. राजा हैंसपत : लाहोर में राजा वने। लाहौर मेँ<br />
पराजित होकर इन्होंने वि. सं. 02, कार्तिक सुदी दूज' गुरुवार, (सन् 055 ई-पू) से हिसार बसाया और नई राजधानी स्थापित की । इनका देहान्त वि.स- 046 (011 है पू) से हिसार से हुआ ।<br />
<br />
हिसार 77. राजा दिवाकर : बि. सं. 046 से 079 (011<br />
ई पू से ०23 ई) हिसार में राजा वने ।<br />
<br />
हिसार 78. राजा भारमल वि. सं. 279 से 095 (सन 0323 से 039 ई. )हिसार में राजा वने ।<br />
<br />
हिसार 79. राजा खुमाण वि. सं. 095 से 126 (सन 039 से 070 ई) हिसार ने राजा वने ।<br />
हिसार 80. राजा अर्जुनसेन : वि. सं. . 126 से 152 ( सन 070-096)हिसार में राजा बने ।<br />
<br />
हिसार 81. राजा जुजसेन : वि. सं, 152 से 170 (सन 096 से 113 ई.), हिसार में राजा बने ।<br />
<br />
हिसार 82. राजा गेनलाम : वि. सं. 170 से 198 (सन<br />
113 से 142 ई.) है हिसार में राजा बने ।<br />
<br />
हिसार 83. राजा पद्यरिझशेन : वि सं. 198 से 210 (सन<br />
142 से 154 ई) हिसार में राजा बने, परन्तु साधारणतया यह अपने सम्राट की राजधानी पेशावर में उनकी सेवा में दरबार में रहते थे ।<br />
<br />
हिसार, 84. राजा गजसेन : वि. सं. 210 से 251 (सन्<br />
गज़नी 154- 194 ई.), हिसार में राजा बने । बाद मेँ अपनी राजधानी हिसार से गजनी ले गए, परन्तु बि. सं.<br />
251 (सन् 194 ई-) में गजनी के पहले शाके में इन्होंने वीरगति पाई और साथ में गज़नी भी इनके अधिकार से निकल गई ।<br />
<br />
शालिवाहनपुर - 85. राजा शालीवाहन (प्रथम) : वि. सं. 251 से 284<br />
(सन 194 से 227 ई) । इन्होंने गज़नी त्यागकर लाहोर के पास शालिवास्तपुर में नई राजधानी ' स्थापित की।वाद में इन्होंने गजनी पर पुन:अधिकार कर लिया! इनके पन्द्रह राजकुमार थे जिन्होंने पंजाब और भारत के उत्तरी पहाडी क्षेत्रो में पृथक- पृथक राज्य स्थापित किए ।<br />
<br />
जय श्री कृष्ण<br />
सन्दर्भ ग्रन्थ -गजनी से जेसलमेर (हरिसिंह भाटी)<br />
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com36tag:blogger.com,1999:blog-1876914672302838897.post-54758057089421991572017-04-20T09:43:00.000-07:002018-06-04T04:38:41.328-07:00मांगलिया(सिसोदिया)----इतिहास के आईने में-आईदान सिंह जी भाटी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मांगलिया (सिसोदिया)---इतिहास के आईने में –आईदानसिंह भाटी<br />
राजस्थान की आंचलिक संस्कृतियां बड़ी समृद्ध और रोचक रही है | इस रोचकता में गाँवों के नाम और उनका इतिहास भी जुड़ा हुआ है | राजस्थान में जोधपुर के बसने से पूर्व का वृतांत है यह | मारवाड़ में बप्पा रावल के पुत्र आणंददे के वंशज मांगलिया कहलाए | संभवत: आणंददे के वंशजों में कोई मंगल हुआ, जिससे उस शाखा का नाम मांगलिया पड़ा | बप्पा रावल के समय संभवत: आणंददे मारवाड़ आ गया होगा | इस मांगलियावाटी की राजधानी आज का सुप्रसिद्ध नगर-कस्बा खींवसर था ,जिसे खींवसी मांगलिया ने बसाया था | इसी खींवसी मांगलिया की राजकुमारी लखांदे जैसलमेर के रावल दूदा अथवा दुरजनसाल को ब्याही गई थी | यह रानी जैसलमेर के द्वितीय साके के समय अपने पीहर थी जो सांदू हूंफा अथवा हूँफकरण के साथ अपने पति का शीश ढूँढने जैसलमेर गई थी और तब सांदू हूंफा ने अपनी ओजस्वी वाणी से लोकप्रसिद्धि के अनुसार कटे मुंड को बोलने के लिए विवश किया था | इस संबंध में जोधपुर महाराजा मानसिंह जी का सुप्रसिद्ध दोहा है –<br />
सांदू हूंफे सेवियो, साहब दुरजनसल्ल |<br />
बिडदा माथो बोलियो, गीतां, दूहां गल्ल ||<br />
रावल मल्लीनाथजी के छोटे भाई राव वीरमदेव की बड़ी रानी मांगलियाणी ही थी |<br />
यह मांगलिया शाखा जोधपुर राज्य की स्थापना से लेकर खींवसर उनके हाथ से निकलने के बाद तक महत्वपूर्ण रही | मांगलिया मेहाजी तो मारवाड़ के पांच पीरों में सुप्रसिद्द है –<br />
‘पाबू, हडबू , रामदे , मांगलिया मेहा |’<br />
इन मेहाजी के सम्बन्ध में इतिहासकारों ने जबरदस्त विभ्रम फैलाया | उन्हें मेहराज सांखला के साथ जोड़ दिया | मेरी समझ से इस विभ्रम को मैंने कई बार इतिहासविदों के सामने मौखिक रूप से तोड़ने की कोशिश की, लेकिन ढाक के तीन पात की तरह मामला आगे नहीं बढ़ा | अंतत:मेरे आग्रह को स्वीकार कर श्री गिरधरदानजी रतनू दासोडी ने एक विस्तृत-लेख परम्परा – पत्रिका में लिख कर इस भ्रम को तोडा | इस लेख में मेहाजी को इतिहास के साथ जोड़कर उन विभ्रमों पर भी बात की, जो लोक में मौखिक और साहित्यिक रूप से प्रचलित रहे हैं |<br />
इतिहास विश्रुत भगवती करनीजी का पीहर सुवाप मांगलियावाटी का ही हिस्सा रहा है जो मांगलियों द्वारा ही भगवती करनीजी के पिताजी को जागीर के रूप में दिया गया था |<br />
इसी शाखा के वीर संवत १६३२ में जब बादशाह अकबर ने कुम्भलनेर लिया तब मांगलिया जैतसी और उसका काका जैमल वहां काम आए थे|<br />
--(बाँकीदास री ख्यात –पेज-९३)<br />
<br />
मांगलिया भादा बावड़ी के निवासी ने राव मालदेव को शिकारी कुत्ते भेंट किये थे | भादा के बेटे देवाको राव मालदेव ने खूब मान दिया और सिवाणे को जेतमालोतों से लेकर मांगलिया देवा को दिया | देवा ने सिवाणेमें ही राम किया |<br />
देवा का बेटा वीरमदे बड़ा सपूत हुआ | राव मालदेवजी ने मेड़ता वीरमदे देवावत मांगलिया को भेंट तब किया जब उनकी मेड़तियों से अनबन चल रही थी | |(बाँकीदास री ख्यात-पेज ६०) <br />
इन्हीं का एक भाई राव मालदेव के समय सिवाना का किलेदार था- किल्ला अथवा कल्याणसी मांगलिया | इसने बालोतरा के पास वाला कस्बा कल्याणपुर अपने नाम पर बसाया था | --(राठोड़ों री ख्यात) | इस तथ्य को आज बहुत कम लोग जानते हैं, क्योकि आज वहां मांगलियों का कोई बड़ा वजूद ही नहीं हैं |<br />
खींवसर आसोप भी जब साळ-कटारी में करमसोतों को मिले तब मांगलियों का केंद्र बापीणी बना | मांगलिया भोज हमीरोत जिसकी बेटी दूल्हदे की शादी करमसी जोधावत के साथ हुई थी | इससे पंचायण , धनराज, नारायणऔर पीथूराव चार बेटे हुए | ((बाँकीदास री ख्यात-६७)<br />
खीवसर मांगलियों के हाथ से निकलने के बाद खींवसर के बसाने की कल्पित कहानियाँ गढ़ी गई , जैसा कि मांगलियावास (जोकि जयपुर रोड पर है, जहां प्रसिद्द कल्प-वृक्ष है | ) कस्बे के लिए राज-स्तरीय अखबारों में मैंने पढ़ा है की यह नाम ‘मांग कर लिया गया’ के अर्थ में पडा है ,जबकि यह मांगलियोंके किसी नायक के द्वारा बसाया क़स्बा है| <br />
और भी बातें सिसोदियों की इस शाखा से जुड़ी है,इतिहास के अध्ययन के बाद फिर कभी |<br />
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यदुवंशी सुरेन्द्रसिंह भाटी http://www.blogger.com/profile/03109610171293343546noreply@blogger.com13