रविवार, 16 अप्रैल 2017

सोनार फोर्ट की कहानी जेसलमेर के ढाई शाके और जेसलमेर के शासको का क्रमबद्ध वर्णन और गौरवमयी इतिहास

सोनार किले की कहानी – (जैसलमेर का इतिहास )

सोनार के किले की कहानी – (जैसलमेर का इतिहास)
जैसलमेर का मतलब है जैसल का मेरु यानी जैसल का दुर्ग| जैसलमेर स्थित सोनार के किले की आधारशिला महारावल जयशाल ने रखी थी|कहते है की लोद्र्वा के यदुवंशी शासक महारावल दुसाजी ने अपने ज्येष्ठ पुत्र जैसल को अपना उतराधिकारी बनाने की जगह अपने कनिष्ठ पुत्र विजयराज द्वितीय को अपना उतराधिकारी बना दिया था जिससे नाराज होकर जैसल  नगरथट्टे के बादशाह शहाबुद्दीन गोरी के पास चला गया| विजयराज की म्रत्यु के बाद उसका पुत्र भोजदेव लोद्रवा का शासक बना जिसे जैसल  ने आक्रमण कर मार डाला| लोद्रवा के निकट ही सन ११५५ में महारावल जैसल  ने एक दुर्ग की नीवं रखी जो उसके नाम से जैसलमेर के नाम से जाना जाता है|जयशाल के समय दुर्ग का मुख्य द्वार तथा कुछ ही अंश बन पाया था बाकी निर्माण उसके उतराधिकारियो द्वारा करवाया गया| जयशाल के पुत्र शालिवाहन द्वितीय ने दुर्ग के निर्माण में सर्वाधिक योगदान दिया था|
स्वर्णआभा युक्त यह दुर्ग त्रिकुटाचल नामक त्रिभुजाकार पहाड़ी पर बना हुवा है जिसकी अधिकतम लम्बाई १५०० फुट है तथा चौड़ाई ७५० फीट है| संभवत इस दुर्ग पर सर्वाधिक बुर्ज बने हुवे है | कुल ९९ वे बुर्ज बने हुवे है जो संभवत भारत के किसी भी किले में नहीं है | दुर्ग के निर्माण में बड़े बड़े प्रस्तर खंडो को एक दुसरे पर रख कर किया गया है तथा उनमे किसी भी प्रकार के चुना या किसी अन्य योजक पदार्थ का उपयोग नहीं लिया गया है समस्त प्रस्तर खंड इंटर लॉकिंग तरीके से एक दुसरे में जोड़े गए है|मरुस्थल में बना ये दुर्ग अपने आप में अनूठा है दुर्ग में ५००० से अधिक जनसँख्या निवास करती है और दुर्ग के अन्दर पूरा नगर बसा हुवा है | महान फिल्मकार सत्यजीत रे सोनार किला नाम से एक फिल्म का निर्माण किया था| दुर्ग के महलो और भवनों में पत्थर पर की गई नक्काशी और इस दुर्ग में शत्रुओ से रक्षा के लिए दुर्ग की बुर्ज की दीवारों पर रखे गए पत्थर के बड़े बड़े बेलननुमा तथा गोले इस दुर्ग की सुन्दरता में चार चाँद लगा देते है|
जयशाल के बाद उसका पुत्र शालिवाहन द्वतीय गद्दी पर बैठा| उसके बाद बीजल, कल्हण, चाचिगदेव (प्रथम) कर्ण, लखनसेन, पूण्यपाल,जैत सिंह गद्दी पर बैठे|जैतसिह के शासनकाल में उसके पुत्रो मूलराज और रतनसिंह ने अल्लाउद्दीन खिलजी का खजाना लुट कर जैसलमेर भेजा था और जब अल्लाउद्दीन ने मंडोर के शासक पर आक्रमण किया तो उसने जैत सिंह की शरण ली जिसके कारण अल्लाउद्दीन ने जैसलमेर पर आक्रमण कर दिया और बारह वर्षो तक दुर्ग के बाहर घेरा डाले रखा| प्रथम आठ वर्ष तक तो किले में रह कर युद्ध का संचालन जैतसिंह ने किया तथा उसके वीर गति प्राप्त होने पर उसके पुत्र मूलराज ने चार वर्ष तक युद्ध का संचालन किया किन्तु जब रसद पूर्णत समाप्त हो गई तब भाटी राजपूतो ने साका करने का निर्णय लिया और राजपूत महिलाओं ने जोहर किया और अगले दिन दुर्ग के दरवाजे खोलकर भाटियो ने मूलराज और रतनसिंह के नेतृत्व में वीरगति प्राप्त की और दुर्ग पर अल्लाउद्दीन का अधिकार हो गया था| दुदा और तिलोकसी ने जो की भाटी राजवंश से ही थे पुनः दुर्ग पर अधिकार कर लिया था|
खिलजी वंश के बाद दिल्ली सल्तनत पर तुगलक वंश का अधिकार होने पर मोहम्मद बिन तुगलक ने अपनी सैना जैसलमेर भेजी किन्तु छह वर्ष तक दुर्ग का घेरा डालने के बावजूद दुर्ग पर अधिकार नहीं कर सकी किन्तु रसद समाप्त हो जाने पर पुनः भाटी राजपूतो ने दुदा और तिलोकसी के नेतृत्व में साका करने का निश्चय किया और राजपूत महिलाओं ने जोहर किया और राजपूतो ने दुर्ग के दरवाजे खोल कर वीरगति को प्राप्त हुवे| दुर्ग पर मुसलमानों का अधिकार हो गया|
भाटी सरदार घडसी जो की मूलराज के भाई रतनसिंह का पुत्र था ने किलेदार को मार कर पुनः दुर्ग पर अधिकार कर लिया जिसे बाद में उसी के सरदारों में से किसी ने छलपूर्वक मार दिया| घडसी की रानी ने मूलराज के पौत्र देवराज के पुत्र रूपसिंह के दोहित्र केहर को छायण अथवा मण्डोर से बुला कर गद्दी पर बैठाया| केहर के बाद उसका दूसरा पुत्र लक्ष्मणदेव गद्दी पर बैठा|जिसके समय जैसलमेर के प्रसिद्द वैष्णव और लक्ष्मीनारायण मंदिरों का निर्माण हुवा था| इसी समय से राज्य का वास्तविक स्वामी लक्ष्मीनाथजी को माना गया और महारावल को उनका दीवान माना गया|
लक्ष्मणदेव के बाद उसका पुत्र वैरसी अथवा वैरसिंह राज्य का स्वामी बना जिसने अपनी रानियों के नाम से सूर्यमंदिर, रत्नेश्वर महादेव मंदिर तथा दुर्ग में स्थित दो कुवे बुलीसर तथा राणीसर बनवाये| वैरीसिंह ने ही राव जोधा के चित्तोड़ से भाग कर आने पर शरण दी थी और सिसोदियो से मंडोर को छुड़ाने में सहायता की थी|
वैरसिंह के बाद चाचिगदेव द्वितीय, देविदास तथा जैतसिंह द्वितीय जैसलमेर के शासक हुवे| जैतसिंह द्वतीय के समय जैतबंध सरोवर का निर्माण करवाया गया था|जैत संघ की म्रत्यु के बाद युवराज लूणकरन कंधार गया हुवा था इसलीये पंद्रह दिवस तक कर्मसी ने राज्य किया जिसे लूणकरन ने वापस आते ही हटा दिया और महारावल बन गया|लूणकरन के नो पुत्र तथा तीन पुत्रिया हुई थी जिसमे पहली पुत्री रामकुंवरी और तीसरी पुत्री उमादे का विवाह मारवाड़ के शासक मालदेव से हुवा था और दूसरी कन्या का विवाह उदयपुर के महाराणा उदयसिह के साथ हुवा था| उमादे के विवाह के समय मालदेव ने उमादे से कह दिया की वो उसके लये नहीं बल्की उसकी दासी भारमली के लिए आया है जिसके कारण उमादे रूठ कर अपने ननिहाल चित्तोड़ चली’ गयी और पूरी जिन्दगी वही रही और मालदेव की म्रत्यु होने पर वही सती हो गई| उमादे को रूठी रानी के नाम से भी जाना जाता है|
महारावल लूणकरन के समय मुग़ल बादशाह हुमायु जैसलमेर होता हुवा अमरकोट और इरान की तरफ भागा था लूणकरन ने हुमायु की सेनाओं को जैसलमेर में डेरा नहीं डालने दिया था| लूणकरन ने ही एक विशाल यज्ञ का आयोजन करवाया था जिसमे विगत आठ सौ सालो में तलवार के बल पर जबरन मुसलमान बनाए गए हिन्दुओ को पुन हिन्दू धर्म में शामिल करवाया गया|इस यज्ञ में सिंध,मारवाड़ और कच्छ से भाग लेने अनके लोग आये थे|
महारावल लूणकरन ने कांधार के पठान अमीर अली को पगड़ी बदल कर भाई बनाया हुवा था| उसने जैसलमेर का राज्य हथियाने का षड्यंत्र रचा और जैसलमेर पहुचने पर उसने महारावल से कहलवाया की बेगमे रानियों से मिलाना चाहती है और महारावल की आज्ञा प्राप्त होने पर उसने डोलियों में हथियारबंद सैनिको को भेजा| एक पहरेदार को डोली में पुरुष आवाज सुनाई देने पर और उसके द्वारा डोली का पर्दा हटाने पर भेद खुल गया और मारकाट मच गई| आमीर का षड्यंत्र खुलने पर रणभेरी बज गई और समस्त राज स्त्रियों का सर अपनी तलवार से अलग कर अपने सरदारों के साथ महारावल रण में कूद गया और अपने चार भाइयो, तीन पुत्रो और चार सौ योद्धाओं के साथ वीर गति को प्राप्त हुवा|घटना के समय युवराज मालदेव शिकार खेलने गया हुवा था वापस लौट कर उसने आम्र अली को पराजित कर कैद कर लिया और चमड़े के बोर में बंद कर तोप से उड़ा दिया | लूणकरन के बाद उसका पुत्र मालदेव महारावल बना|
महारावल मालदेव के बाद उसका पुत्र हरराज गद्दी पर बैठा| हरराज के बाद भीम, कल्याण, मनोज, रामचंद्र, सबलसिंह, अमरसिंह, जसवंतसिंह, बुधसिंह, तेजसिंह, सवाईसिंह, तथा अखेसिंह गद्दी पर बैठे| इन सभ महारावलो के समय जैसलमेर में कला, साहित्य, और स्थापत्य के क्षेत्र में खूब उन्नति हुई| अखेसिंह के बाद मूलराज द्वितीय महारावल बना किन्तु उसके काल में दीवान मेहता स्वरुप सिंह और सालिम सिंह का ही अधिक प्रभाव रहा और वे ही राज्य के वास्तविक स्वामी बने रहे|जिसके कारण मूलराज ने सालिम सिंह के अत्याचारों से तंग आकर १८१८ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि कर ली और कम्पनी का संरक्षण प्राप्त कर लिया |
मूलराज के बाद गज सिंह जैसलमेर का महारावल बना जिसने अनासिंह राजपूत के माध्यम से दीवान सालम सिंह की हत्या करवाई | गज सिंह के बाद तीन वर्ष का बालक रणजीत सिंह महारावल बना जो की गज सिंह के छोटे भाई केसरी सिंह का पुत्र था| रणजीत सिंह के व्यस्क होने तक केसरी सिंह ने राज्य भार संभाला किन्तु मात्र २१ वर्ष की आयु में ही रणजीत सिंह का स्वर्गवास हो गया तब कम्पनी ने केसरीसिंह के दुसरे पुत्र वैरिसालसिंह को महारावल बनाया| वैरिशाल सिंह के निसंतान मरने पर लाठी के ठाकुर कुशलसिंह के पांच वर्षीय पुत्र शालिवाहन को महारावल बना दिया गया | उनकी  म्रत्यु हो गई वो भी निसंतान थे | दुर्ग स्थित दी गई महारावलो क सूचि में महारावल शालिवाहन के बाद महारावल दानसिंह उसके और उसके बाद मान सिंह के पुत्र जवाहर सिंह को १९१४ जैसलमेर का महारावल बनाया गया जिसकी १९४९ में म्रत्यु हुई तब तक देश स्वतंत्र हो चूका था और रियासतों के एकीकरण का कार्य चल रहा था| महारावल जवाहर सिंह के पुत्र गिरधर सिंह जी की म्रत्यु भी गलत इंजेक्शन लगाए जाने के कारण १९५० में म्रत्यु हो गई थी| उसके बाद उनके पुत्र रघुनाथ संघ जी हुवे और वर्तमान में उनके पुत्र ब्रजराज सिंह जी है
 



 ( स्रोत- जोधपुर संभाग का जिलेवार सांस्कृतिक एवं एतिहासिक अध्ययन - डा. मोहन लाल गुप्ता )
जय जय ..... शरद व्यास, ०४-११-१६, उदयपुर

4 टिप्‍पणियां

  1. बहुत अच्छी जानकारी इतिहास से संबंधित जरूर पढे समय निकाल करे . बहुत अच्छा कार्य सुरेन्द्रसिह जी तेजमालता

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  2. बहुत अच्छी जानकारी इतिहास से संबंधित जरूर पढे समय निकाल करे . बहुत अच्छा कार्य सुरेन्द्रसिह जी तेजमालता

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  3. बहुत महत्वपूर्ण जानकारी के लिए धन्यवाद् लेखक को / पर किले की लम्बाई चोदाई की जानकारी त्रुटिपूर्ण है .आप ने १५०० फिट व् ७५० फिट लिखा है जो गलत है क्रप्या इसे ठीक करें

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