शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2017

असली यदुवंशी (अहीर बनाम यदुवंश )

                                                         
ब्रज का इतिहास भाग -2 श्री कृष्णदत्त वाजपेयी ने मथुरा गजेटियर 1911 मे पृष्ठ 106-14 के अनुसार लिखा है की -"अहीर अपना उत्पत्ति स्थान मथुरा को बतलाते है |उनका कहना है की वे कृष्ण के समय मे वृंदावन के ग्रामीण बनिया थे |ज़िनके पास 1000 से अधिक गाये होती थी उनको नन्दवंश कहा जाता था ,ज़िनके पास कम होती थी उनको ग्वालवंश कहा जाता था |मथुरा मे मुख्यत :ग्वालवंश थे |'आगे लिखते है की कृष्ण के साथ संबंध्द जातिया मथुरा की भाषा और संस्कृती से विशेष संबंध रखती है ,उन जातियो मे अहीर -आभीर भी आते है | पौराणिक साहित्य मे इनकी मिश्रित उत्पत्ति बताई गई है |अहीरो को वायूपुराण मे मलेच्छ कहा गया है |पंतजली ने उनका संबंध शुद्रो से जोडा है |मनु ने अहीर को ब्रह्मण पिता और अम्बाष्ठ स्त्री से उत्पन्न माना है |अहीर जाती के बारे मे पौराणिक ,एतिहासिक जितने भी वर्णन या उल्लेख मिलते है प्राय: सभी मे स्पष्टत:अहीर जाती यादव ,यदुवंशी से भिन्न जाती है ,इसका प्रत्यक्ष प्रमाण सामाजिक जीवन मे भी हमेशा से मौजुद रहा है की यदुवंशीयो का अहीर जाती से किसी भी प्रकार (रिश्ते ,नाते ,विवाह संबंध ,व्यवहारिक चाल चलन )का कोई भी सामाजिक व्यवहारिक संबंध नहीं रहा है |प्राचीन काल से ही सामाजिक जीवन दोनो का भिन्न रहा है                                


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श्री कृष्ण मेघाडम्बर छत्र जेसलमेर में सुरक्षित हे
अहीर बनाम यदुवंशी भाग -2.                                          

     एक और तो अहीर अपनी उत्पत्ति यदुवंश जैसे क्षत्रिय राजवंश से जोड रहे है --यदुवंशी राजा आहुक से उत्पन्न है ,यदुवंशी राजा देवमीढ की दुसरी पत्नी वैश्यवर्णा से उत्पन्न है ,कृष्ण वंश मे उत्पन्न है आदी |जबकी ये बात सार्वभौमिक सत्य है की कृष्ण के पिता वृष्णीवंशी (यदुवंश की शाखा )वासुदेव थे तथा माता अंधकवंशी (यदुवंश की शाखा )देवकी थी ,इस तथ्य को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है ,तो फिर ये आभीर जाती से उत्पन्न कहा से और कब से हुए ?क्या ये आहुक ,देवमीढ ,कृष्ण आदी जो यदुवंशी क्षत्रिय थे ,ये भी आभीर थे ?होने चाहिए |तो मे कहना चाहूँगा की एतिहासिक पौराणिक तथ्य को बिना शोध के बिना सोचे विचारे नहीं लिखना चाहिए |तथ्यहीन अप्रमाणिक उल्टा सिधा लिखने से वास्तविक इतिहास बदल नहीं जाता और न किसी दुसरे के इतिहास को चुराने से अपना बन जाता है |           कोई भी इतिहासकार यह निश्चित नहीं कर सकता है की अहीर (वर्तमान छद्म यादव )यदुवंश से उत्पन्न है सभी ने अनुमानत:     विवरण लिखा है ,क्योकि अहीर शब्द केवल कृष्ण काल से ही आया है लेकिन इनकी उत्पत्ति का प्रामाणिक और विश्वसनिय इतिहास उस काल मे भी नहीं मिलता है
 ब्रज का इतिहास भाग -2 श्री कृष्णदत्त वाजपेयी

रविवार, 1 अक्तूबर 2017

बनारस मन्दिरों का शहर राजा मानसिंह आमेर (जयपुर) की वजह से कहलाया

 न होते राजा जयपुर, तो न बनता बनारस मंदिरों का शहर

-एक दिन में एक हजार मंदिर के निर्माण की राजा मानसिंह ली थी शपथ और उसे पूरा किया
आवेश तिवारी
वाराणसी -यह वर्ष 1567 में सितम्बर का महीना था। उत्तर भारत की यात्रा कर वापस लौटे मुग़ल सम्राट अकबर के वफादार सेनापति और उनके नवरत्नों में से एक मानसिंह बादशाह के दरबार में हाजिर हुए और लगभग चीखते हुए कहा " हुजुर, पूरा बनारस तबाह हो चुका है ,हजारो मंदिर उजाड़ दिए गए हैं ,शहर को आपके निगाहें इनायत की जरुरत है "।अकबर जो खुद भी नहीं जानता था वो बनारस से नाराज क्यूँ है,मानसिंह की आँखों में छायी उदासी को पढ़ सकता था। उसने बिना देर किये कहा "मानसिंह ,बनारस को आप देखें "।king man singhफिर क्या था,बार बार बनता और ध्वस्त होता बनारस एक बाद फिर चमक उठा ।मानसिंह ने बनारस में डेरा डाल लिया और राजस्थान के कारीगरों की पूरी फ़ौज काशी के नवनिर्माण में लगा दी ।इतिहासकार मानते हैं कि अकबर के इस सेनापति ने बनारस में एक हजार से ज्यादा मंदिर और घाट बनवाये ,मानसिंह के बनवाये घाटों में सबसे प्रसिद्द मानमंदिर घाट है इसे राजा मानसिंह ने बनवाया था बाद में जयसिंह ने इसमें वेधशाला बनवाई ।बनारस में अनुश्रुति है कि राजा मानसिंह ने एक दिन में 1 हजार मंदिर बनवाने का निश्चय किया ,फिर क्या था उनके सहयोगियों ने ढेर सारे पत्थर लाये और उन पर मंदिरों के नक़्शे खोद दिए इस तरह राजा मानसिंह का प्रण पूरा हुआ।
न होते मानसिंह तो कैसे बनता काशी विश्वनाथ
अम्बर के राजा मानसिंह और बनारस का नाता आज भी पूरे शहर में नजर आता है। मानसिंह के वक्त की सबसे प्रसिद्द घटना विश्वनाथ मंदिर की पुनः रचना की है,अकबर ने पुनर्निर्माण का काम मानसिंह को सौंपा था।लेकिन जब मानसिंह ने विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाना शुरू किया तो तो हिन्दुओं ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया।गौरतलब है कि हुसैन शाह शर्की (1447-1458) और सिकंदर लोधी (1489-1517) के शासन काल के दौरान एक बार फिर इस मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। हिन्दू रूढ़िवादियों का कहना था कि मानसिंह ने अपनी बहन जोधाबाई का विवाह मुग़लों के परिवार में किया है वो इस मंदिर का निर्माण नहीं करवा सकते ,जब मानसिंह ने यह सुना तो निर्माण कार्य रुकवा दिया । लेकिन बाद में मानसिंह के साथी राजा टोडर मल ने अकबर द्वारा की गयी वित्त सहायता से एक बार फिर इस मंदिर का निर्माण करवाया।
वैधशाळा का भी कराया था निर्माण
मानसिंह ने मानमंदिर घाट का निर्माण यात्रियों के ठहरने के लिए कराया था,आज भी इसे लोग जयपुर राजा का मंदिर कहते हैं उन्ही के वंश के सवाई जयसिंह द्वितीय ने जो अपने समय के प्रसिद्द ज्योतिर्विद थे 1737 में एक वेधशाला स्थापित की ।बताया जाता है कि समरथ जगन्नाथ नाम के जयसिंह के एक प्रसिद्द ज्योतिष ने इस वेधशाला का नक्शा बनवाया था और जयपुर के ही सरदार महोन ने जो जयपुर के एक शिल्पी थी यह वेधशाला तैयार कराई। इसमें कई किस्म के यंत्र थे जिनसे लग्न इत्यादि साधने का काम किया जाता था ।
तुलसीदास के शिष्य थे मानसिंह
मानसिंह और बनारस का नाता यही ख़त्म नहीं हुआ।अकबर ने जब 1582 में फतेहपुर सिकरी में खुद के द्वारा स्थापित किये गए नए धर्म "दीन -ए- इलाही पर चर्चा करने विद्वानों को बुलाया तो उस वक्त उसका विरोध केवल राजा भगवंत दास ने किया था ,लेकिन बाद में मानसिंह ने भी इसका विरोध किया और अपने पुत्र के साथ बनारस में गोस्वामी तुलसीदास से शिक्षा लेने लगे ,गौरतलब है कि तुलसीदास ,अकबर के समकालीन थे। इतिहास बताता है कि जब मुग़ल सेना इंदु नदी को पार करके दुश्मनों पर आक्रमण करने से घबरा रही थी उस वक्त मानसिंह को तुलसीदास की चौपाई याद आई "सबै भूमि गोपाल की या में अटक कहाँ', जाके मन में अटक है सोई अटक रहा।''इस चौपाई को कहने के बाद मानसिंह अपने नेतृत्व में सेना को लेकर नदी पार कर गए।
लेख --आवेश तिवारी,बनारस