गुरुवार, 14 सितंबर 2017

क्षत्रिय का कर्तव्य (मेहँदी का फूल) मार्मिक

दूर दूर तक विस्तृत रेगिस्तान। सूना और शांत। कही कही पर छोटी छोटी बेर की झाडियाँ और खेजडे के वृक्ष। शेष रेत ही रेत। आग उगलती धुप और स्तब्ध पवन। ऐसी निस्तब्धता को भंग करती हुई एक बस कच्ची सड़क पर तेज रफ़्तार से जा रही थी। बस में पूरे यात्री थे। ड्राईवर के ठीक पास दो बूढ़े चौधरी बैठे थे जिनके चेहरे पर जीवन के संघर्ष की प्रतिरूप झुर्रियाँ झलक रही थी। पीछे कितने अपिरिचित, अनजान स्त्री पुरुष। पुरुष रंग बिरंगे साफे पहने हुए व् स्त्रियां ओढने ओढ़े हुई थी। सबसे पीछे की सीट पर एक राजपूत मुकलावा (गौना) करके आ रहा था। उसके चार सीट आगे एक सेठ अपनी नवविवाहित बेटी को लेकर अपने गाँव लौट रहा था।

वह लड़की अद्वीतीय सुंदरी थी। उसका केसर सा रंग केसरिया वस्त्रों में एकमेक हो रहा था और ओढनी पर सलमे सितारे जड़े हुए थे जो उसके सौंदर्य में चार चाँद लगा रहे थे। कच्ची सड़क होने की वजह से हिचकोले जरूरत से ज्यादा आ रहे थे पर ड्राईवर अत्यंत सजगता से स्टीयरिंग सम्हाले था। अप्रत्याशित,जिधर बस जा रही थी उसके पूर्व की ओर धुल के बादल उड़ते नज़र आये। सारे यात्री शंकित हो गए। एक चौधरी ने बीडी सुलगाते हुए कहा,“शायद ‘भटलोटिया’ (हवा और धुल का गुब्बार) उठा है।” दूसरा चौधरी जिसकी आवाज़ भारी थी,बोला “आंधी भी आ सकती है।इस मरुभूमि में बरखा कम आंधी ज्यादा आती है।” सेठ ने अपनी इन्द्रधनुषी पगड़ी को उतारकर अपने गंजे सर पर चमकती पसीने की बूंद को पोंछा।फिर अपनी लाडली नवविवाहित लड़की मन्नी से धीरे धीरे कहने लगा, “सुन री लाडली, आंधी आने वाली है, जरा सचेत रहना।”

नवविवाहिता मन्नी ने गले में सोने का तिमणिया और काठलिया पहन रखा था। सिर पर बड़ा बोर था। दोनों कानो में बालियाँ झलमला रही थी।नाक में काँटा था।पांवो में चांदी के भारी भारी बिछ्वे।बाप का संकेत पाकर मन्नी ने अपने ओढने से अपने शारीर को ढांक लिया। मुकलावा करके आने वाला राजपूत अपनी कमर में लटकती तलवार को यूँ ही देख रहा था। उसके समीप उसका मित्र अपने हाथ की कटार से खेल सा रहा था। धुल के बादल और गहरे हुए।वे बस के समीप आने लगे।यात्रियों की आँखे उस ओर जम गयी।ड्राईवर ने बस की रफ़्तार को और तेज कर दिया। तभी गोली की आवाज़ सुनाई पड़ी। गोली की आवाज़ के साथ यात्रियों ने देखा कि धुल के बादलों को चीरती हुई एक जीप आ रही है।जीप में चार आदमी बैठे हैं जिनके चेहरे कपड़ो से ढके हुए हैं।

एक यात्री चिल्लाया, “डाकू! डाकू आ गए हैं!” सारी बस में सनसनी फ़ैल गई। डाकू शब्द फुसफुसाहट में बदल गया। सेठ ने जोर से कहा, “बस और तेज करो।” एक गोली बस के अगले शीशे के ऊपर की ओर टकराकर हवा में उड़ गयी।ड्राईवर के हाथ से स्टीयरिंग छूट गया।उसने घबराकर गाडी रोक दी।चंद क्षणों में ही जीप बस के आगे थी। अब यात्री जीप में बैठे सभी लोगो को अच्छी तरह देख सकते थे। बस में मृत्यु सा सन्नाटा छा गया था। लोग एक दुसरे को शंकित दृष्टि से ऐसे देख रहे थे जैसे वे पूछ रहें हो की अब क्या होगा? जीप में बैठे डाकू उतर आये थे। ड्राईवर के अतिरिक्त पांच लोग और थे। एक के हाथ में तनी हुई बन्दूक थी। बन्दूकधारी ने गरजकर क़हा, “तुम लोग अपनी जान की खैर चाहते हो तो चुपचाप बैठे रहो।कोई भी हिले दुले नहीं!” यात्रियों की साँसे गले की गले में रह गयी।

बन्दूकधारी ने फिर अपना परिचय दिया, “मैं डाकू तेज सिंह हूँ। मैं तुम लोगो में से किसी को कुछ नहीं कहूँगा...मैं सिर्फ इस सेठ की बेटी को लेने आया हूँ।” शेष यात्रियों ने राहत का अनुभव किया लेकिन सेठ और उसकी नव परिणीता बेटी काँप उठी।लड़की मन्नी अपने बाप से चिपट गयी। तेज सिंह उन दिनों राजस्थान का कुख्यात डाकू था। उसने कई जाने ली थी और वह सच्चे डाकुओं की मान मर्यादा का परित्याग कर के नीच से नीच काम करने पर उतारू हो गया था। चूँकि दुसरे डाकू अपने पेशे की नैतिकता और उसके धर्म को लेकर चलते थे, इसलिए उन्होंने तेज सिंह को स्पष्ट कह दिया था कि वे अब उसके साथ नहीं रह सकते।लड़कियों की इज्ज़त से खेलना उनका धर्म नहीं है...पर वासना में लिप्त तेज सिंह ने उनकी कोई परवाह नहीं की। तेज सिंह में एक राक्षश की सारी प्रवृतियाँ उत्पन्न हो गयी थी।

तेज सिंह एक बार फिर सिंह की भाँती गरजा, “सेठ,अपनी बेटी मेरे हवाले राजी खुशी कर दे।” मन्नी ने अपने बाप को मजबूती से पकड़ इया। दोनों थर थर कांपने लगे।दोनों के चेहरे वर्षों से बीमार की तरह पीले पड़ गए थे। तेज सिंह की आँखों में रक्तिम डोरे उतर आये।वह उस खिडकी के पास आकर बोला, “सुना नहीं सेठ? लड़की को मेरे हवाले करो वरना मैं गोली मारता हूँ।” लड़की क्रंदन करती हुई अपने भयभीत बाप से और लिपट गयी। रूआंसे स्वर में बोली, “नहीं बापू, नहीं! मुझे इसके हवाले न करना...बापू...” तेज सिंह चिल्लाया, “बन्ना, जाकर लड़की को ले आ।तेज सिंह का साथी अपने सरदार का आदेश पाकर बस में घुसा।तेज सिंह ने तत्काल एक हवाई फायर किया। सारे यात्री कलेजा पकड़ कर बैठ गये। उन्हें महसूस हुआ की गोली उनके सीने में दाग दी गयी है।सबकी आँखों में आशंकित म्रत्यु का भय और जड़ता उभर उठी।


बन्ना ने भीतर घुसकर बाप से लिपटी बेटी को छुड़ाना चाहा।बाप ने कांपते हाथों को जोड़कर प्रार्थना की, “माई बाप! मेरी बेटी को छोड़ दीजिए, में आपको सारे जेवर दे दूँगा।” परन्तु हवस में अंधे तेज सिंह को उस लड़की के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। जब बाप ने लड़की को नहीं छोड़ा, तब तेज सिंह ने बन्दूक के पिछले हिस्से से सेठ के सिर पर चोट की। आर्क्त्नादो के बीच लड़की घसीटकर बाहर निकाल ली गयी। सब यात्री निर्जीव से बैठे रहे।वे गूंगे बहरे बनकर अपनी सीटों से चिपक गए थे। लग रहा था कोई भी नहीं है इस बस में।
लड़की अब भी चीख चिल्ला रही थी। बन्ना उसे अपनी बाहों में ले चूका था। तभी मुकलावा करके लौट रहे राजपूत युवक की पत्नी थोडा सा घूंघट हटाकर बस में बैठे हुए लोगो से तेज स्वर में बोली, “आप सब चुल्लूभर पानी में डूब मरिये। आपके सामने एक लड़की को डाकू उठाकर ले जा रहे हैं, और आप हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। थू है आप सब पर।” अचानक इस तेज फर्कार बस में तनिक हलचल हुई। राजपूत अपनी पत्नी को प्रशनवाचक दृष्टि से देखने लगा। 

शायद वह सोच रहा हो कि इसे यकायक यह क्या हो गया है? या हमारी कौटुम्बिक परम्पराओ को तोड़कर क्यों हुंकार रही है? सबके सामने क्यों बोल रही है? राजपूत-पत्नी की आँखों से अंगारे बरस रहे थे। उसने थोडा सा घूंघट खीचकर अपने पति से पुनः कहा, “मैं आप से क्षमा मांगती हूँ,कुंवर सा! आप मुझे मेरी इस गलती की बाद में कोई सजा दे दीजियेया,किन्तु कुंवर सा, आज मुझे मालूम हो गया कि आपकी रजपूताई घास चरने चली गयी है। जो क्षत्रिय गौ,ब्राह्मण,अबला का रक्षक कहलाता था,उसी के सामने एक लड़की मुक्ति की भीख मांग रही है और आप पत्थर की तरह चुपचाप बैठे हैं?आपका खून पानी हो गया है? वर्ना क्या मजाल थी कि एक सच्चे राजपूत के होते हुए कोई चोर डाकू किसी के बाप से उसकी बेटी छीन कर ले जाए।” आपनी पति की तेजस्वी ललकार पर राजपूत खड़ा हो गया। उसके सिर पर लाल रंग का साफा था। उसकी बांकडली मूंछो पर उसका हाथ ताव देने चला गया। जोश में उसके नथूने फडकने लगे।फिर वह अपनी तलवार की मूठ पर हाथ रखकर इतना ही बोल पाया “कुंवराणी !” कुंवराणी पूर्ववत स्वर से बोली, “आज सारे इतिहास को आग लगानी पड़ेगी। राजपूतों के शौर्य को मिटाना होगा। वरना एक राजपूत के होते हुए डाकू किसी लड़की को उठाकर ले जाए। छि: छि:!”

राजपूत चीख पडा। “क्षत्राणी,चुप रहो!”
“मैं चुप नहीं रहूंगी। मैं कहूँगी कि आप सब मर्दों को चूडियाँ पहन लेनी चाहिए।” उसने फटकारते हुए कहा।

सेठ की बेटी को जीप में डाल लिया था । वह क्रंदन करती हुई बेहोश हो गयी थी। खूंखार डाकू तेज सिंह बन्दूक  लेकर उसके समीप बैठ गया। 

उसने ड्राईवर को आज्ञा दी, “जीप रावाना करो।” पर जीप घर्र-घर्र करके रह गयी।
तेज सिंह ने बन्दूक के पिछले हिस्से से ड्राईवर को हल्का-सा धक्का देकर कहा, “जीप चलती क्यों नहीं?”

कुंवराणी ने सचमुच अपने हाथ की चूडियाँ खोलकर अपने पति की ओर बढ़ा दी, “लीजिए,इन्हें पहनकर आप बैठिये, और तलवार मुझे दीजिए।” राजपूत ने आवेश में कांपते हुए अपने स्वर पर काबू करके कहा, 

“कुंवराणी, मैं राजपूत तो वही हूँ पर समय बदल गया है।”
“समय कैसा बदल गया? राजपूत के लिए दूसरों की रक्षा करने का कोई समय नहीं होता।”
तेज सिंह पागलो की तरह चीखा, “जीप चलाओ!”

राजपूत ने किंचित व्यथित स्वर में कहा, “जरा होश में आकर बात करो। हम अभी गौना करके आये हैं। तुम्हारे हाथों की मेहंदी का रंग भी अभी नहीं उतरा है। घर पर ठुकराणी सा और ठाकुर सा हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसे समय हमें मत ललकारो!” 

जीप ड्राईवर ने कहा, “सरदार, बैटरी बैठ गयी है।” तेज सिंह चीखा। “क्या बकते हो?”  “सरदार,सच कह रहा हूँ।” राजपूतानी ने हाथ जोड़कर विनीत स्वर में कहा, “आपके माता पिता जब सुनेंगे कि उनका बेटा एक लड़की की रक्षा नहीं कर पाया, तो जीते जी मर जायेंगे।”

“स्थिति  को देख लो। पल भर में तुम विधवा हो सकती ही !”

“विधवा?...कुंवर सा, विधवा तो मैं तब भी हो सकती हूँ जब आप खिलखिलाकर हँसे और हँसते ही परलोक सिधार जाएँ। पर यह मृत्यु कितनी महान और आदरमयी होगी ! यदि आपने उस अबला की रक्षा नहीं की, तो मैं समझूंगी कि मैं जीते जी विधवा हो गयी हूँ।”

राजपूत अब अपने आप को रोक नहीं सका। वह बावला हो गया। उसके नेत्र से अंगारे से दहकने लगे। वह तडपकर बोला। “तुम राजपूत के जौहर देखना चाहती हो?”

“मैं उसे अपने धर्म पथ पर चलते देखना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ, वह अपने अतीत को न भूले। वह अपने शौर्य और कर्तव्य को ना भूले।”
उसी समय एक कार आ गयी। तेज सिंह ने अपने ड्राईवर को तत्परता से कहा, “इस कार की बैटरी लगाओ।” उसने हाथ के इशारे से कार को रोक दिया। राजपूत ने अपने साथी की कटार  ली। भूखे बाज की तरह वह बस से उतरा। तेज सिंह बन्दूक लिए खड़ा था। राजपूत ने अपनी कटार फेंकी, कटार तेज सिंह की पीठ पर जा कर लगी। तेज सिंह ने बन्दूक तानी। राजपूत तलवार निकालकर उस पर झपटा। फायर! राजपूत का एक हाथ जख्मी हो गया। उसने उसकी कोई परवाह नहीं की, वह तेज सिंह पर टूट पडा। उसको इस तरह टूटते हुए देखकर राजपूत का साथी भी लपका। तेज सिंह दूसरा फायर करना चाहता ही था कि उसके साथी ने बन्दूक को पकड़ कर ऊपर कर दिया।

राजपूत ने तलवार के वार शुरू कर दिया। जिस डाकू के तलवार लग गयी, वह वहीँ ढेर हो गया। लेकिन तेज सिंह बलिष्ठ और साहसी था। उसने जोर के धक्के से राजपूत के साथी को गिरा दिया। बन्दूक को उस पर तानकर जैसे ही फायर करना चाहा, वैसे ही राजपूत ने तेज सिंह पर तलवार का वार कर दिया। तेज सिंह को एक बार धरती घूमती हुई लगी। उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। लेकिन वह खूंखार भेडिया फिर से संभला। पूरे जोश के साथ फिर से वह राजपूत पर टूट पडा।

तभी राजपूतानी चिल्लाई, “आप सब बस में बैठे बैठे क्यों डर रहे हैं? जाइए न, उनकी मदद कीजिये!जाइए!”

उसकी ललकार पर एक जाट और ड्राईवर कूद पड़े। ड्राईवर के हाथ में एक लोहे की हथौड़ी थी। जाट ने आई हुई कार का हेंडिल खोल लिया। दोनों तेज सिंह पर टूट पड़े।
फायर!  चीखे।

लोगो ने देखा कि राजपूत एक ओर लुढक गया है। अब राजपूतानी अपने को रोक नहीं सकी। बेतहाशा अपने पति की ओर लपकी। पहली बात लोगो ने उस वीरता की तेजस्वी महान नारी के दर्शन किये। उसका चेहरा अद्भुत ओज से दीप्त था। आँखे बड़ी बड़ी और साहस की प्रतीक थी। राजपूतानी को उतरते देख बस की भीड़ डाकुओं पर टूट पड़ी। डाकू तेज सिंह भी बेहोश हो गया था। उसके साथी बस के कब्ज़े में थे।

राजपूत घायल अव्स्तहा में तड़प रहा था। वह अस्फुट स्वर में कह रहा था, “पानी!...पानी...!”
राजपूतानी ने आकुल स्वर में कहा, “पानी!”

तुरंत पानी लाया गया पानी की बुँदे जाते ही राजपूत ने आँखे खोली। उस समय तक सेठ भी सचेत होगया था। जब उसे मालूम हुआ कि उसकी बेटी की रक्षा के लिए एक वीर ने डाकुओं से संघर्ष किया है, तब वह राजपूत की और लपका। मन्नी को भी पानी छिडककर सचेत कर लिया गया था; वह भी राजपूत के पास आ गई थी।

राजपूत ने स्नेह विगलित स्वर से कहा, “कुंवराणी,वह लड़की कहाँ है?”

कुंवराणी ने सजल नयनों से देखा। तभी सेठ ने कहा, “यह रही मन्नी, मेरी बेटी, बिल्कुल ठीक है। आओ बेटी, इधर आओ। तुझे तेरा भैया पुकारता है।”

मन्नी राजपूत के पास आई। राजपूत का एक हाथ बिल्कुल घयाल हो चूका था। एक गोली सीने में लगी थी। लहूलुहान दूसरा हाथ भी था, किन्तु दूसरे हाथ से मन्नी को आशीष दिया। उसके सिर पर हाथ रखकर धीमे से बोला, “अच्छी है न बहन?”

मन्नी से कुछ बोला भी नहीं गया। वह फफक पड़ी। बाद में राजपूत ने राजपूतानी की ओर देखा। उससे वह टूटते हुए स्वर में बोला, “कुंवराणी! “मैंने तुम्हारी बात पूरी कर दी, वह लड़की अच्छी है...अच्छा कुंवराणी, भूल चूक माफ करना। मेरे माँ बाप की जिम्मेदारी अब तुम्हारी है। वे बहुत बूढ़े हो चुके हैं।”

कुंवराणी दहाड़ मार बैठी, “नहीं,नहीं! ऐसा नहीं हो सकता! इन्हें जल्दी से अस्पताल ले चलिए।”

राजपूत के चेहरे का ओज निस्तेज हो गया। वातावरण में मृत्यु की ख़ामोशी और सन्नाटा छाता गया। सारे यात्रियों की आँखे नम थी। समीप ही तेज सिंह अचेत पडा था। जो कार आई थी, उससे राजपूत को अस्पताल ले जाए और पुलिस को खबर करने की व्यवस्था की गयी। लेकिन राजपूत का रक्त बहुत बह चूका था। उसने एक बार फिर कुंवराणी की तरफ देखा। उसके हाथों से मेहंदी के फूल महक रहे थे। राजपूत अपनी आँखों से उन मेहँदी के फूलों को देखता रहा जो सुहाग के चिन्ह थे। राजपूतानी विपुल वेदना से तड़प रही थी। 

वह एक बार फिर चीखी, “इन्हें अस्पताल ले चलिए।”

लोगों ने राजपूत को उठाना चाहा। उसने हाथ से न उठाने का संकेत किया। उसका चेहरा स्याह हो गया। उसने एक बार फिर मेहँदी रचे कुंवराणी के हाथों को देखा। मुस्कुराया। उन्हें चूमा। कुंवराणी दर्द से काँप रही थी। उसने कांपते स्वर में कहा, “आप बिल्कुल ठीक हो जायेंगे, इन्हें जल्दी अस्पताल ले चलिए।” और राजपूत ने कुंवाराणी के हाथों को अपने सीने से लगा लिया। 

उसकी आँखे फट गयी। उसके हाथ फ़ैल गए। कुंवराणी और सारी उपस्तिथि सुबक पड़ी। कुंवराणी ने अपने हाथ उठाये। हाथों पर बने मेहंदी के फूल खून से विभत्स धरातल की तरह सपाट बन गए थे, जैसे हाथों पर कुछ था ही नहीं, सिर्फ रक्त ही रक्त !

- यादवेन्द्र शर्मा 'चंद्र'

बुधवार, 13 सितंबर 2017

प्रतिहार क्षत्रिय राजवंश ग्वालियर तोंवरी देवी का जौहर (pratihar kshatriya rajvansh gwalior )

-> ग्वालियर का प्रतिहार क्षत्रिय वंश < -----
आज हम आप लोगो को ग्वालियर के प्रतिहार वंश एवं उनके संघर्ष की कहानी बतायेंगे। जब तुर्कों के आक्रमण से परिहार रानी तोंवरी देवी को जौहर करना पडा था। जिसमे उनके साथ 1500 से ऊपर राजपूत महिलाएं भी थी।।
ग्वालियर पर प्रतिहार क्षत्रियों ने लगभग 150 वर्ष शासन किया है। यहां के प्रतिहार कन्नौज के प्रतिहारो के सामंत के रुप मे कार्य करते थे और इन्ही के भाई परिवार थे। ग्वालियर पर नागभट्ट द्वितीय ने सन 795 ईस्वी मे ग्वालियर दुर्ग का निर्माण करवाया था। कुछ दिनो के बाद दुर्ग की हालत खराब हो रही थी तब सन 850 ईस्वी मे मिहिरभोज प्रतिहार ने ग्वालियर को अपने साम्राज्य कन्नौज की उपराजधानी बनाया और ग्वालियर दुर्ग को सजाया और संवारा। इस विशाल राजप्रसाद को बागों झरनों से सुसज्जित किया एवं रानियों के लिए अनेक बिहार स्थल भी बनवाये। मिहिरभोज के शासनकाल में उसका नाती किट्टपाल परिहार किले का रक्षक था।
सन 1036 ईस्वी में कन्नौज का सम्राट यशपाल था तभी महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण करके उसे नष्ट कर दिया। प्रतिहार लोग कन्नौज छोडकर " बारी " चले गये थे। इस संस्कृति काल का लाभ उठाकर राठौर चंद्रदेव ने कन्नौज के खंडहर मे अपना डेरा जमा लिया और प्रतिहार परिवार को वहां से भगा दिया। संयोगवश इस समय ग्वालियर दुर्ग की देखभाल इल्लभट्ट परिहार एवं कछवाह दूल्हाराय तेजकर्ण था। वह कन्नौज के इस सरदार परमादेव का मामा था। उसने प्रतिहारो को निराश्रित देखकर भांजे परमादेव को बारी जाने से रोक लिया और सपरिवार ग्वालियर दुर्ग में शरण दे दिया।।
परमादेव हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला नही था। उसने एक संगठित सेना बनाई सभी को एक किया। एक सुदृढ सैन्य संगठन हो जाने पर सन 1045 ईस्वी मे प्रतिहारों ने पुनः ग्वालियर पर अधिकार जमा लिया और अपने को राज्य का राजा घोषित कर दिया। विरोध करने वालो को राज्य से भगा दिया। सन 1193 के आस पास ग्वालियर तथा चंदेरी राज्य के अंतर्गत वेतवा नदी के पश्चिम का चंबल यमुना संगम से लेकर उत्तरी मालवा तक का क्षेत्र प्रतिहारों के आधीन था।
किंतु मुहम्मद बिन साम गोरी से प्रतिहारों का यह अधिकार देखा न गया तो उसने 1195 ईस्वी मे ग्वालियर दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। उस समय प्रतिहारो की सहायता करने वाला कोई न रहा तो उन्होने गोरी से समझौता कर लिया। समझौता होने पर भी गोरी ने ग्वालियर पर तुगरिल को बयाना का हाकिम बनाकर उसे ग्वालियर दुर्ग जीतने का आदेश देकर चला गया। इस प्रकार तुगररिल ने आस पास के गांवो को काफी दिन तक लूटा खसोटा। किंतु नटुल प्रतिहार के पौत्र तथा प्रताप सिंह के पौत्र विग्रह प्रतिहार से ग्वालियर की यह दुर्दशा देखी न गई उसने तुर्कों की संरक्षण टोली को ग्वालियर से खदेड कर भगा दिया।और 14 वर्ष के अंतराल से पुनः ग्वालियर पर अपनी सत्ता स्थापित की। विग्रह प्रतिहार और उसके भाई नरवर्मा की वंशावली दो ताम्रपत्रों से प्राप्त होती है। अतः 100 वर्षो की अवधि में परमादेव के वंशज विजयपाल, वासुदेव , कर्णदेव और सारंगदेव आदि ने ग्वालियर राज्य का संचालन किया - इस वंश की वंशावली इस प्रकार है-
ग्वालियर और नरवर के बीच चटोली ग्राम में सन 1150 ई. का एक शिलालेख मिला है। जिसमे रामदेव प्रतिहार उल्लेख है। यह रामदेव प्रतिहार ग्वालियर के अंतिम प्रतिहार राजा कर्णदेव के तृतीय पुत्र थे, जिन्हें बाद मे औरैया इलाका दिया गया। इसके पश्चात ग्वालियर गढ के गंगोलाताल के वि. सं. 1250 तथा 1251 के दो शिलालेख प्राप्त हुए है। जिनसे यह ज्ञात होता है की इन वर्षों में गढ पर जयपाल देव राज्य कर रहे थे। उन जयपाल देव की मुद्राएँ भी प्राप्त हुई है। हसन निजामी ने जिस सोलंखपाल का उल्लेख किया है वह इन्ही जयपाल के उत्तराधिकारी थे। जिसका वास्तविक नाम सुलक्षणपाल था एवं जिनका मुगल सम्राट शहाबुद्दीन के बीच युद्ध हुआ और शहाबुद्दीन ने ग्वालियर गढ को चारो ओर से घेर लिया। उसने यह अनुभव किया की सीधा आक्रमण करने से इस अभेद्य गढ को हस्तगत नही किया जा सकता इसके लिए बहुत दिनो तक गढ को घेरे रहना पडेगा। प्रतिहार राजा को त्रस्त करने के लिए मुगल सम्राट ने रसद पानी बंद करा दिया। हसन निजामी के ताजुल म आसिर के अनुसार - सुलक्षणपाल भयभीत और हताश हो गये तथा उन्होने संधि की चर्चा की और कर देने के लिए सहमत हो गये, दस हांथी उपहार में दिये गये। शहाबुद्दीन ने यह संधि स्वीकार कर ली और गजनी लौट गया। उसका सेनापति कुतुबुदीन ऐवक दिल्ली लौट गया और दूसरा सेनापति शहाबुद्दीन तुगरिल " त्रिभुवन गढ " चला गया।
उधर दिल्ली में भी इस काल मे भारी उथल पुथल मची थी। दिल्ली के सिंहासन पर कुतुबुद्दीन ऐवक बैठ गया। वह एक विलासी एवं मक्कार था। उसके हाथ मे प्रतिहार राजा सुलक्षणपाल ने ग्वालियर की सत्ता दे दी थी। जिससे कुतुबुद्दीन ऐवक तथा बहाउद्दीन तुगरिल के बीच मनमुटाव हो गया था। इसी मनमुटाव के कारण सन 1210 ई. में उसी के एक दास शमसुद्दीन इलतुमिश के हांथो हत्या करवा करवा दी गई और उसे स्वयं दिल्ली का सुल्तान बना दिया गया। उसे शासन से नही धन से मतलब था। इसीलिए सुल्तान बनते ही देश नगरों ग्रामों को लूटना प्रारम्भ कर दिया। उसको बताया गया की ग्वालियर दुर्ग मे बहुत धन संपदा है और उसने पहले ही तुर्को को मार भगाया, जो सुल्तान का शत्रु है।

अतः इलतुमिश ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। दिल्ली की भारी सेना के सामने राजपूत सेना बहुत कम थी, किंतु परिहार राजाओं ने न तो हथियार डाले और न ही शत्रु को किले मे घुसने दिया। प्रतिहारों की मोर्चा बंदी इतनी मजबूत थी की कभी - कभी सुल्तान को अपने सैनिकों को मौलवियों के भाषणों और उपदेशों से प्रोत्साहित करना पडता था। दृढ निश्चय के साथ किये जाने वाले युद्ध और सुल्तान के व्यक्तिगत नेतृत्व के कारण लगभग ग्यारह महीने तक इलतुमिश घेरा डाले रहा परंतु किले में घुसने मे सफल नहीं हो पाया। अंत में उसने चालबाजी करने की सोची रात्रि के अंधेरे में वह दुर्ग के पश्चिम की ओर से अंतरी बनाकर घुसा और वहीं से चोरों की भांति दुर्ग में सैनिकों को उतार दिया। चोरों ने दुर्ग का दक्षिणी भाग भी खोल दिया। दुर्ग के अंदर भयानक मारकाट भोर होते तक चली राजपूती सेना बाहर से आ गई सुल्तान भाग निकला। रात में कैद किये सैनिकों व महिलाओं को दुर्ग से निकाला जा चुका था। और इनमें 400 राजपूत और 200 महिलायें थी जिन्हें सुल्तान ने कत्ल करवा दिया।

सुल्तान का दूसरा आक्रमण भी विफल रहा। ग्वालियर के परिहारों ने ग्वालियर गढ प्राप्त करने का प्रयास किया। कुरैठा के वि. सं. 1277 ई. के ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि उस समय ग्वालियर गढ पर विग्रहराज जो कर्णदेव का बडा पुत्र सारंगदेव (मलयवर्मन) ग्वालियर का राजा था, वह बडा नीतिज्ञ था। सुल्तान का तीसरा और अंतिम आक्रमण 12 दिसंबर 1232 को हुआ। मलयवर्मन ने देश पर आई आपदा का मान अन्य राजाओं को कराया। उसके आह्वान पर यदुवंशी, तोमर , सिकरवार, और सूर्यवंशी राजाओ ने एकत्र होकर एक सुगठित सेना बनाई। इस सेना और दिल्ली की तुर्क सेना के मध्य ग्यारह माह तक भीषण संग्राम चलता रहा। तुर्क सेना लाख से भी उपर थी - उसने सारा ग्वालियर घेर लिया था। और चारो ओर से दुर्ग के लिए रसद पानी बंद करवा दिया था। राजपूती सेना दिन - ब - दिन घटती जा रही थी। उधर मेरठ , आगरा , दिल्ली , कानपुर, से धन और जन दोनों आ रहे थे , किंतु फिर भी परिहारों की स्थिति काफी जर्जर होती जा रही थी। अब युद्ध अवसान की ओर जा रहा था।

अंत में 20 नवंबर 1233 ई. को ग्वालियर महारानी तोंवरीदेवी ने क्षत्रियों को अंतिम समर मे कूद पडने का संदेश भेज दिया। सभी क्षत्राणियों ने साज श्रंगार किया चंदन की विशाल चिता बनवाई गई और " जय दुर्गे जय भवानी " कहते हुए हजारो ललनाएं जौहर की धधकती ज्वाला मे स्वाहा हो गई। इस प्रकार प्रतिहार रानियाँ चिता में जौहर हुई और कुछ रानियाँ जौहर ताल में विलीन हुई।

स्वर्ग अवछरा आई लेन । देव सिया भरि देखई नैन।।
धन्य - धन्य तेउं उच्चरै । सुर मुनि देखी सर्वे जय करैं।।

क्षत्राणियों का जौहर क्षत्रियों ने देखा और वे पीत बसन बांधकर तुर्की सैनिकों पर टूट पडे। देखते - देखते उनहोंने 5000 से उपर शत्रुओं को मौत के घाट उतार दिया। इस समर में 1500 परिहार राजपूत पहुंचे थे। इनमे से एक भी जिंदा नहीं लौटा।

पांच हजार तीन सौ साठ , परे अमीर लोह घटि।।
जूझो सारंगदेव रन संग , एक हजार पांच सौ संग।।

जौहर ताल के लिए भांट बताते है की प्रतिहार राजपूत स्त्रियों ने किस प्रकार जौहर कर अपने प्राणों की आहुति दी।।

पहले हमे जु जौहर पारि।
तब तुम जूझे कंध समहारि।।

इस घटना का उल्लेख एक शिलालेख में किया गया था, किंतु अब यह गुम हो गया। उरवाई घाटी को घेरने वाली दिवाल इलतुमिश के समय बनवाई थी। इस अंतिम युद्ध का सेनापति तेजस्वी परिहार मलयवर्मन कर रहा था। तथा उसके पुत्र हरिवर्मा , अजयवर्मा , वीरवर्मा मारे गये। सारंगदेव के बच्चे मऊसहानियां भेज दिये गये। अन्य भाई जिगनी - डुमराई चले गये। ग्वालियर में मलयवर्मन का सौतेला भाई नरवर्मा बच रहा था।

नरवर्मा प्रतिहार ने इलतुमिश के बेटे फिरोज रुकुनुद्दीन से समझौता कर लिया। इस समझौते के अनुसार नरवर्मा तथा उसके कुछ साथी (राजपूत) को दुर्ग में रहने का अधिकार मिल गया। किन्तु दिल्ली मे जब रजिया सुल्तान का शासन काल आया तो उसने ग्वालियर पर डेरा डाला और समझौते को रद्द कर दिया। उसने नरवर्मा को दुर्ग से बाहर निकाल दिया एवं चाहडदेव को दुर्ग की देखभाल सौंप दिया। इस प्रकार कभी तुर्क तो कभी परिहार इस दुर्ग पर अधिकार करते रहे। चाहडदेव भी परिहार था उसने धीरे - धीरे जन - धन एकत्र कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। किंतु दिल्ली पर पुनः तूफान आया और उलुग खान बलवन की शक्ति बढ गई। दिल्ली की गद्दी छिनने के बाद पहला आक्रमण ग्वालियर पर करके चाहडदेव को बंदी बनाना चाहा। परंतु अजेय दुर्ग के भीतर न घुस सका और वापस लौट गया। सन 1258 ई. मे बलबन बहुत शक्तिशाली हो गया था उसने बडी सेना लेकर ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया उस समय तक चाहडदेव स्वर्गवासी हो चुका था। उसका नाती " गणपति याजपल्ल " दुर्ग का अधिपति था।

इसमें इतनी क्षमता नही थी की कुछ हजार सैनिकों के बल पर वह दिल्ली की सेना का सामना कर सके। अस्तु वह रात में ही परिवार सहित बिहार चला गया। जहां इनके वंशजो ने परिहारपुर ग्राम बसाया और आज भी हजारो की संख्या में आबाद है। और बाकी कुछ प्रतिहार दल झगरपुर , वीसडीह , मैनीयर उत्तर सुरिजपुर , सुखपुरा, हरपुरा आदि ग्रामों मे आबाद है। चाहडदेव ने अपने राज्य का विस्तार चंदेरी तक कर लिया था। इस तरह कभी सत्ता मे तो कभी सत्ताहीन होकर ग्वालियर मे परिहारो का आवास रहा है और लगभग 150 वर्षो तक संघर्षरत शासन किया। और आज भी ग्वालियर अंचल मे लगभग 25 से उपर गांव है प्रतिहारो के जो आवासित है।

ग्वालियर प्रतिहार वंश के शासक

परमादेव प्रतिहार
विजयपाल प्रतिहार
जलहणसी प्रतिहार
वासुदेव प्रतिहार
संग्राम देव प्रतिहार
महिपालदेव प्रतिहार
जयसिंह प्रतिहार
कृपालदेव प्रतिहार
कर्णदेव प्रतिहार
सारंगदेव प्रतिहार

13 वीं शताब्दी तक ग्वालियर से परिहार वंश का पतन हो गया और बचे कुचे परिहार अलग अलग जगह बस गये। जिसमे सारंगदेव ग्वालियर को छोडकर मऊसहानियां आ गये। एवं इनके अन्य भाई राघवदेव परिहार रामगढ जिगनी चले गये, रामदेव परिहार औरैया गये एवं छोटे भाई गंगरदेव परिहार डुमराई में जा बसे जहां आज भी इनके वंशज लगभग 30 गांवो से उपर आबाद है।

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प्रतिहार\परिहार क्षत्रिय वंश।।

जय नागभट्ट।।
जय मिहिरभोज।।

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

नही रहे आजाद भारत के सबसे बड़े इतिहासकार क्षत्रिय युवक स्वयंसेवक सवाई सिंह जी धमोरा

आज़ाद भारत के सबसे बड़े इतिहासकार नहीं रहे। 

जो स्वयं एक इतिहास थे, एक आंदोलन थे, बैखोफ थे, बेलाग थे, एक सभ्यता व संस्कृति के ध्वज वाहक थे, तो सही के लिए अंतिम दम तक अपनी बात पर टिकने वाले व्यक्तित्व थे। 

वे एक ऐसे पत्रकार भी थे जो अपनी मर्ज़ी के मालिक थे, मूढी थे,बिकाऊ नहीं थे तो किसी की चमचागिरी में अपनी कलम को रगड़ते भी नहीं थे । राजस्थानी भाषा व संस्कृति की चलती  फिरती डिक्शनरी थे, आकाशवाणी के प्रसिद्ध वाचक थे तो  वे अनेक अखबारो के प्रसिद्ध स्तंभकार थे, संघ शक्ति के लम्बे समय तक रहे सम्पादक थे तो इस आयु में भी आज राष्ट्रदूत अख़बार व मेगजिन जिनके  बिना अधूरा था। 

वे भू स्वामी आंदोलन के प्रणेताओ में से एक थे तो ज़ैल यात्री भी थे। वे कँवर आयुवान सिंह जी व तन सिंह जी के साथी थे तो बड़ों में बड़े व बच्चों में बच्चे थे। 

सच कहूँ तो वे पता नहीं क्या क्या थे,,, पर यह सच है जैसे वो थे वैसा कोई और नहीं था। 

मूर्द्धन्य इतिहासकार, बेख़ौफ़ पत्रकार शेखावॉटी  के गौरव व समाजसेवा व राष्ट्रसेवा के पथ के अथक पथिक व मेरे आदर्श सवाई सिंह धमोरा के निधन पर शत शत नमन। 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
:----महावीर सिंह राठौड़ (रुवाँ)