मंगलवार, 27 जून 2017

शरणागत तीतर को बचाने पर सोढा (परमार)का युद्ध और माता का बेटे के साथ सती होना

उज्जैन के परमार वंश की एक शाखा सिंध के रेगिस्तान में आई। वह शाखा के मुलपुरुष सोढाजी के नाम से सोढा परमार कहलाई। सोढा ओके हाथ में अमरकोट की जागीर आई।
थरपारकर का राज यानी रेती के रण का राज।

बापू रतनु जी तो कैलाश के वासी हो गए थे। पर माता जोमबाई थे, उनके चार पुत्र आखोजी, आसोजी, लखधीरजी और मुंजोजी थे।
माँ बेटे भगवान पारसनाथ के परम भक्त थे।
संवत 1474 में थरपारकर में अकाल पड़ा। दो हजार सोढा अपनी गाय भैसों के साथ अकाल से बचने सोरठ जाने को तैयार हुए तब चारो भाइयो को चिंता होने लगी की परदेश में अपनी बस्ती की रक्षा कोण करेगा?
आखोजी बोले: भाई लखधीर, तुम और मुंजोजी बस्ती के साथ जाओ, में और आसो यहा का ध्यान रखेंगे।
लखधीरजी और मुंजाजी बस्ती के साथ जाने अपनी हंसली घोड़ी पर सवार हुए। तब माता जोमबाई ने कहा: बेटा, परदेश में अपनी बस्ती को माँ कहा से मिलेगी? इस लिए में भी साथ आउंगी।
माताजी भी रथ में बेठ गयी, और बस्ती साथ चली। जगह जगह मुकाम करते करते चल पड़े सोरठ की और।
पर लखधीरजी को प्रण था की वे इष्टदेव पारसनाथ के दर्शन करने के बाद ही अन्न ग्रहण करते थे। इस लिए जहा वे मुकाम करते वहां से लखधीरजी अपनी हंसली घोड़ी को वापस मोड़कर पीलू गाव में जहा उनके देव का मंदिर था वहां आकर देव की पूजा करते और बाद में ही भोजन ग्रहण करते। पर जेसे जेसे मुकाम हररोज आगे बढ़ता जा रहा था इस हिसाब से उनको पीलू पहोचने ने समय ज्यादा लगने लगा।
एक रात को लखधीरजी के स्वप्न में आकर देव ने कहा :" बेटा, कल सवेरे सूर्यनारायण के उगते ही आपको सामने एक कुवारी गाय आकर जमीन पर अपना पैर खुतरेगी, उस जमींन को खोदना वहां तुम्हे मेरी प्रतिमा मिलेगी, उस प्रतिमा के दर्शन कर तुम भोजन ग्रहण करना, उसे अपने साथ रथ में ले जाना जहा तुम्हारा रथ अटक जाए, आगे न चल पाये वहा उस प्रतिमा की स्थापना करना, उस जगह तुम्हे फ़तेह मिलेगी।
और देव के कहे अनुसार सवेरे मांडव में एक गाय लखधीरजी के सामने आकर जमीन पर एक जगह अपना पैर घिसने लगी। लखधीरजी ने उस जगह खुदवाया, वहा उन्हें देव मांडवरायजी की प्रतिमा मिली, मांडवरायजी को जोमबाई ने रथ में बिठाया। और सोने के थाल के समान पांचाल भूमी पर मोती के दाने जेसे पर्वतो की माला देखकर अग्निपुत्र परमार आगे बढे।

कंकु वर्णि भोमका सरवो सालेमाळ।
नर पटाधर निपजे भोय देवको पांचाल॥
नदी खळके नीझरणा मलपता पीए माल।
गाळे कसुम्बा गोवालिया पड जोवो पांचाल॥
ठाँगो मांडव ठीक छे कदी न आँगन काल।
चारपगा चरता फरे पड जोवो पांचाल॥

चलते चलते एक दिन उस सोहमने प्रदेश में एक छोटी सी नदी को पार करते समय नदी के बिच में रथ रुक गया। कई सारे बैल भी जोड़कर देवका रथ खिंचा पर रथ अपनी जगह से ज़रा भी न हिला। तब लखधीरजी ने अपनी पाघड़ी का छेड़ा गले में डालकर प्रभु को हाथ जोड़ कहा: हे देव मांडवराय, आपने कही बात मुझे याद हे की जहा रथ रुके वहा में आपकी स्थापना कर गाव बसाऊ, पर हे देव, इस नदीके बीचोबीच गाव कैसे बन सकता है? आप कृपा कर सामने किनारे तक चलिए वहां आपकी स्थापना कर में गाँव बसाऊंगा। और इतना कहकर उन्होंने रथ के पहिये पर हाथ लगाया ही था कि जेसे रथ के निचे नदी के अंदर आरस का मार्ग बन गया हो इतनी आसानी से रथ चल गया।
किनारे पर लखधीरजी ने बस्ती को गाव बसाने का आदेश दिया। पर उन्होंने सोचा यह प्रदेश अपना नहीं हे इसलिए प्रथम इस प्रदेश के राजा से अनुमति मांगनी चाहिए। उन्होंने तपास की, वह प्रदेश वढवान के वाघेला राजा वीसलदेव जी का था।
पूरी बस्ती का ख्याल रखने का मुंजाजी को सोपकर लखधीरजी वढवान आये। वाघेला वीसलदेव चोपाट खेल रहे थे। अपनी हंसली घोड़ी के पैर में लोहे की नाळ डालकर घोड़ी लगाम पकड़ कर वे वहा खड़े रहे। वीसलदेव ने आगंतुक को देखा, देखते ही लखधीरजी उनको पूर्ण क्षात्रत्व को धारण किये दिखे।
वीसलदेव ने उनसे नाम-ठाम पूछे बिना ही चोपाट खेलने का न्योता दिया। लखधीरजी भी चोपाट खेलने बेठे। वीसलदेव ने घोड़ी को बांध देने के कहने पर लखधीरजी ने कहा यह घोड़ी मेरे बिना और कही पर भी नही रहेगी। और में हु तब तक वह बैठेगी भी नही।
हाथ में ही घोडी की लगाम पकडे रखे वे चोपट खेलने लगे। चोपट में लखधीरजी का हाथ गजब का चलता था। चाहे जैसे पासे डाल सकते थे।
खेल ख़त्म हुआ तब वीसलदेव ने वे कौन है तथा उनके आने का प्रयोजन पूछा तब लखधीरजी ने उनको पूरी बात बताई।
वीसलदेव ने कहा: वह जमीन तो बंजर ही पड़ी हे। अगर आप उस जमींन पर कब्जा भी कर लेते तो भी में कुछ न कहता। पर आप ने राजपूती दिखाई इस लिए में वह गौचर के उपरान्त वहा की सारी जमींन आपको देता हु। पर आपको हररोज यहाँ मेरे साथ चोपाट खेलने आना पड़ेगा।
वीसलदेव की शर्त मान कर लखधीरजी अपनी बस्ती में वापस आये।पर वीसलदेव के दरबार के कुछ दरबारिओ को यह बात पसंद न आई। अतः उन्होंने परमारों को अपने प्रदेश से खदेड़ने के प्रयास शुरू किये।
सायला के चभाड़ राजपुतो ने एक दिन जब लखधीरजी वीसलदेव के पास वढवान में थे तब शिकार का बहाना कर एक तीतर पक्षी को शिकार में घायल किया। तीतर भागता हुआ परमारों की जमींन में आ गिरा। तीतर भागता हुआ जोमबाई जहा अपने इष्टदेव मांडवरायजी की उपासना कर रहे थी वहां मांडवरायजी जी प्रतिमा के बाजोठ के निचे छिप गया। जोमबाई ने उस घायल पक्षी को बाहर निकाला और उस फड़फड़ाते पक्षी को अपने आँचल में आश्रय दिया।
बाहर चभाड़ सोढा परमारों से कहने लगे हमारा शिकार हमे वापस दो, वर्ना परिणाम अच्छा नही रहेगा।
जोमबाई तीतर को अपने हाथ में लिए बाहर आये, चभाड़ो ने तीतर को जोमबाई के हाथ में देखकर मन ही मन खुश हुए, जोमबाई ने कहा: आप दिखने में तो राजपूत दिखते हो!
चभाड़ो ने कहा : हां हम चभाड़ राजपूत है।
तब जोमबाई ने कहा : "तो क्या तुम लोग यह नही जानते की राजपूत कभी भी अपने शरणागत को नही सौपते? यह तेतर हमारी जमींन में आकर गिरा हे, भगवान मांडवरायजी इसे रक्षण दे रहे हे। हम इसे नहीं दे सकते।"
तब चभाडो ने युद्ध करने को कहा इस पर जोमबाई ने अपने बेटे मुंजाजी को कहा : बेटा, राजपूतो का आशराधर्म आज तुजे निभाना हे।
सोढा परमार और वीसलदेव की सेना भीड़ गयी। घमासान युद्ध हुआ और वहा रक्त की धाराए बहने लगी, एक तीतर को बचाने के लिए सोढा परमार अपने रक्त से उस धरती को सींचने लगे, चभाड़ो को गाजरमुली की तरह काटने लगे। मुंजाजी अपने अप्रतिम शौर्य को दिखाते हुए रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए।
उस युद्ध में 500 चभाड़ो के सामने 140 सोढा परमार राजपूत योद्धा काम आये।
लखधीरजी को वढवान में पता चलते ही वे अपनी बस्ती में आये, वहा परमार माता जोमबाई अपने बेटे मुंजाजी के मृत शरीर के पास बेठी थी। लखधीरजी ने माता को आश्वासन देते हुए कहा : माँ, मुंजा तो अपनी शौर्यभरी गाथा यहा छोड़ गया हे। उस पर आसु मत बहाना। राजपूती आश्रय धर्म को बचाने वह इस धरती की गोद में सो गया हे।
तब जोमबाई ने कहा : बेटा लखधीर, तेरे पिता के स्वर्गवास को 20 वर्ष हो गए हे। तेरे पिता की मृत्यु पर मुंजा मेरे पेट में था इस लिए में सती ना हो पायी थी पर आज में अपने पुत्र के साथ तेरे पिता के पास जाउंगी।

और वहा जोमबाई अपने पुत्र की चिता में बैठकर सती हो गयी। आज भी वहां की खांभी जेसे उन के शौर्य की बात कहती हो ऐसे अडग खड़ी हे।
एक अबोल तीतर की जीवरक्षा के लिए सोढा परमारों ने अपने प्राणों की आहुति देकर राजपूतो के आश्रयधर्म को निभाकर अपना नाम इतिहास में अमर कर दिया।
लखधीरजी ने जो नगर बसाया था उस का नाम मूली रखा था जो आज भी विद्यमान है। कहते है कि इस नगर का नाम लखधीरजी के धर्म बहिन मूली के नाम पर रखा था

शनिवार, 24 जून 2017

चम्बल बीहड़ के शेर

                                       =====हमारी चम्बल एक सिंह अबलोकन=====

उबड़ खाबड़ जमीन कभी सेकड़ो फिट गहरी खायी तो कभी सैकड़ो फिट ऊँचे पहाड़ नुमा ढलानों से छेँकुर,बबूल,गुग्गल,पीपल,पिलुआ,हिंस, नीम ,गुबड़ा,श्वेतार्क जेसी बहुमूल्य औषिधियो से परिपूर्ण एक क्षत्रीय बाहुल्य क्षेत्र हे "तंवर घार".. 

जिसके पूर्व में भोर के समय स्वर्णमय आभा आच्छादन तो शाम को रजत प्रकीर्णन करती माता चम्बल की कल कल निनादिनी स्नेह बत्सलता का शुभाशीष मिलता हे । एक दृष्टि में आम जन्मानष् के कर्णो के द्वारा श्रवण हुआ ये शब्द अक्सर मष्तिष्क में एक डरावनि छवि डाकू का वृतचित्र बना देती किन्तु सत्य से मीलो दूर ले जाने बाला भरम हमारे मष्तिष्क पटल को संकीर्ण और संकीर्ण करता रहा । यथार्थ में इस वीर भूमि पर डाकू न होकर देश की संस्कृति एव धर्म को बचाने के लिए करीव १५शताब्दी पहले मुगलो के विरुद्ध एक छापामार सैना का गठन तत्कालीन रियास्तदारो,जमीदारो ,ठाकुरो के सहयोग से हुआ । 

तत्कालिक तोमर,भदोरिया,कछवाह ,सिकरवार,परिहार क्षत्रिय कुलो से सुसज्जित सैना ने मुगलो को कभी इस क्षेत्र में दखल न होने दिया । जिसमे क्षेत्रीय दैवीय शक्तियो का सहयोग का भी वर्णन बुजुर्गो के श्री मुख से मिलता हे । जिसमे 5 वि शताब्दी कालीन महादेव जी का पुरातन महुआदेव मन्दिर ठिकाना महुआ (महुआ,पालि,विजयगढ़) पर हुए महमूद गजनवी के हमले में गजनवी सैना मंदिर प्रांगड़ से पहले ही अंधी हो गयी थी । परिणीति में मलेक्ष्य सैना को गाजर मूली की तरह बीहड़ी खारो में ही काट कर निपटा दिया गया । जिसकी याद में आज भी फाल्गुन माह की तृतीय तिथि को बिशाल दंगल और मेले का आयोजन होता आ रहा हे । किसी भी दुष्ट आक्रमणकारी ने कभी फिर साहस न किया इस क्षेत्र में आक्रमण करने का । यही युद्ध शैली हल्दी घाटी के महान पूर्वज योद्धा ग्वालियर महाराज श्री रामशाह तोमर जी ने अपनायी । छापामार,गुर्रिल्ला युद्ध का समिश्रण ही था की दुस्ट अकबर को बार मुह की खानी पड़ी मेवाड़ में । यहाँ के जल में ही ऐसी विलक्षण गुण विद्द्यमान हे की जिसे पान करते ही देशभक्ति मातृभूमि की भावनाये समन्दर के सामान असीम हो उठती हे । पोरसा तहसील से मात्र 7 किमी दूर पुरानी_कोंथर ठिकाने के अद्भुत कुए आज भी विद्यमान हे जिनके मात्र जलपान से लगातार 2वर्ष तक अंग्रेजी और सिंधिया फौज को रुलाये रखा ग्राम वासियो ने । शनै शनै समय के थपेड़ो में ये वीर भूमि जिस सैना के नाम से विख्यात थी वही उसी को अंग्रेज शाशन में वीर का अपभ्रंश बागी बना दिया.... जो आगे चलकर क्रान्ति की अलख में शामिल हुए बो बागी कहलाये अंततः ब्रिटिस सरकार की नीति फुट डालो शाशन करो लागू किया गया । और कुछ मन्द बुद्धि,धन लोलुप प्राणियो को छद्म उपाधियों का लालच देकर इस क्षेत्र की अखण्डता को छिन्न भिन्न कर दिया गया । डकेत शब्द का प्रचलन भी इन्ही धन लोलुप गुलामो के कारण आया । सत्यता में ये क्रान्ति के नायक थे जिन्होंने रसूखदारों के जुल्म से त्रस्त होकर बीहड़ो का रास्ता लिया और स्वम ही स्वम को रायफल से न्याय दिलाने चम्बल की गोद में शरण ली ।

 फिर चाहे बो रामप्रसाद बिस्मिल जी हो असफाक उल्ला खान हो या ठाकुर रोशन सिंन्ह जी या नगरा के ठाकुर सूबेदार सिंह,माधो सिंह लाखन सिंह रुपा पण्डित ,फूंदी बाड़हि,जिलेदार सिंह ,हजूरी ,लायक,रमेश सिकरवार,रमेश राजावत इत्यादि या भारत की स्टेपल रेस के प्रशिद्ध धावक विश्व कीर्तिमान बनाने बाले पानसिंह तोमर । ये बागी स्वतः नहीं बने समय और मजबूरी में हथियार उठाना ही पढ़ता हे ।
 (जिनपर क्रम बार समय मिलने पर चम्बल गाथा के साथ लिखूंगा ) (हालांकि कुछ दुस्ट डाकुओ ने सिर्फ लूटपाट ही की हे इसलिए उनका वर्णन निर्थक हे )

 सलग्न चित्र प्रशिद्ध बाग़ी माधो सिंह ,मोहर सिंह आगे अंक क्रमश : जय वीर भूमि "तंवरघार" 

 साभार -जितेन्द्र सिंह तोमर जय चिल्लाय भवानी

गुरुवार, 15 जून 2017

प्रतापी शाशक सुहेलदेव बैस

मित्रो आज हम आपको भारतीय इतिहास के एक ऐसे महान राजपूत योद्धा से परिचित कराएंगे जिन्होंने विभिन्न राजपूत राजाओं का अपने नेतृत्व में संघ बनाकर इस्लामिक हमलावरो का सफलतापूर्वक सामना किया और अयोध्या, काशी जैसे हिन्दू तीर्थो की रक्षा की लेकिन जिसे देश की हिन्दू जनता ने ही भूलाकर एक आक्रमणकारी जेहादी को अपना भगवान बना लिया।
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सुहेलदेव बैस का वंश परिचय -----
राजा सुहेलदेव बैस 11वीं सदी में वर्तमान उत्तर प्रदेश में भारत नेपाल सीमा पर स्थित श्रावस्ती के राजा थे जिसे सहेत महेत भी कहा जाता है।
सुहेलदेव महाराजा त्रिलोकचंद बैस के द्वित्य पुत्र विडारदेव के वंशज थे,इनके वंशज भाला चलाने में बहुत निपुण थे जिस कारण बाद में ये भाले सुल्तान के नाम से प्रसिद्ध हुए।
सुल्तानपुर की स्थापना इसी वंश ने की थी।
सुहेलदेव राजा मोरध्वज के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनका राज्य पश्चिम में सीतापुर से लेकर पूर्व में गोरखपुर तक फैला हुआ था। उन्हें सुहेलदेव के अलावा सुखदेव, सकरदेव, सुधीरध्वज, सुहरिददेव, सहरदेव आदि अनेको नामो से जाना जाता है। माना जाता है की वो एक प्रतापी और प्रजावत्सल राजा थे। उनकी जनता खुशहाल थी और वो जनता के बीच लोकप्रिय थे। उन्होंने बहराइच के सूर्य मन्दिर और देवी पाटन मन्दिर का भी पुनरोद्धार करवाया। साथ ही राजा सुहेलदेव बहुत बड़े गौभक्त भी थे।
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~~सैयद सालार मसूद का आक्रमण~~
11वीं सदी में महमूद ग़ज़नवी ने भारत पर अनेक आक्रमण किये। उसकी मृत्यु के बाद उसका भांजा सैय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी की उपाधी लेकर 1031-33ई. में अपने पिता सालार साहू के साथ भारत पर आक्रमण करने अभियान पर निकला। ग़ाज़ी का मतलब होता है इस्लामिक धर्म योद्धा। मसूद का मकसद हिन्दुओ के तीर्थो को नष्ट करके हिन्दू जनता को तलवार के बल पर मुसलमान बनाना था। इस अभियान में उसके साथ सैय्यद हुसैन गाजी, सैय्यद हुसैन खातिम, सैय्यद हुसैन हातिम, सुल्तानुल सलाहीन महमी, बढ़वानिया सालार सैफुद्दीन, मीर इजाउद्दीन उर्फ मीर, सैय्यद मलिक दौलतशाह, मियां रज्जब उर्फ हठीले, सैय्यद इब्राहिम और मलिक फैसल जैसे सेनापति थे।
उसने भारत में आते ही जिहाद छेड़ दिया। जनता को बलपूर्वक इस्लाम कबूलवाने के लिये उसने बहुत अत्याचार किये लेकिन कई ताकतवर राज्यो के होते मसूद को अपने इस अभियान में ज्यादा सफलता नही मिली। इसलिए उसने रणनीति बदल कर मार्ग के राजाओ से ना उलझ कर अयोध्या और वाराणसी के हिन्दू तीर्थो को नष्ट करने की सोची जिससे हिंदुओं के मनोबल को तोड़ा जा सके। वैसे भी उसका मुख्य लक्ष्य राज्य जीतने की जगह हिन्दू जनता को मुसलमान बनाना था इसलिये वो राजाओ की सेना से सीधा भिड़ने की जगह जनता पर अत्याचार करता था।
मसूद का मुकाबला दिल्ली के तंवर शासक महिपाल से भी हुआ था पर अतिरिक्त सेना की सहायता से वो उन्हें परास्त कर कन्नौज लूटता हुआ अयोध्या तक चला गया,मसूद ने कन्नौज के निर्बल हो चुके सम्राट यशपाल परिहार को भी हराया.
मालवा नरेश भोज परमार से बचने के लिए उसने पूरब की और बढ़ने के लिए दूसरा मार्ग अपनाया जिससे भोज से उसका मुकाबला न हो जाए,खुद महमूद गजनवी भी कभी राजा भोज परमार का मुकाबला करने का साहस नहीं कर पाया था.
सुल्तानपुर के युद्ध में भोज परमार कि सेना और बनारस से गहरवार शासक मदनपाल ने भी सेना भेजी ,जिसके सहयोग से राजपूतो ने मसूद कि सेना को सुल्तानपुर में हरा दिया और उनका हौसला बढ़ गया.
मसूद अपनी विशाल सेना लेकर सरयू नदी के तट पर सतरिख(बारबंकी) पहुँच गया।वहॉ पहुँच कर उसने अपना पड़ाव डाला।
उस इलाके में उस वक्त राजपूतों के अनेक छोटे राज्य थे। इन राजाओं को मसूद के मकसद का पता था इसलिये उन्होंने राजा सुहेलदेव बैस के नेतृत्व में सभी राजपूत राज्यो का एक विशाल संघ बनाया जिसमे जिसमे बैस, भाले सुल्तान, कलहंस, रैकवार आदि अनेक वंशो के राजपूत शामिल थे। इस संघ में सुहेलदेव के अलावा कुल 17 राजपूत राजा शामिल थे जिनके नाम इस प्रकार है- राय रायब, राय सायब, राय अर्जुन, राय भीखन, राय कनक, राय कल्याण, राय मकरु, राय सवारु, राय अरन, राय बीरबल, राय जयपाल, राय हरपाल, राय श्रीपाल, राय हकरु, राय प्रभु, राय देवनारायण, राय नरसिंहा।
सालार मसूद के आक्रमण का सफल प्रतिकार जिन राजा-महाराजाओं ने किया था उनमें गहड़वाल वंश के राजा मदनपाल एवं उनके युवराज गोविंद चन्द्र ने भी अपनी पूरी ताकत के साथ युद्ध में भाग लिया था। इस किशोर राजकुमार ने अपने अद्भुत रणकौशल का परिचय दिया। गोविंद चन्द्र ने अयोध्या पर कई वर्षों तक राज किया।
सुहेलदेव बैस के संयुक्त मोर्चे में भर जाति के राजा भी शामिल थे,भर जनजाति सम्भवत प्राचीन भारशिव नागवंशी क्षत्रियों के वंशज थे जो किसी कारणवश बाद में अवनत होकर क्षत्रियों से अलग होकर नई जाति बन गए थे,बैस राजपूतों को अपना राज्य स्थापित करने में इन्ही भर जाति के छोटे छोटे राजाओं का सामना करना पड़ा था,
ये सब एक विदेशी को अपने इलाके में देखकर खुश नही थे। संघ बनाकर उन्होंने सबसे पहले मसूद को सन्देश भिजवाया की यह जमीन राजपूतो की है और इसे जल्द से जल्द खाली करे।
मसूद ने अपने जवाब में अपना पड़ाव यह कहकर उठाने से मना कर दिया की जमीन अल्लाह की है।
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~~बहराइच का युद्ध~~
मसूद के जवाब के बाद युद्ध अवश्यम्भावी था। जून 1033ई. में मसूद ने सरयू नदी पार कर अपना जमावड़ा बहराइच में लगाया। राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में राजपूतो ने बहराइच के उत्तर में भकला नदी के किनारे अपना मोर्चा जमाया। जब राजपूत युद्ध की तैयारी कर ही रहे थे तभी रात के वक्त अचानक से मसूद ने हमला कर दिया जिसमे दोनों सेनाओ को बहुत हानि हुई।
इसके बाद चित्तोरा झील के किनारे निर्णायक और भयंकर युद्ध हुआ जो 5 दिन तक चला। मसूद की सेना में 1 लाख से ज्यादा सैनिक थे जिसमे 50000 से ज्यादा घुड़सवार थे जबकि राजा सुहेलदेव की सेना में 1 लाख 20 हजार राजपूत थे।
इस युद्ध में मसूद ने अपनी सेना के आगे गाय, बैल बाँधे हुए थे जिससे राजपूत सेना सीधा आक्रमण ना कर सके क्योंकि राजपूत और विशेषकर राजा सुहेलदेव गौ भक्त थे और गौ वंश को नुक्सान नही पहुँचा सकते थे, लेकिन राजा सुहेलदेव ने बहुत सूझ बूझ से युद्ध किया और उनकी सेना को इस बात से ज्यादा फर्क नही पड़ा और पूरी राजपूत सेना और भर वीर भूखे शेर की भाँति जेहादियों पर टूट पड़ी। राजपूतो ने जेहादी सेना को चारों और से घेरकर मारना शुरू कर दिया। इसमें दोनों सेनाए बहादुरी से लड़ी और दोनों सेनाओं को भारी नुक्सान हुआ। ये युद्ध 5 दिन तक चला और इसका क्षेत्र बढ़ता गया। धीरे धीरे राजपूत हावी होते गए और उन्होंने जेहादी सेना को गाजर मूली की तरह काटना शुरू कर दिया।
लम्बे भाले से लड़ने में माहिर बैस राजपूत जो बाद में भाले सुल्तान के नाम से माहिर हुए उन्होंने अपने भालो से दुश्मन को गोदकर रख दिया.
किवदन्ती के अनुसार अंत में राजा सुहेलदेव का एक तीर मसूद के गले में आकर लगा और वो अपने घोड़े से गिर गया। बची हुई सेना को राजपूतों ने समाप्त कर दिया और इस तरह से मसूद अपने 1 लाख जेहादीयों के साथ इतिहास बन गया।
विदेशी इतिहासकार शेख अब्दुर्रहमान चिश्ती ने सालार मसूद की जीवनी "मीरात-ए-मसूदी" में लिखा है "इस्लाम के नाम पर जो अंधड़ अयोध्या तक जा पहुंचा था, वह सब नष्ट हो गया। इस युद्ध में अरब-ईरान के हर घर का चिराग बुझा है। यही कारण है कि दो सौ वर्षों तक मुसलमान भारत पर हमले का मन न बना सके।"
राजा सुहेलदेव के बारे में ये कहा जाता है की वो भी अगले दिन मसूद के एक साथी के द्वारा मारे गए लेकिन कई इतिहासकारो के अनुसार वो युद्ध में जीवित रहे और बाद में कन्नौज के शाशको के साथ उन्होंने एक युद्ध भी लड़ा था।
इस युद्ध की सफलता में राजा सुहेलदेव बैस के नेतृत्व, सन्गठन कौशल और रणनीति का बहुत बड़ा हाथ था। इसीलिए आज भी राजा सुहेलदेव बैस को इस अंचल में देवता की तरह पूजा जाता है।
श्रीराम जन्मभूमि का विध्वंस करने के इरादे से आए आक्रांता सालार मसूद और उसके सभी सैनिकों का महाविनाश इस सत्य को उजागर करता है कि जब भी हिन्दू समाज संगठित और शक्ति सम्पन्न रहा, विदेशी शक्तियों को भारत की धरती से पूर्णतया खदेड़ने में सफलता मिली। परंतु जब परस्पर झगड़ों और व्यक्तिगत अहं ने भारतीय राजाओं-महाराजाओं की बुद्धि कुंठित की तो विधर्मी शक्तियां संख्या में अत्यंत न्यून होते हुए भी भारत में पांव पसारने में सफल रहीं।
लेकिन विडंबना यह है की जो सैयद सालार मसूद हिन्दुओ का हत्यारा था और जो हिन्दुओ को मुसलमान बनाने के इरादे से निकला था, आज बहराइच क्षेत्र में उस की मजार ग़ाज़ी का नाम देकर पूजा जाता है और उसे पूजने वाले अधिकतर हिन्दू है। बहराइच में एक पुराना सूर्य मन्दिर था जहाँ एक विशाल सरोवर था जिसके पास मसूद दफन हुआ था। तुग़लक़ सुल्तान ने 14वीं सदी में इस मन्दिर को तुड़वाकर और सरोवर को पटवाकर वहॉ मसूद की मजार बनवा दी। हर साल उस मजार पर मेला लगता है जिसमेँ कई लाख हिन्दू शामिल होते है।
राजा सुहेलदेव बैस जिन्होंने हिंदुओं को इतनी बड़ी विपदा से बचाया, वो इतनी सदियोँ तक उपेक्षित ही रहे। शायद वीर क्षत्रियो के बलिदान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का हिन्दुओ का ये ही तरीका है। कुछ दशक पहले पयागपुर के राजा साहब ने 500 बीघा जमीन दान में दी जिसपर राजा सुहेलदेव बैस का स्मारक बनाया गया और अब वहॉ हर साल मेला लगता है।
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~~राजा सुहेलदेव बैस के विषय में मिथ्या प्रचार~~
इस युद्ध में राजपूतो के साथ भर और थारू जनजाति के वीर भी बड़ी संख्या में शहीद हुए,राजपूतों के साथ इस संयुक्त मौर्चा में भर और थारू सैनिको के होने के कारण भ्रमवश कुछ इतिहासकारों ने सुहेलदेव को भर या थारू जनजाति का बता दिया जो सत्य से कोसो दूर है क्योकि स्थानीय राजपुतो की वंशावलीयो में भी उनके बैस वंश के राजपूत होने के प्रमाण है। सभी किवदन्तियो में भी उनहे राजा त्रिलोकचंद का वंशज माना जाता है और ये सर्वविदित है की राजा त्रिलोकचंद बैस राजपूत थे।
पिछले कई दशको से कुछ राजनितिक संगठन अपने राजनितिक फायदे के लिये राजा सुहेलदेव बैस को राजपूत की जगह पासी जाती का बताने का प्रयत्न कर रहे है जिससे इन्हें इन जातियों में पैठ बनाने का मौका मिल सके।
दुःख की बात ये है की ये काम वो संगठन कर रहे है जिनकी राजनीती राजपूतो के समर्थन के दम पर ही हो पाती है। इसी विषय में ही नही, इन संगठनो ने अपने राजनितिक फायदे के लिये राजपूत इतिहास को हमेशा से ही विकृत करने का प्रयास किया है और ये इस काम में सफल भी रहे है। राजपूत राजाओ को नाकारा बताकर इनके राजनितिक हित सधते हैं।
पर हम अपना गौरवशाली इतिहास मिटने नहीं देंगे,वीर महाराजा सुहेलदेव बैस को शत शत नमन
जय राजपूताना-----
साभार -राजपुताना सोच 

युगपुरुष तेजमाल जी भाटी गिरधर दान रतनु जी (उतर भड किवाड़ भाटी )

तेजमाल जी रामसिंहोत भाटी के गुणगान
पंथी एक संदेसड़ो तेजल नैं कहियाह !गिरधरदान रतनू दासोड़ी
किणी कवि सही ई कैयो है कै जे प्रीत उत्तम सूं लाग ज्यावै तो कदै ई बोदी नीं पड़ैज्यूं पत्थरी सौ वरसां तक जल़ में रैवण पछै ई अग्नि रो साथ नीं छोडै -प्रीत पुराणी नह पड़ै जे उत्तम सूं लग्ग।
सौ वरसां जल़ में रहे पत्थरी तजै न अग्ग।।
ऐड़ो ई एक गीरबैजोग किस्सो है भाटी तेजमाल अर रतनू हरपाल रो।
जैसलमेर री धरा माथै रामसिंह भाटी सपूत अर सूरमो मिनख ।इणां एक ब्याव अमरकोट रै सोढै जोधसिंह री बेटी करमेती सूं कियो ।करमेती आपरी कूख सूं पांच सूरमां नै जन्म दियो - करमेती कुंती जिसा जाया पंडव जैस।
अखो तेजो नैं ऊदलो दुरजन नै कानेस।।
इण पांचूं ई भायां में तेजमाल महाभड़ अर क्षत्रिय गुणां सूं मंडित पुरुष।सनातनी संबंधां नैं टोरण री अखंड आखड़ी ।तेजमाल री टणकाई री बातां चौताल़ै चावी।एकर सिरुवै गांव रै पाखती रै गांव चीचां रा दो चींचा रतनू अर दो इणां रा रिस्तेदार जिकै बरसड़ा जात रा हा। कोई काम सूं गुजरात गया जठै मुसलमानां रै हाथां मारीजग्या ।उणां मरती वेला बैते बटाऊ नै एक दूहो सुणायो अर भोलावण दीनी कै तेजमाल भाटी नैं कै दीजै। कै दो चींचा अर दो बरसड़ा इण गत रणखेत रेयग्या -
पंथी एक संदेसड़ो तेजल नैं कहियाह
दो चाचा दो वरसड़ा रणखेतां रहियाह।।
सतधारी बटाऊ सीधै आय तेजमाल नैं आ बात बताई ।तेजमाल रा भंवारा तणीजग्या । शरीर खावण लागग्यो। महावीर अजेज चढियो अर जाय रतनुवां रो वैर लियो ।कवि प्रभुदान देवल पेमावेरी रै आखरां में -
वैर रतनू तणो सेह धणी वाल़ियो
पाल़ियो वचन ज्यां राव पाबू।
आवता लूटवा देस उसराण रा
कटक सब वैहता किया काबू।।
महावीर तेजमाल सूं महारावल़ जसवंतसिंह शंकित रैवण लागा।तेजमाल ई मारको वीर सो किणी री गिनर नीं करै।महारावल़ नैं लोगां भरमाया कै तेजमाल गढ कब्जै कर र रावल़ बण सकै।आपसी कजियै सूं राड़ इती बधी कै छेवट हाबूर मे महारावल री सेना अर तेजमाल रै भिड़ंत हुई जिण में तेजमाल रै घणा घाव लागा अर रगत परनाला छूटा।बचण री आश नीं रैयी जद इण शूरमे आपरै हाथां आपरै लोही सूं माटी पिंड बणाय पिंडदान कर वीरगति वरी ।इण लड़ाई में सिरुवै रो रतनू हरपाल ई साथै हो।हरपाल ई वीर अर अडर पुरुष।महारावल आदेश दियो कै कोई भी तेजमाल रो दाह संस्कार नीं करैला। हरपालजी आदेश नैं गिणियो अर हाबूर रै भाटियां री सहायता सूं दाह संस्कार कियो ।अठै महारावल़ अर तेजमालजी रै मिनखां बिचै दाह संस्कार सारु .हुई लडाई में दो झीबा चारण ई काम आया ।रतनू हसपाल री वीरता विषयक ओ दूहो घणो चावो है -
झीबां पाव झकोल़िया उडर हुवा अलग्ग।
पह रतनू हरपाल़ रा प्रतन छूटा पग्ग।।
महारावल़ कन्नै खबर गई कै इणगत रतनू हरपाल मांडै तेजमाल रो दाह संस्कार कियो।दरबार आदेश दियो कै म्है कोई दूजो कदम उठाऊं उण सूं पैला हरपाल़ जैसलमेर छोड दे।रतनू हरपाल़ तुरंत जैसलमेर छोड भिंयाड़ कोटड़ियां कन्नै गया परा।
क्रमशः

मालानी रा संस्थापक रावल मलिनाथ जी (लोक देवता संत महापुरुष )

रावल मल्लिनाथजी

मल्लिनाथजी अेक बौत ई पराक्रमी पुरुष हा। आपरै पराक्रम सूं वै सारौ महैवौ प्रदेेस आपरै कब्जै में कर लियौ हौ, जकौ बाद में उणां रै नाम सूं मालाणी मशहूर हुयौ। जठै उणां रै वंशजां रौ ई कब्जौ रैयौ। अै मारवाड़ रै राव सलखाजी रा पुत्र हा, सिदध पुरुष ई हा। मुंहता नैणसी मुजब "मल्लिनाथ फगत सिद्ध पुरुष ई नीं हा, उणां नै देवतावां रौ चमत्कार ई प्राप्त हौ। वै भविष मांय घटण वाली बातां पैली ई जाण लेवता हा।"
कैयौ जावै के अेक सिद्ध जोगी री दुआ सूं वै रावल पदवी धारण करी ही। इणी कारण उणां रा वंशज ई रावल बाजता रैया है। यूं मारवाड़ रा लोग तौ उणांनै ई सिदध या अवतारी पुरुष मानता रैया है अर इणरौ प्रमाण है लूणी नदी रे किनारै बस्यौडै़ तिलवाड़ै गाम में बण्यौड़ौ इणां रौ मिंदर, जठै आयै बरस चैत महीनै में अेक मेलौ लाग्या करै। इणरै अलावा मंडोर में आयौड़ी चावी देवतावां अर वीरां रा साल में ई घोड़ै माथै सवार णिां री अेक बौत बडी मूरती खुद्योड़ी है।
'जोधपुर राज्य री ख्यात' मुजब राव सलखा रै जेठै बेटै रै रूप में मल्लिनाथ रौ जनम वि. सं. 1395 परवाणै ई. स. 1338 में सिवाणा रै गाम गोपड़ी में हुयौ हौ। पिता रै सुरगवास रै बाद बारै बरस री उमर में वै आपरै काकै राव कान्हड़देव रै कनै गया। इणां रै काम करण री कुसलता सूं राजी हुय'र थोड़ै ई बगत में राव कान्हड़देव राज्य रौ सगलौ प्रबंध इणां नै सूंप दियौ।
अेकर दिल्ली रै बादसा कानी सूं कीं आदमियां रै साथै अेक किराड़ी दंड वसूलण नै आयौ। सिरदारां री राय सूं कान्हड़देव दंड नीं देवण रौ तै कर्यौ, साथै किराड़ी समेत बादसा रै सै आदमियां नै मारण रौ ई। पण मल्लिनाथ कूटनीति रौ सहारौ लेय'र किराड़ी री बौत खातिरदारी करी अर उणनै सही-सलामत दिल्ली पुगवाय दियौ। इण बात माथै बादसा इणां नै महेवै री रावलाई रौ टीकौ दियौ। पण कीं इतिहासकार इणनै नीं मानै। जद कान्हड़देव रौ देहांत हुयौ तो मल्लिनाथ सोचण लाग्या के बादसा टीकौ तौ देय दियौ पण जद तांई त्रिभुवनसी जीवतौ है, राज म्हारै हाथ लागण वालौ नीं। सो सेवट वै महेवै री गादी माथै बैठ्यै त्रिभुवनसी नै उणरै इज भाई पद्मसिंह रै हाथां मरवाया दियौ। त्रिभुवनसी नै मरवावण रै बाद मल्लिनाथ सुभ म्हौरत दिखाय'र महेवै पूग्या अर पाट बैठ्या। वै चौफेर आपरी आण फिराई। लगैटगै सगला ई राजपूत आय'र उणां सूं मिलग्या। इण भांत उणां री ठकराई दिनौदिन बढ़ण लागी।
मल्लिनाथ मंडोर, मेवाड़, आबू अर सिंघ रै बीच लूट-मार कर करनै जद मुसलमानां नै तंग करणा सरू कर्या, तद उणां री अेक बौत बडी सेना चढा़ई करी, जिणमें तेरै दल हा। मल्लिनाथ तैरै ई दलां नै हराय दिया। 'जोधपुर राज्य री ख्यात' मुजब आ घटना वि. सं. 1435 (ई. सं. 1378) में हुई। इण हार रौ बदलौ लेवण सारू मालवै रौ सूबेदार खुद इणां माथे चढ़ाई करी, पण मल्लिनाथ री शूरवीरत अर जुद्ध-कौसल रै सामी वौ टिक नीं सक्यौ।
मारवाड़ में औ अघदूहौ घणौ चावौ रैयौ है-
तेरा तुंगा भांगिया, मालै सलखाणीह।
मतलब सलखा रौ बेटौ मालौ आपरै अनूठै पराक्रम सूं मुसलमानां री फौज रै तेरा तुंगां (दलां)नै हराय दिया।
मल्लिनाथ सालोड़ी गाम आपरै भतीजै चूंड़ै (राव वीरम रै बेटै) नै जागीर में दियौ हौ अर उणरै नागौर माथै चढ़ाई करण में उणरी मदत ई करी ही। इणरै अलावा वै सिवाणौ मुसलमानां सूं खोस'र आपरै छोटै भाई जैतमाल नै, खेड़ (किणी-किणी ख्यात में भिरड़कोट) सोतैलै भाई वीरम नै, अर ओसियां सोतैलै भाई शोभित नै जागीर में दिया है। दरअसल ओसियां माथै उण बगत पंवारां रौ कब्जौ हौ अर मल्लिनाथ री इजाजतसूं शोभित उणां नै हराय'र उण माथेै कब्जौ कर्यौ हौ।
रावण मल्लिनाथ महान वीर अर नीतिज्ञ शासक हा। उणां नीं सिरफ राठौ़डी राज रौ विस्तार करियौ, बल्कै उणनै मजबूती ई प्रदान करी मल्लिनाथ रौ सुरगवास वि. सं. 1456 (ई.स. 1399) में हुयौ। इतिहासकार रेउ मुजब मल्लिनाथ रै 5 बेटा हा अर ओझा मुजब 9, जिणां में जेठौ बेटौ हुवण रै कारण जगमाल पाटवी हुयौ।
आखरी दिनां में साधु वृत्ति धारण करण सूं रावल मल्लिनाथ नै सिद्ध-जोगी रै रूप में आज ई मारवाड़ याद करै। अै बडा करामाती सिद्ध अर वीर तौ हा पण अेक पंथ ई चलायौ। इणां री राणी रूपां दे रै चमत्कारां अर उगमसी भाटी रै उपदेशां सूं प्रभावित हुय'र पंथ में दीक्षित हुया। जिण में गुरु भगती अर ईस्वर भगती रै माध्यम सूं मिनखा जूंण री सफलता नै खास घैय मानियौ।

बुधवार, 14 जून 2017

बणीर जी कांधलोत (राठोड़) री बात

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रावत कांधल जी रा बडा बेटा हा बाघ जी अर बाघ जी रा बेटा बणीर जी जद सारंग खान सूं कांधल जी रो बदलो लेवण सारू राठौड़ां रो सगळो कडूम्बो अर भाईबन्ध भेळा होय बड़ी भारी फौज लेय'र हंसार रै फौजदार सारंग खान माथै चढ़ाई किणी जद सारंग खान बी सामों फौज करनै आयो गांव झांसल मांय दोनूं सेनांवां रो टकराव हुयौ अर सारंग खान ने मार'र बाघ जी बी सुरगां सिधाया ।पछे राठौड़ां रावत कांधल जी रो बदलो लेय घणा राजी होया अर साहवा मांय आय दाढ़ी बणवाय सोग रा कपड़ा उतार'नै राजसी वस्त्र पैरिया पछे रावत कांधल जी री पाग रो दस्तूर हुयौ उण टेम बणीर जी बाळी उम्र रा हा जिणसूं रावताई रो टीको इणां रे काकोसा राजसिंह जी ने दिरिज्यो।राजसिंह रे ठिकाणो राजासर ,अरडकमल जी रे साहवा अर बणीर जी रे ठिकाणो चाचावाद पांति आयो जिका पेल्यां ई कांधल जी आपरा बेटा रै बांध दिया हा।चाचावाद सूं आय बणीर जी साहवा रैया पछे आपरौ ठिकाणो मेलुसर बांध्यो अठे पाणी री घणी मारा मारी ही जणा बणीर जी मेलुसर मांय ऐक तळाव बणवायो जिकौ आज बी बणीर सागर रै नांव सूं जाण्यो जावै है।
मेलुसर रो ठिकाणो बणाय'र बणीर जी चायलों माथै चढ़ाई करनै उण नै मार भगाया अर आपरौ नूवों ठिकाणो घांघू बणायो अर घांघू मांय गढ़ बणवायो।बीकानेर री मदत सारू बणीर जी घणा जुध लड़िया बणीर जी रा च्यार ब्याव हुया उण मांय एक ब्याव री बात इण तरु बताईजै ।
बणीर जी कांधलोत री बात :-
बरसलपुर रा भाटी सिरदार आपरा रावला अर पशुओं नै लेय घांघू रे नजीक खारिया गांव री रोही मांय डेरा लगाय आपरा पशुओं नै चरावै जणा बणीर जी री घणी ख्याति सुणी भाटी सिरदार रे एक डीकरी ही उछरंगदे ।बणीर जी रो घणो नांव सुण राख्यो हो जद भाटी सिरदार सोच्यो कै बाई रो ब्याव बणीर जी रे बडा बेटा मेघराज सूं करदेवां तो आछौ रैवे आ मनडा मांय धार आपरी कुंवरी उछरंगदे रो नारेळ घांघू भेजीयो।उण टेम ठाकरां बणीर जी बूढ़ा हुयग्या हा अर घणो अम्ल तमाखू खाय खांसी मांय हलाडोब रेंवता हा जद भाटीयों रा पिरोयत नारेळ लेय दरबार मांय हाजर हुया उण टेम बणीर जी खांसी मांय घणा उलझेड़ा हा जद सिरदारां बणीर जी नै कैयो कै आपरा बेटा मेघराज खातर भाटियाँ सूं सगपण रो नारेळ आयो है तो बणीर जी हांस'र बोल्या भाई नारेळ तो जवानडां रो ई आवै बुढा रो कुण भेजे है।बणीर जी री आ बात उणरै बेटा मेघराज बी सुण ली ही जणा मेघराज पिरोयत जी सूं कैयो के ओ नारेळ आप म्हारैबापजी नै ई झिलावो जद पिरोयत जी बोल्या कै म्हारी बाईसा तो अजै टाबर है अर ऐ बुढा डोकर इणनै कुण आपरी बेटी देवैलो।
अबै बात घणी खींचताण री हुयगी भाटियाँ रो आयोडो नारेळ पाछो जावे तो राठौड़ो री घणी भुंड रै साथै ई भाटीयों रो बी अपमान ।मेघराज तो साव नाटग्यो के इण नारेळ माथै म्हारै दाता रो मन आयग्यो इणसूं इण नारेळ हाली तो म्हारी माव बरोबर ।जद आखर मांय पिरोयत जी बोल्या कै जै थां म्हारी बाईसा सूं होवण हाली औलाद नै टिकायत बणावण रो कौल करो तो म्हे म्हारी बाईसा रो ब्याव बणीर जी साथै करणनै राजी हा जद मेघराज ओ कौल करियौ के इणा सूं होवण हाळा बेटा नै म्हे म्हारा हाथां सूं घांघू री गदी माथै बिठाय तिलक करस्यूं।
मेघराज रे इण भांत कौल करिया पछे भटियाणी उछरंगदे बरसलपुरी रो नारेळ पिरोयत जी बणीर जी नै झिलाय'र ब्याव रो आछौ सो म्हूरत देखनै दिन धरियो ।घांघू सूं विदायगी लेय पिरोयत जी गांव खारिया आय भाटियाँ रे डेरां हाजर होयनै सगळी बात बताय'र ब्याव री त्यारी करण रो कैयो सगळी बात समझ्यां पछे भाटी सिरदार बी घणा राजी होया ब्याव री त्यारियां हुयी बान तेल हुया मंगल गीत गाईज्या।
बणीर जी बारात लेय आया भटियाणी जी सूं ब्याव करनै पाछा व्हीर हुया।बणीर जी घोड़ा माथै हा अर अम्ल रो पुरो नशो करियोडो हो भटियाणी जी पालकी मांय खारिया सूं व्हीर हुय थोड़ीक दूर ई चाल्या हा कै च्यार पांच भेड़िया एक खाजरु नै मार'र बींरा मास रा लोथड़ा मुण्डा मांय दाब्यां घोड़ी रे आगू कर भाज'र निसरया जणा बणीर जी री घोड़ी बिदकगी।ठाकरां नशा मांय हलाडोब हुयौडा हा जणा साम्भल कोनी सक्या अर छाती घोड़ी री जीण री खुंटी सूं आय लाग्यी अर बणीर जी पड़'र बेसुध हुयग्या ।उणी टेम सुगनियां कैयो कै इण राणी सूं इतरा बेटा होसी इण भौम रै च्यारूं कानी उणरौ राज होसी ।राणी भटियाणी हुँस्यार ही बण आपरी पालकी आगै करवायी अर बाकी सगळा गेल्यां गेल्यां चाल्या ।
भटियाणी जी बणीर जी रो अम्ल कमती करणो सरू कियौ अर थोड़ो थोड़ो करतां करतां एकदम ई बन्द कर ठाकरां रो अम्ल छोडाय दीन्यो चौखो खाणो दाणो सरू कर बणीर जी नै पाछा डीलडौल सूं तगड़ा करलिया इण ठकुराणी भटियाणी जी सूं च्यार बेटा मालदेव ,अचलदास ,महेशदास अर जैतसिंह हुया। इणी मालदेव जी पछे आपरौ नूवों ठिकाणो आपरै जोर सूं चुरू बणायो अर घांघू रो ठिकाणो आपरै भाई अचलदास नै बगस्यो।बणीर जी बीकानेर री मदतसारू पन्दरा लड़ाया अर जुद लड्या ।
(१)जद बीकोजी जोधपुर माथै चढायी कीनी उण टेम बणीर जी बी आपरी जमीयत लेय'र गिया अर जीत'र आया ।
(२)जद बीकाजी मेड़ता री मदत मांय बरसिंघ ने अजमेर रा नवाब सूं छुडावण खातर अजमेर माथै चढायी कीनी उण बगत बी बणीर जी मदत नै गिया अर बरसिंघ नै छोडाय लाया।
(३)बीकाजी खण्डेला रा राव रिड़मल माथै हमलो करियौ जद बणीर जी बी दुजा कांधलोतां राजसी अर अरडकमल जी रे साथै आपरी फौज लेय बीकानेर री मदत सारू गिया अर जीत'र आया।
(4)बीकाजी जद खण्डेला रा राव अर हिन्दाल रा नबाब माथै व्हार कीनी जद बणीर जी भी मदत सारू गिया अर इण लड़ाई मांय हिन्दाल अर रिड़मल दोन्यू मारया गिया अर जीत राठौड़ां री हुवी।
(5)विक्रम संवत 1566 मांय जद राव लूणकरण ददरेवा माथै चढायी कीनी जद बणीर जी आपरै साथ सूं गिया इण लड़ाई मांय ददरेवा रो मानसिंह मारयो गियो अर बठै कब्जो राठौड़ां रो हुयग्यो।
(6)विक्रम संवत 1569 मांय बीकानेर राजा लूणकरण फतेहपुर माथै हमलों करियौ जणा बाकि राठौड़ां रै साथै बणीर जी भी मदत सारू गिया अर जीत्या।
(7)विक्रम संवत 1570 मांय जद नागौर रो नवाब बीकानेर माथै हमलों करियौ जद बणीर जी,राजसी,अरडकमल जी बगैरा सगला राठौड़ बीकानेर री मदत सारू गिया अर नवाब माथै व्हार चढ्या नवाब चोट खाय घायल हुये भाजियों अर जीत राठौड़ां री हुवी।
(8)जैसलमेर राव राठौड़ां रे चारण लालो जी महड़ू रो अपमान करियौ जणा चारण आय पुकार करी जद राव लूणकरण राठौड़ां नै लेय जैसलमेर माथै चढायी कीनी जद बणीर जी ,खेतसी साहवा,रावत किसनसिंघ राजासर,महेसदास सारूण्ड़ा ,सांगा बिदावत आद सिरदारां जैसलमेर रावल नै हराय पकड़ीया जणा जैसलमेर रावल लाला महड़ू सूं माफ़ी मांग राठौड़ां नै आपरी कन्यावां परणाय राजीपो करियौ।
(9)राव लूणकरण विक्रम संवत 1583 मांय नारनोल रा नवाब माथै चढायी कीनी जद बणीर जी,खेतसी,रावत किसनसिंघ आद भी मदत सारू साथै गिया पण बीदावत कल्याणमल दगो कर नै दुस्मयां सूं जाय मिलियो जिण सूं राव लूणकरण मारिया गिया आ लड़ाई ढोसी मांय हुयी।
(10)राव जैतसी रा भाणेज सांगा कछावा बीकानेर सूं मदत मांगी जणा बीकानेर कानी सूं बणीर जी,खेतसी,किसनजी,महेस सारूण्ड़ा,रतनसी महाजन आद फौज लेय गिया अर सांगा री मदत कीनी राठौड़ां री मदत सूं सांगा कछावा आमेर री घणी भौम ढबाय आपरै नांव सूं सांगानेर बणायो
(11)राव गांगा जोधपुर रा जद विक्रम संवत1585 मांय बीकानेर राव जैतसी सूं मदत मांगी जद जैतसी मदत सारू गिया उण बगत बणीर जी,खेतसी कांधलोत,किसन जी राजासर,सांगा बिदावत,महेश मण्डलावत आद सिरदार साथै मदत सारू गिया अर जोधपुर राव गांगा इणरी मदत सूं विजयी हुया।
(12) विक्रम संवत 1591 मांय बाबर रो भाई कमरू(कामरान )भटनेर माथै बहोत बड़ी फौज लेय हमलों कियौ भटनेर रा स्वामी राव खेतसी आपरा थोड़ा सा रजपूतां नै साथै लेय'र उणरौ मुकाबलो करियौ पण दुस्मयां री फौज घणी होवण सूं घणे सुरापण सूं लड़तां थकां वीरगति नै व्हीर हुया पाछै कामरान बीकानेर माथै चढायी कीनी जणा राव जैतसी मुगलां माथै आपरै थोड़ा सा रजपूतां साथै रातिवाहो कियौ जिणमें कामरान रा घणा आदमी मारिया गिया कामरान राठौड़ां रो प्रबल वेग झाल नीं सक्यो अर डरतो भाग खड्यो हुयौ कैबत चालै कै मुगलों इतणो डरग्यो कै पाछो मुड़गे ही नीं देखियौ।इण लड़ायी मांय जैतसी री मदत सारू बणीर जी कांधलोत, किसन जी राजासर ,साईंदास पुत्र खेतसी कांधलोत, रतनसी महाजन,घड़सी, महेश सारूण्ड़ा आद सिरदार सामल हा।बणीर जी री इण जुध माय वीरता माथै बीठू सूजा भी राव जैतसी रे छन्द माय लिख्यो है।
"फरहरई फउरि फरि अफरि फुल।
ऊंचास अस्मि अरिखि अमूल।।
बणवीर चढ़िय तेवहि ब्रहासि।
अहिंकारि थम्भ आडर आयसि।।
(13)जद विक्रम संवत1597 मांय राव मालदेव बीकानेर माथै हमलों करियौ जद बीकानेर री मदत सारू बणीर जी ,किसन जी,साईंदासजी आद सिरदार भी गिया इण जुध मांय राव जैतसी मारया गिया अर बीकानेर माथै जोधपुर रो कब्जो हुयग्यो।
(14)विक्रम संवत1603 मांय जद मालदेव मेड़ता परियां चढायी कीनी जद जयमल बीकानेर सूं मदत मांगी जद बीजां सिरदारां रे साथै बणीर जी भी जयमल री मदत सारू गिया।
(15) हाजीखां पठान जद जोधपुर रै विरुद्ध बीकानेर सूं मदत मांगी जणा बीजा सिरदारां रै साथै बणीर जी भी मदत सारू गिया।इण तरु बणीर जी कांधलोत घणी लड़ाया अर जुध लड़िया जिण मांय घणकरा जुध बीकानेर री मदत सारू लड़िया।बणीर जी री मृत्यु गांव घांघू मांय विक्रम संवत 1605 मांय हुयी इणरै चार रानियां थी जिणसूं दो बेटी अर ग्यारह बेटा हुया।बणीर जी री औलाद बनीरोत कांधल कहावे है बनीरोतो रो बड़ो ठिकाणो चुरू 
आभार -अजयसिंह राठौड़ 

साईंदास कांध्लोत राठोड री बातां

-:साईंदास कांधलोत री बात :-
रावत कांधल जी रा पोता खेतसी अरड़कमलोत भटनेर री रिख्या करतां मुगले कामरान सूं लड़तां जुद्ध मांय काम आया अर कामरान भटनेर माथै कब्जो कर लिन्यो।पछै कामरान बीकानेर माथै चढायी कीनी बीकानेर रा राव जैतसी उण बखत किले री रिख्या आपरै आदमीयां नै सूंप'र देसनोक आयग्या पाछै सूं कामरान गढ़ माथै कब्जो कर लिन्यो।राव जैतसी माँ करणी जी नै सिंवर नै आपरा ऐक सो नव बीर जोधावां ने साथ लेय'र रातिवाहो (रात मे हमला)करियौ जीण मांय साईंदास खेतसीयोत(रावत कांधल के प्रपोत्र)बणीर जी(बाघ जी कांधलोत के पुत्र) सांगा बीदावत,रतनसी, देवीदास,महेस मण्डलावत जेडा वीरों ने साथै लेय हमलों करियौ।कामरान रा आदमी मदवा हुवा सुता हुँता राठौड़ी जोधवां कामरान री फौज मांय रापट रोळ मचायदिनी घणा मुगलां नै काट बाढ़ दिन्या लोई री नदियों बैवण लागी कैवे के इण बखत माँ करणी जी घणो चमत्कार दिखायो राठौड़ां रे मांय भगवती आय विराजिया अर मुगलां रे लोई रा खप्पर भरिया लाशां रा ढेर लागिया कामरान राठौड़ां री इण तरु री रापट रोळ ने झाल नीं सकियो अर आपरी फौज लेय भाज निसरियो कैबत चालै के भागते कामरान रो छत्र अर चँवर छोटड़िया गांव मांय धरणी माथै पड़ग्यो जिणनै उठावण री बी हिम्मत उणरी नीं हुवी राठौड़ां री मारकाट सूं कामरान इतणो डरियो के उण समझ्यो के किणी पीर री दरगाह माथै पग पड़ियो अर पीर रिसाणा होयगो कामरान तो पाछो मुड़'र नीं देख्यो।राठौड़ां आपरो बीकानेर पाछो लेय लिन्यो।साईंदास कांधलोत इण जुद्ध मांय घणो सुरापण दिखायो जिणरी बड़ाई राव जैतसी रा छंद मांय बी करिजि है।

"वाजिनि चडिय वाहण वियास।
दानवां दलेवा साईंदास।।(३२६)

राव लूणकरण री बेटी बाला बाई आमेर रा राजा पिरथीराज सूं परणायेडा हा पिरथीराज राज रे मरिया पछै उणरा रा पाटवी रतनसी भादवा बदि9 विक्रम संवत 1593 मांय आमेर री गादी विराजिया रतनसी दारू घणी पिंवता हा जिणसूं राज री वैवस्ता घणी बिगड़ गी इण बात नै लेय'र सांगा कछावा जिका रतनसी रा द्विमात भाई हा रे साथै अणबण हुयगी जद सांगा जी आपरै मामा राव जैतसी कनै बीकानेर आयनै मदत री मांग कीनी जड़ जैतसी आपरै सिरदारां नै सांगा री मदत सारू भेजिया जिणमांय ऐ सांवठा सिरदार आप आप री जमीयत लेय'र गिया रावत किसनसी राजासर सूं, बणीर जी कांधलोत चाचावाद सूं, महेशदास मण्डलावत सारूण्ड़ा सूं, बीको रतनसी महाजन सूं, राव सांगा द्रोणपुर सूं भोजराज रूपावत, देवीदास घड़सीसर,पूगल रो वरसिघ भाटी जेडा सिरदारां रे साथै साईंदास जी बी साहवा सूं आपरी जमीयत लेय'र गिया
इण तरु सगळी फौज 15000 री हुय सांगा कछावा री मदत सारू व्हीर हुय'र पेल्यां अमरसर पुगी जठै रायमल सेखावत बी इणरे सामल हुयौ अर आपरै बेटा तेजसी जिका आमेर राज रा मंत्री हुँता नै बी केयो कै जीत तो सांगा री हुसी क्यूंकै इणरै साथै राठौड़ां री इतणी बड़ी फौज है जणा तेजसी बी आय'र सामल हुयौ जद सांगा पेल्यां मोजाबाद माथै चढायी करण रो विचारयो जणा तेजसी बोलियो कै मोजाबाद रा नरुका करमचन्द यूँ सोरो तो मार में आवै नीं उणनै दगा सूं मारस्यां पछै करमचन्द रा भाई जयमल नरुका ने बुलाय कैयो के थारै भाई ने लाय नै सांगा रे पांवां लगावो जणा माफ कराय देस्यां इण तरु धर्मकोल करिया पछै जयमल आपरै भाई करमचन्द नरुका नै लेय आयौ जिणनै तेजसी बातां मं लगाय लिन्यो अर पीछै सूं लालो सांखला दगा सूं तरवार रे वार सूं करमचन्द रा दो टूक कर दिन्या जद जयमल तेजसी नै कैयो "रे तेजसी तनै धिकार है म्हे थारै कैवण सूं म्हारै भाई ने ल्यायौ अर तूँ दगो करियौ" अर इणरै साथै ही तरवार रे वार सूं तेजसी नै मार न्हाख्यो जयमल सांगा कछावा ने बी मार लेंवतो पण उणी बखत राठौड़ां जयमल नरुका ने मार लिन्यो ।राठौड़ां री मदत सूं सांगा कछावा आमेर री घणी भौम दबाय आपरै नांव सूं नुवो नगर सांगानेर बसाय आपरौ न्यारो राज थरपियो पछै रतनसी महाजन रो तो बठै ही आपरा भाणजा सांगा कनै रिया अर दूजा राठौड़ आप आपरै ठौड़ गिया

राव मालदेव रो बीकानेर माथै हमलो:-विक्रम संवत1598 मांय राव मालदेव जोधपुर आपरौ राज बढ़ावण री मनसा सूं बीकानेर माथै चढायी कीनी जद राव जैतसी आपरी फौज लेय सामां गिया अर गांव सोवा मांय डेरा लगाया राव जैतसी री मदत सारू रावत किसनसी कांधलोत, बणीर जी कांधलोत अर दूजा सगला सिरदार आप आपरी फौज लेय'र गिया साहवा सूं साईंदास जी बी आपरी फौज लेय गिया अर राव जैतसी रे सामल हुया पण रात री बखत राव जैतसी सिरदारां नै बिना बतायां किणी काम सूं बीकानेर आयग्या जणा पाछै सूं सिरदारां नै ठाव पड़ियो कै राव जैतसी तो बीकानेर अपुठा गिया जद सगळा सिरदार आपरी फौज लेय पाछा आपरै मुकाम बावड्या अठीनै राव जैतसी पाछा सोवै आया जद सगळा सिरदार गिया परां उणी बखत राव मालदेव हमलो करियौ जैतसी आपरा150 आदमीयां नै घणा सुरापण सूं लड़तां थकां कुंपा मेहराजोत रे हाथां सूं मारिया गिया पछै मालदेव बीकानेर परियां बी भोजराज रूपावत अर उणरा बाकी जोदावां नै मार कब्जो कर लिन्यो।उण बखत जैतसी रो कडूम्बो अर कल्याणमल सिरसा रैया रावत किसनजी कांधलोत जद सिरसा मातम पुरसी करण आया तो किणी मेणो मारयो जड़ रावत किसनसी पाछा राजासर आय आपरा कांधलोत भायां नै भेळा करिया जिण मांय बणीर जी अर साईंदास जी बी सामल रैया अर मालदेव रा थाणा परियां हमला करणा सरू करिया लूणकरणसर ,गारबदेेसर रा थाणा उजाड़ दिन्या अर भीनासर तांई कब्जो कर लिन्यो पछै कुंपा मेहराजोत नै केवायो के कै तो बीकानेर गढ़ खाली करदे नीं मुकाबलो करण री तैयारी कर जद कुंपा कहियौ के म्हारौ पाछोनीं करो तो महुँ गढ़ खाली करुं इण तरु बीकानेर परियां कांधलोतां अधिकार करनै रावत किसनसी राव कल्याणमल री दुहाई फेर दी बठिनै भींवराज बी दिलली सूं बादसाह री फौज लेय आविया जिणसूं मुकाबला मांय जेता अर कुंपा लड़तां थकां मारिया गिया अर मालदेव हार नै भाज निसरियो।इण तरां साईंदासजी जद बी बीकानेर नै जुरत पड़ी आपरी फौज लेय गिया अर मदत किणी।

रावत कांधल जी रा बेटा अरडकमल जी ।अरडकमल जी रा बेटा खेतसी।
खेतसी रा बेटा हा साईंदास जी जिका साहवा रा धणी।जद राव जैतसी मालदेव सूं लड़तां थकां काम आया जद बण रा बेटा कल्याणमल जी सिरसा आय रैया अर सिरसा मांय खावण नै नाजदाणो पुगावण री जुमेवारी ही शेखसर रे गोदारां री जिका ओखा सोखा होयै घणो दोरो नाज दाणो ऊंठा री कतार माथै भिजवांता क्यूंकै शेखसर मांय बी थाणो मालदेव रो हूंतो।
ऐक बार साईंदास जी बीकानेर राव जी सूं मिलण खातर गिया जद रात हुयगी साईंदास जी पूग्या उण बखत रावजी ढोलिया माथै पौढ़ीया हा उणरौ एक पग तो सीधौ हो अर दूजे पग नै रावजी भेळो कर राख्यो साईंदास जी सोच्यो कै रावजी रे पग मांय दर्द दीख़ै जणा बोल्या हुकूम पग मांय दर्द है कांई ऐक पग भेळो क्यूं कर राख्यो है।पैलडा मिणख सूरवीर तो घणा हुँता पण मन रा भोळा हुँता अर कांधला नै तो लोगबाग बैयां ही भोळा बतावै ।
रावजी पण आपरौ डांव फेंक्यो बोल्या इण पग रे दड़बा रो भीलों अड़े है जिणसूं ओ पग सीधौ नीं हुवै ।
अर साईंदास रे तो बात लागगी अर लागै बी क्यू नीं पड़पोता तो उणी कांधल जी रा हा जिका ऐक बोल रे माथै इतणा कष्ट झाल लड़ायाँ लड़ भतीजे बीकाजी नै राज थरपियो हो ।साईंदास जी तो विदा मांग'र कैयो के अबै तो भीला नै मारिया ही मुंडो दिखाव सूं आ कैय व्हीर हुया ।
बठै सूं आय'र ऊंठां री कतार बणाय दड़बा रो गेलौ पकडियो अर जाय पूग्या दड़बा रे हल्का मांय ।
भीलो बैनीवाल तगड़ो सूरवीर दारू अमल रा दौर चलावै नै पात्रां रमावै अर तालाब रे मांय माटां (बड़ा घड़ा)री मचाण(नाव) बणाय पाणी रे बीच मांय रैवे दड़बा अर आसा पासा रा इलाका मांय घणो ख़ौफ़ अर दबदबो
आवण जावण हाला ओठयां सूं दाण लेवै नीं अर दाण लिया बिना पाणी बी ना पिवण दे।
साईंदास जी तो लेय आपरी कतार जायै पूगा तळाव रे माथै अर ऊंठा नै पाणी पावण लाग्या।साईंदास जी नै पाणी पावंता देख'र भीलो बैनीवाल हाको करियौ ''अरे कुण है तू बिना दाण दीयां पाणी कैंया पावै पेल्यां म्हारौ दाण दिराव"
साईंदास जी बोल्या "पेल्यां पाणी पीवै लूं पछै बात करस्यूं"
भीलो ओज्यूं बोल्यो नीं पेल्यां म्हारौ दाण चुका"
जद साईंदास जी कैयो "महूँ अजै तणी किणनै ही दाण नीं दियौ तूं दाण लेवण हालो कुण ह"
महूँ भीलो बैनीवाल अजै तणी किण नै ही दाण लीया बिना पाणी बी नीं पिवण दूं।

इण तरु करतां राड व्हैगी तरवारां खड़कीजि अर साईंदास जी भीला ने मार नाख्यो
पाछै घोड़े असवार हुयै निसरिया पाछा सूं हाको पड़ियो सगळा बैनीवाल भेळा हुय भीला रो बदलो लेवण सारू साईंदास रे गेल्यां वाहर चढिया साईंदास जी आपरौ घोड़ो भजायां जावै उन्हाळे रा दिन लाय घणी बळती चालै चालतां चालतां तिरसा घणा हुयग्या होंठ एकदम सुकग्या पाछा मुंडो करनै देख्यो तो लारै रेत रा भुंतालिया उठता आवै साईंदास जी देख्यो वाहर तो आयै पुगी पण पाणी बिना तो जीव इयां ही निसरियो जावै चालतां चालतां ऐक ढाणी रे कनै आय पूग्या ढाणी रे फलसा आगै ऐक डीकरी ऊभी क्यु काम करण लागरी फलसा कनै ही पाणी रा घड़िया पड्या साईंदास जी कनै आय'र घोड़ा नै ढबाय डीकरी नै कैयो "ऐ बाई पाणी पाव ,,

जणा डीकरी बोली "बीरा घोड़ा सूं उतरै नै पाणी पीवले"

जद साईंदास जी बोल्या "बाई तूँ उतावली सी म्हानै घोड़ा माथै ही पाणी रो लौटो झलाय दे म्हारै गेल्यां वाहर आवण लागरी है"

डीकरी बोली "भाई जणा ही तो महूँ थानै कैवूं घोड़ा सूं नीचा आवनै थावस स्यूं पाणी पीवो महूँ थानै क्यु नीं होवण दूं"

डीकरी री घणी जिद पछे साईंदास जी घोड़ा परियां उतरणै पाणी पीवौ
पछे डीकरी साईंदास जी नै मांय लेजाय'र कोठडी मांय बिठाया अर घोड़ा नै बी बाड़ा मांय लेजायै लुकावियो इतणी दार में तो बेनिवालां री वाहर आयै पुगी अर डीकरी नै पूछियो कै बाई अठै सूं कोई घोड़ा रो निसरियो जद डीकरी बोली म्हें तो कोनी देख्यो
बेनिवालां देख्यो के डीकरी साव कुड़ी बोलै घोड़े रा खुरां रा निसाण सामां दीखे रोळो मचियो
बेनिवालां रा आदमी बोलिया बाई क्यूं कुड बोलै घोड़ा रा खुर बतावै कै घोड़ो अर असवार अठै ही है

जद डीकरी बोली हाँ अठै ही है पण उणनै मारण स्यूं पेल्यां म्हानै मारणी पड़सी उण असवार म्हानै बाई कैयो अर म्हारै कैवण सूं घोड़ा सूं उतरणै पाणी पीवौ
इतणी दार में गांव रा बूढ़ा बडेरा बी रोळो सुण आयग्या अर पूछ्यौ कांई बात है जद डीकरी सगळी बात बताय कैयो के महुँ उणनै शरण दी है उणनै मारण सूं पेल्यां म्हानै मारणी पड़सी जद बेनिवालां डीकरी ने पूछ्यौ के बा कांई साख(गोत)री है जद बा बोली के महुँ बेनिवालां री बेटी हूँ
जद स्याणा आदमी बोल्या इणनै मारणो ठीक नीं आपणो आपस मांय बैर होज्यावसी जद वाहर हाला बोल्या ठीक है नीं मारां पण बण सुरे नै म्हानै दिखावण तो करावो जिकै ऐकला भीला ने मार नाख्यो जणा बण डीकरी कोठडी मांय सूं साईंदास जी ने लेय आयी पछे बूढ़ा बडेरा बोल्या के अबै आपस रो बैर भुलाय दयो जद बठै अमल गळियो पछे बेनिवाला अर साईंदास जी अमल री मनवारां किणी अर साईंदास जी कैयो के आज सूं म्हारौ अर बेनिवालां रो धरमेलो हुयौ अर आज रे पछे बेनिवालां री भाण बेटी म्हारी बी भाण बेटी हुयी आज रे पछ बेनिवालां री बेटी म्हारै सूं अर म्हारी औलाद सूं परदो नीं करैली चाहै बा म्हारै गांव मांय ब्याव नै ही क्यु नीं हो म्हारी औलाद बण नै आपरी भाण बेटी मानसी
इण तरु साईंदास जी धरमेलो करनै पाछा साहवा आविया अर नगर मांय इण प्रण रो ऐलाण करवायो साईंदास जी रो करियोडो प्रण साईंदासोत कांधला में अजै तणी चालै अर इणरा वंसज अजै तांई आपरै पुरखे रो करियोडो कौल निभावे है।अबै बी घणाई साईंदासोतां अर बेनिवालां मं धरमेलो है।

साईंदास जी आपरै जीवण मांय घणी लड़ायां लड़ी पण सगळी लड़ाया री जानकारी नीं मिलै साईंदास जी री मौत बी लड़तां थकां हुवी जिकै री बात लोक मांय घणी चालै लोकमानता अर किवन्दत्यां सूं जिकौ ठाव लागै बो इण तरु बताईजै
लोक मानता है कै जद साईंदास जी नितकर्म करण जाणता जद आपरो भालो जमीन मं रोप'र बी रै माथै आपरी कटार अर जनेऊ टांग नै नितकर्म ने जांवता इणी तरु ऐक दिन साईंदास जी आपरौ भालो रोप'र जनेऊ अर कटार भाले माथै टांग'र हाथ मांय पाणी रो लौटो लेय'र निंवटण गिया जद निवट नै पाछा बावड्या उणी टेम दुस्मयां घात कर दीन्यो जिका बठै ई झाड़कां मांय लुकियोडा हा दुसमी घणा अर साईंदास जी ऐकला अर हाथ मांय खाली एक लौटो अस्त्र सस्त्र तो घणी दूर भाले माथै टंगेडा हा पण साईंदास जी दकाल नै दुस्मणा रो सामों करियौ अर हाथ मांय पीतल रे भारी लोटा स्यूं कैयी दुस्मणा ने मार न्हाख्या जनश्रुति रे मुजब साईंदास जी अठारह आदमीयां नै मार'र पछै आप बी सुरगां सिद्धारया ।साईंदास जी री मौत रो टेम अर जिगां(स्थान) शोध् रो विषय है।साईंदास जी री सगळी लड़ाइयां रो ब्योरो नीं मिले साईंदास जी रा वंसज साईंदासोत कांधल कहावै साईंदासोतां रो बीकानेर राज मांय घणो दखल रैयो जद जुरत पड़ी बीकानेर री मदत सारू त्यार रैया अर आपरी सुतंत्रता खातर बीकानेर सूं लड्यां बी घणा साईंदासोतां रो भादरा ठिकाणो इतो तकड़ो हो कै इणनै खालसा करण सारू जद बीकानेर फौज अर जैपर शेखावाटी फौज मिल'र भादरा नीं भेळ सकी जणा पटियाला रा सिखां री फौज री मदत लेय कैयी मिन्हाऊँ भादरा खालसा करीजी।साईंदास जी रे सात बेटा हा जिका इण तरु है।
(१)जयमल जी ठिकाणा साहवा
(२)कान्ह जी ठिकाणा गडाणा
(३)ठाकरसिंह बेऔलाद
(४)खिंवजी बेऔलाद
(५)खंगार सिंह जी ठिकाणा सिकरोडी
(६)जालाण जी बेऔलाद
(७)लक्षमण जी बेऔलाद
साईंदास जी रा तीन बेटा स्यूं साईंदासोत कांधल वंस चाल्यो।

साभार :-अजयसिंह सिकरोड

मंगलवार, 13 जून 2017

शेरगढ़ के सूरमा अमर शहीद प्रभूसिंह इनकी 5 पीढ़ी राष्ट्र सेवा में (परिचय)

शहीद प्रभू सिह 
  
जीवन परिचय:-प्रभु सिह का जन्म जोधपुर जिले में शेरगढ़ तहशील के खिरजा खास गांव में हुआ था उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव से ही प्राप्त की।फिर अपने परिवार से प्रेरित होकर उनके मन में भी देश सेवा करने की जिज्ञासा जग उठी,उन्होंने आर्मी ज्वाइन करने की ठान ली,और उनके मन मे आर्मी में भर्ती होने की बात घर कर गई थी इस हेतु उन्होंने पूर्ण तैयारी-अभ्यास करना प्रारम्भ कर चुके थे  भारत-पाक की सिमा का जिक्र आते ही वो बड़े ध्यान से सुनते थे और फिर क्या था उन्होंने आर्मी ज्वाइन कर देश सेवा में लग गए। उनके मन में कुछ कर गुजरने की इच्छा थी 
22 नवम्बर कुपवाड़ा के माछिल सेक्टर में अपनी ड्यूटी पर तैनात थे आप पेट्रोलिग के समय गाइड की भूमिका निभाते थे सीमा रेखा के नजदीक पेट्रोलिंग करते समय गहन झाड़ियों में छिपे आतकवादीयो ने सहसा गोलियों की बौछार कर दी। प्रथमतः आपके पैर में गोली लगने से नीचे गिर पड़े और अपनी जगह सुनिशिचत कर कमान सभाल ली। आमने सामने की अंधाधुन्ध फायरिग में हौसला रखते हुए दुश्मनो को करारा जवाब दिया ।भयकर गोलीबारी में एक बूस्ट सीने पर लगा फिर भी हौसला बनाये रखा ।अत्यधिक सख्या में घात लगाए बैठे दुश्मनों की गोलियों से राइफलमैन प्रभु सिंह वीरगति को प्राप्त हुए।

   आइये जाने इस परिवार की सघर्ष की गाथा:-
पहली पीढ़ी:-अजीत सिंह ने महाराज मानसिंह के काल में दिया था पहला बलिदान अजीत सिंह भभूत सिह के पुत्र थे 

दूसरी पीढ़ी:-खुम्भ सिंह के 3बेटों ने अपने दादा की तरह देश सेवा चुना।

तीसरी पीढ़ी :-पुंजराज सिह के 3बेटो ने अपने पिता दादा वह परदादा की परंपरा का निर्वहन किया ।

चौथी पीढ़ी :-65 के युद्ध में पाक को धूल चटाई 
अचल सिह पुंजराज सिह के भतीजे थे वे रजवाड़े में सरदार इन्फेंट्री में जोधपुर में तैनात थे उनके 6बेटो में 4 ने देश सेवा की केप्टन हरी सिह जम्मु वह सियासिन सहित 65  के युद्ध में दुश्मनो से लोहा मनवा चुके है

पांचवी पीढ़ी:-शहीद प्रभु सिंह और केप्टन हरी सिंह के पुत्र 1आर्मी में और दूसरे एयरफोर्स में है उम्मेद सिह के पुत्र भेरू सिह फौजी रहा खीव् सिह के पुत्र अगर  सिंह आर्मी में हे ।शिवदान सिह के पुत्र रिड़मल सिह तो प्रभु सिह के लगा और अभी पंजाब में तैनात है।

इस तरह शेरगढ़ वीरो की जन्म भूमि है।सबसे ज्यादा सैनिक शेरगढ़ तहसील होते है याह के जवान अपना राष्ट्रधर्म राष्ट्रसेवा को मानते है वो राष्ट्रसेवा में हसते हसते जान पर खेल जाते है शेरगढ़ का योगदान प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर करगिल युद्ध तक अविस्मरणीय रहा।द्वितीय विश्वयुध्द में शेरगढ के 79जवान शहीद हुए थे



शुक्रवार, 9 जून 2017

शीश कट्यो धङ लङी भाटी कुळ रो भाण। जय जुन्झारा आपरी अमर रहे जैसाण

"शीश कट्यो धङ लङी भाटी कुळ रो भाण। 
जय जुन्झारा आपरी अमर रहे जैसाण


"।। 

बाबरा की बही जो ठिकाणे के समय से ही लिखी जाती थी जो फिलहाल बीकानेर ग्रन्थालय में सुरक्षित है से जानकारी के अनुसार बाबरा के फौजदार भाटी जीवराज सिंह ने विक्रम संवत 1801 में बाबरा ठाकूर अखेराज जी की अनुपस्थिति में मेवाशियों से गायोें को बचाने हेतु अपने प्राणों का बलिदान दिया और बाबरा के प्रथम झुन्झार हुऐ। 
करीब 8 माह पूर्व खुदाई के दौरान उनकी 4 फुट बङी प्रतिमा लिलङी नदी के तट पर प्रकट हुई। 
वर्तमान में बाबरा के भाटी परिवारों ने नये भव्य स्मारक का निर्माण करा दिनांक 5-06-2017 को विधिवत रूप से पूजा अर्चना करवाकर मूर्ति की स्थापना करवाई। 
1833 में बाबरा ठाकूर दौलत सिंह जी के मेङता लङाई में जाने पर उनकी अनुपस्थिति में मराठों ने कर देने से मना कर दिया। तब तत्कालिन फौजदार भाटी जसरूप सिंह जी मराठों से युद्ध में शहीद हुऐ। 
उनका स्मारक भी लीलङी नदी के तट पर पहले से स्थित है। 
नोट:- बाबरा के भाटी जैसा गोयन्ददासोत नख के है
        भाटियों को लवेरा से  विक्रम संवत 1745 में बाबरा गांव के फौजदार का पद इनायत हुआ था बाबरा आने वाले प्रथम फौजदार भाटी शंकरदास (लवेरा के भानीदास के वशंज)थे।

गुरुवार, 8 जून 2017

जालोर के वीर शासक कान्हडदेव चौहान और जालोर का शाका

जालौर के वीर शासक कान्हड़देव का नाम आते ही लेखकों की कलमें ठहर जाती है तो पढ़ने वालों के कलेजे सिंहर उठते हैं। कारण यह नहीं कि उसने अपने से कई गुना शक्तिशाली दुश्मन को मात दी और अंत में बलिदान दिया। यह तो राजस्थान की उस समय की पहचान थी। कलम के ठहरने और कलेजों के कांपने का कारण यह था कि कान्हड़देव जैसे साहसी एवं पराक्रमी शासक का अंत ऐसा क्यों हुआ ? क्यों नहीं अन्य शासक उसके साथ हुए, क्यों नहीं सोचा कि कान्हड़देव की पराजय के बाद अन्य शासकों का क्या होगा। शायद डॉ. के.एस. लाल ने अपने इतिहास ग्रंथ 'खलजी वंश का इतिहास' में सही लिखा है कि'पराधीनता से घृणा करने वाले राजपूतों के पास शौर्य था, किंतु एकता की भावना नहीं थी। कुछेक ने प्रबल प्रतिरोध किया, किंतु उनमें से कोई भी अकेला दिल्ली के सुल्तान के सम्मुख नगण्य था। यदि दो या तीन राजपूत राजा भी सुल्तान के विरुद्ध एक हो जाते तो वे उसे पराजित करने में सफल होते।'
डॉ. के.एस. लाल की उक्त टिप्पणी बहुत ही सटीक है। कान्हड़देव की वंश परम्परा के सम्बन्ध में ही उदयपुर के ख्यातिनाम लेखक एवं इतिहासवेता डॉ. शक्तिकुमार शर्मा 'शकुन्त' ने लिखा है कि- 'चाहमान (चौहान) के वंशजों ने यायव्य कोण से आने वाले विदेशियों के आक्रमणों का न केवल तीव्र प्रतिरोध किया अपितु 300 वर्षों तक उनको जमने नहीं दिया। फिर चाहे वह मुहम्मद गजनी हो, गौरी हो अथवा अलाउद्दीन खिलजी हो, चौहानों के प्रधान पुरुषों ने उन्हें चुनौती दी, उनके अत्याचारों के रथ को रोके रखा तथा अन्त में आत्मबलिदान देकर भी देश और धर्म की रक्षा अन्तिम क्षण तक करते रहे।
बस, यही सब कुछ हुआ था इस चौहान वं श के यशस्वी वीर प्रधान पुरुष जालौर के राजा कान्हड़देव के साथ भी। पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद चौहानों की एक शाखा रणथंभौर चली गई तो दूसरी शाखा नाडौल और नाडौल से एक शाखा जालौर में स्थापित हो गई। कीर्तिपाल से प्रारम्भ हुई यह शाखा समरसिंह, उदयसिंह, चा चकदेव, सामन्तसिंह से होती हुई कान्हड़देव तक पहुँची। किशोरावस्था से अपने पिता का हाथ बांटने के निमित्त कान्हड़देव शासन र्यों में रुचि लेना शुरूकर दिया था। संवत 1355 में दिली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात जाने के लिए मारवाड़ का रास्ता चुना। कान्हड़देव को इस समय तक अलाउद्दीन के मनसूबे का पता लग चुका था। वह अपने इस अभिमान के तहत सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ना चाहता था। उसने कान्हड़देव को खिलअत से सुशोभित करने का लालच भी दिया मगर वह किसी भी तरह तैयार नहीं हुआ और सुल्तान के पत्र के जवाब में पत्र लिखकर साफ-साफ लिख भेजा-'तुम्हारी सेना अपने प्रयाण के रास्ते में आग लगा देती है, उसके साथ विष देने वाले व्यक्ति होते हैं, वह महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करती है, ब्राह्मणों का दमन करती है और गायों का वध करती है, यह सब कुछ हमारे धर्म के अनुकूल नहीं है, अत: हम तुम्हें यह मार्ग नहीं दे सकते हैं।”
कान्हड़देव के इस उत्तर से अलाउद्दीन खिलजी का क्रोधित होना स्वाभाविक था। उसने समूचे मारवाड़ से निपटने का मन बना लिया। गुजरात अभियान तो उसने और रास्ते से पूरा कर लिया लेकिन वह कान्हड़देव से निपटने की तैयारी में जुट गया और अपने सेनापति उलुग खां को गुजरात से वापसी पर जालौर पर आक्रमण का आदेश दिया।उलुगखां अपने सुल्तान के आदेशानुसार मारवाड़ की और बढ़ा ओर सर्वप्रथम सकराणा दुर्ग पर आक्रमण किया। सकाराणा उस समय कान्हड़देव के प्रधान जेता के जिम्मे था। द्वार बन्द था। मुस्लिम सेनाओं ने दुर्ग के बाहर जमकर लूटपाट मचाई, लेकिन यह अधिक देर नहीं चली और जेता ने दुर्ग से बाहर निकलकर ऐसा हमला बोला जो उलुगखां की कल्पना से बाहर था, उसके पैर उखड़ गये और भाग खड़ा हुआ। जेता मुस्लिम सेना से सोमनाथ के मन्दिर से लाई पांच मूर्तियां प्राप्त करने में सफल रहा। इतिहास में अब तक इस युद्ध पर अधिक प्रकाश नहीं डाला गया है लेकिन गुजरात लूटनेवाली सुल्तान की सेना को पराजित करना आसान काम नहीं हो सकता था, अत: निश्चित ही जालौर विजय से पूर्व यह युद्ध कम नहीं रहा होगा। स्मरण रहे कि इस युद्ध में सुल्तान का भतीजा मलिक एजुद्दीन और नुसरत खां के भाई के मरने का भी उल्लेख है।
इस पराजय के बाद 1308 ई. में. अलाउद्दीन ने कान्हड़देव को अपने विश्वस्त सेनानायक व कुशल राजनीतिज्ञ के द्वारा दरबार में बुलाया, बातों में आ गया और वह चला भी गया। जब पूरा दरबार लगा था, अलाउद्दीन ने अपने आपको दूसरा सिकन्दर घोषित करते हुए कहा कि भारत में कोई भी हिन्दू या राजपूत राजा नहीं है जो उसके सामने किंचित् भी टिक सके। कान्हड़देव को यह बात खटक गई, उसका स्वाभिमान जग उठा, उसने तलवार निकाल ली और बोल पड़ा-"आप ऐसा न कहें, मैं हूँ, यदि आपको जीत नहीं सका तो युद्ध करके मर तो सकता हूँ, राजपूत अपनी इस मृत्यु को मंगल-मृत्यु मानता है।'
यह कह कान्हड़देव अलाउद्दीन खिलजी का दरबार छोड़कर वहाँ से चल पड़ा और जालौर आ गया। सुल्तान ने कान्हड़देव के इस व्यवहार को बहुत ही बुरा माना और 1311 ई. में तुरन्त दंड देने के लिए जालौर की ओर अपनी सेना भेजी। डॉ. के.एस. लाल का कहना है कि राजपूतों ने शाही पक्षों को अनेक मुठभेड़ों में पराजित किया और उन्हें अनेकबार पीछे धकेल दिया। उन्होंने यह भी माना कि जालौर का युद्ध भयानक था और संभवत: दीर्घकालीन भी। गुजराती महाकाव्य 'कान्हड़दे प्रबन्ध' के अनुसार संघर्ष कुछ वर्षों तक चला और शाही सेनाओं को अनेक बार मुँह की खानी पड़ी। इन अपमान जनक पराजयों के समाचारों ने सुल्तान को उतेजित कर दिया और उसने अनुभवी मलिक कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। सुल्तान की सेना का जालौर से पूर्व ही सिवाणा के सामंत सीतलदेव ने सामना किया। दोनों के बीच ऐसा युद्ध हुआ जिसकी कलपना संभवत: सुल्तानी सेना नायकों के मस्तिष्क में थी भी नहीं। यही कारण था कि एक बार पुन: पराजय झेलनी पड़ी और वहाँ से दूर तक भागना पड़ा। सुल्तान को ज्यों ही पुन: पराजय का समाचार मिला, कहते हैं कि वह स्वयं इस बार पूरी शक्ति के साथ जालौर पर चढ़ आया।
अब तक सुल्तान को यह आभास अच्छी तरह हो गया था कि युद्ध में रणबांकुरे राजपूतों को पराजित करना कठिन ही नहीं असम्भव है। परिणाम स्वरूप अब सुल्तान की ओर से कूटनीतिक दांव-पेच शुरू हो गये और दुर्ग के ही एक प्रमुख भापला नामक व्यक्ति को प्रचूर धन का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। भापला ने दुर्ग के द्वार खोल दिये और मुस्लिम सेना ने दुर्ग में प्रवेश कर लिया। दुर्ग में तैयारियां पूर्ण थी। ज्यों ही सुल्तान की सेना का प्रवेश हुआ, अन्दर राजपूतों महिलाएं जौहर करने के लिए आगे बढ़ी तो पुरुष भूखे शेरों की तहर टूट पड़े। घमासान छिड़ गया। संख्या में राजपूत कम अवश्य थे लेकिन युद्ध को देखकर ऐसा लग रहा था मानो हजारों की सेना आपस में भिड़ रही हों। यहाँ यदि यह कहा जाए तो अतिश्योति नहीं होगी कि मुट्ठीभर राजपूतों ने पुन: यह बता दिया कि वे मर सकते हैं लेकिन हारते नहीं। देखते ही देखते जालौर के दुर्ग में मरघट की शान्ति पसर गई। 18 वर्ष का संघर्ष समाप्त हो गया। कान्हड़देव का क्या हुआ, इतिहास के स्रोत मौन है लेकिन जालौर का पतन हो गया और साथ ही उस शौर्य गाथा को भी विराम मिल गया जिसका प्रारम्भ चौहान वंशीय वीर-पुत्र कान्हड़देव ने किया था।
अलाउद्दीन को जालौर-विजय की खुशी अवश्य थी, लेकिन उसने यह समझने में किंचित् भी भूल नहीं की कि राजपूताने को जीतना कठिन है। यही कारण है कि इस विजय के उपरांत उसने यहाँ के राजपूत शासकों के संग मिलकर चलने में ही अपनी भलाई समझी और फिर कोई बड़ा अभियान नहीं चलाया। स्वयं डॉ. के.एस. लाल ने अपनी पुस्तक 'खलजी वंश का इतिहास' के पृष्ठ 114 पर लिखा है.राजपूताना पर पूर्ण आधिपत्य असंभव था और वहाँ अलाउद्दीन की सफलता संदिग्ध थी।" अपनी इस बात को स्पष्ट करते हुए डॉ. लाल लिखते हैं कि-'राजपूताना में सुल्तान की विजय स्वल्पकालीन रही, देशप्रेम और सम्मान के लिए मर मिटनेवाले राजपूतों ने कभी भी अलाउद्दीन के प्रांतपतियों के सम्मुख समर्पण नहीं किया। यदि उनकी पूर्ण पराजय हो जाती तो वे अच्छी तरह जानते थे कि किसी प्रकार अपमानकारी आक्रमण से स्वयं को और अपने परिवार को मुक्त करना चाहिए, जैसे ही आक्रमण का ज्वार उतर जाता वे अपने प्रदेशों पर पुन: अपना अधिकार जमा लेते। परिणाम यह रहा कि राजपूताना पर अलाउद्दीन का अधिकार सदैव संदिग्ध ही रहा। रणथम्भौर, चित्तौड़ उसके जीवनकाल में ही अधिपत्य से बाहर हो गये। जालौर भी विजय के शीघ्र बाद ही स्वतन्त्र हो गया। कारण स्पष्ट था, यहाँ के जन्मजात योद्धाओं की इस वीर भूमि की एक न एक रियासत दिल्ली सल्तनत की शक्ति का विरोध हमेशा करती रही, चाहे बाद में विश्व का सर्वशक्तिमान सम्राट अकबर ही क्यों न हो, प्रताप ने उसे भी ललकारा था और अनवरत संघर्ष किया था।
साभार-तेजसिंह तरुण

पीरो के पीर बाबा रामदेव पीर रुनिचा

!!घणी घणी खम्मा राजा रामदेवजी ने !!
|| कौन थे राजा अजमल जी ||
!! क्यों कहते हैं बाबा !!
!! कौन थी डाली बाई !!
||श्री बाबा रामदेवजी की कथा
भगवान श्री रामदेव का अवतार संवत् १४६१ भांदों सुदी दोज शनिवार को पोखरण के तोमरवंशी राजा अजमल के यहां हुआ था। वह भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त और धर्मपरायण राजा थे, लेकिन नि:संतान होने के कारण दुखी रहते थे। नि:संतान होने के कारण उन्होंने द्वारकाधीश यात्रा के दौरान समुद्र में देह त्यागने का संकल्प किया और कूद गए। लेकिन जब आंख खुली तो वह द्वारकाधीश श्रीकृष्ण के सामने थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर बरदान मांगने को कहा तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण जैसा पुत्र मांगा।


श्रीकृष्ण ने स्वंय बलरामजी के साथ उनके घर अवतरित होने का वरदान दिया। इसी वरदान के कारण पहले बलरामजी ने वीरमदेव के रूप में राजा अजमल की पत्नि मैढ़ादे के गर्भ से जन्म लिया, इसके नौ माह बाद भगवानश्रीकृष्ण श्रीरामदेव के रूप से पालने में अवतरित हुए। भगवान ने बालकाल से ही अपनी बाल लीलाएं दिखाना प्रारंभ की। पालने में प्रकट होने के बाद माता मैनादे को चमत्कार दिखाया, उनके आंचल से दूध की धार भगवान रामदेव के मुख में गिरने लगी और चूल्हे पर रखे बर्तन से उफन-उफन कर दूध बाहर गिर रहा था, उसे पालने से ही भुजा पसार कर उतार दिया। मां मैनादे को चतुरभुज रूप में दर्शन दिया। पांच वर्ष की उम्र में दर्जी रूपा द्वारा बनाए कपड़े के घोड़े को आकाश में उड़ाया वह तुरंत ही सजीव नीला घोड़ा हो गया। भैरव राक्षस को इसका पता चला तो उसने छोटे भाई आदू को रामदेव और वीरमदेव को पकडऩे भेजा, तब भगवान श्रीरामदेव ने घोड़े पर सवार होकर आदू नामक राक्षस को भाले से मारा।आदू के मरने के बाद उसने राज्य की जनता पर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया। श्री रामदेव ने भैरव राक्षस का वध कर राज्य की प्रजा को अत्याचारों से मुक्त कराया। व्यापारी लाखा बंजारा बैल गाडिय़ों में मिश्री भरकर पोखरण की ओर जा रहा था, तभी रास्ते में उसकी भेंट घोड़े पर आ रहे भगवान रामदेव से हुई, उन्होंने पूछा गाडिय़ों में क्या है तब लाखा ने कहा बाबजी नमक भरा है तो रामदेव जी ने कहा जैसी तेरी भावना। यह कहते ही गाडिय़ों की सारी मिश्री नमक बन गई। तब लाखा बंजारे को अपने झूठ पर पश्चाताप हुआ, उसने श्री रामदेव से माफी मांगी तब उन्होंने नमक को मिश्री बना दिया। बोहिता राजसेठ की नाव को समुद्र के तूफान से निकालकर किनारे लगाया। स्वारकीया भगवान रामदेव का सखा था उसकी मृत्यु शर्प के डंसने से हो गई तब श्री रामदेव जी ने उसका नाम पुकारा वह तुरंत ही उठकर बैठ गया। दला सेठ नि:संतान था, साधू संतों की सेवा उसका नित्य काम था भगवान श्री रामदेव की कृपा से उसे पुत्र प्राप्त हुआ उसने रूढि़चा स पत्नि बच्चे के साथ पैदल यात्रा की रास्ते में उसे लुटेरों ने मार दिया सिर धड़ से अलग कर दिया, भगवान श्रीरामदेव की कृपा से पुन: उसका सिर धड़ से जुड़ गया। भगवान रामदेव कलयुग के अवतारी हैं शेष शैय्या पर विराजमान महाशक्ति विष्णु का अवतार भगवान कृष्ण व भगवान राम का था। उसी शक्ति ने कलयुग में अवतार भगवान रामदेव के रुप में लिया था। उन्होंने अंधों को आंखें दी, कोढिय़ों का कोढ़ ठीक किया, लंगड़ों को चलाया। बाद में उन्होंने पोखरण राज्य अपनी बहिन लच्छाबाई को दहेज में दे दिया और रूढि़चा के राजा बने। यहीं पर संवत् १५१५ भादों सुदी ग्याहरस को ५३ वर्ष की आयु में जीवित समाधि ली। भगवान रामदेव की कृपा से आज भी उनके दरबार में अर्जी लगाने पर पीडि़त लोग ठीक हो रहे हैं।
!! कौन थे राजा अजमल !!
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राजस्थान में पोखरण के राजा श्री अजमल द्वापर में अर्जुन थे। उनका पूरा समय परिवार विवाद ,राजपाठ की लड़ाई में चला गया, भगवान कृष्ण का सानिध्य होते हुए भी वह उनकी सेवा नहीं कर सके। भगवान श्री कृष्ण जब मृत्यु लोक से वापिस अपने धाम जाने लगे तब अर्जुन ने कहा था कि हे भगवान आपका छत्रछाया पाकर भी में इस जन्म में आपकी सेवा नहीं कर पाया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा उसे कलयुग में सेवा करने का अवसर देंगे। कलयुग में वही अर्जुन पोखरण के तोमरवंशी राजा हुए और भगवान श्री कृष्ण की अनन्य भक्ति की, श्री कृष्ण के दर्शन पाए। उन जैसा पुत्र मांगा इसी कारण भगवान श्री कृष्ण उनके घर श्रीरामदेव जी के रूप में पुत्र बनकर अवतरित हुए। सिर्फ तीन प्रतिशत ठीक नहीं होंगे भगवान रामदेव का कहना है कि उनके दरबार में आने वाले ९७ प्रतिशत पीडि़त ठीक होंगे, लेकिन तीन प्रतिशत वे लोग ठीक नहीं होंगे जो भगवान पर विश्वास नहीं रखते।
!! क्यों कहते हैं बाबा !!
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भगवान रामदेव की परीक्षा लेने मक्का के पीर आए थे, जब उन्होंने परीक्षा के बाद वापिस जाने के लिए आज्ञा मांगी तो श्रीरामदेव जी ने कहा कि अब तुम वापिस नहीं जाओगे, मेरे साथ ही रहोगे। क्योंकि पीरों को बाबा कहा जाता है। श्रीरामदेव तो पीरों के भी पीर हैं, इसलिए उन्हें भी लोग बाबा कहकर पुकारते हैं।रामा धणी के नाम से पुकारते हैं।
!! कौन थीं डॉली बाई !!
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द्वापर में भगवान श्री कृष्ण की भक्त कुबजा थीं भगवान ने उनकी भक्ति के कारण उनकी कूबड़ ठीक कर स्वास्थ्य शरीर किया था। वही कुबजा द्वारकाधीश के श्री रामदेव अवतार में डालीबाई बनीं और भगवान श्रीरामदेव की भक्ति की। उनको भगवान ने भक्त महासति डालीबाई का पद दिया।
|| समाधि ||
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बाबा रामदेवजी महाराज ने १५२५ को भादवा सुदी ११ के दिन रुणिचा गांव के राम सरोवर पर सब रुणिचा वासियों को समझाया तत्पश्चात आपने समाधी ली|रामदेव जी ने समाधी में खड़े होकर सब के प्रति अपने अन्तिम उपदेश देते हुए कहा प्रति माह की शुक्ल पक्ष की दूज को पूज पाठ, भजन कीर्तन करके पर्वोत्सव मनाना, रात्रि जागरण करना। प्रतिवर्ष मेरे जन्मोत्सव के उपलक्ष में तथा अन्तर्ध्यान समाधि होने की स्मृति में मेरे समाधि स्तर पर मेला लगेगा। मेरे समाधी पूजन में भ्रान्ति व भेद भाव मत रखना। मैं सदैव अपने भक्तों के साथ रहुँगा। इस प्रकार श्री रामदेव जी महाराज ने समाधी ली।प्रभु ने समाधी ली और प्रजा में शोक संचार हो गया, उनमे बेचैनी बढ़ गयी| दुखित होकर सभी पुकारने लगे और जब प्रजा से रहा नहीं गया तो उनहोंने समाधी को खोदा| समाधी खोदते ही उस जगह पर फूल मिले और सभी प्रजा ने नमन कीया और उस जगह पर बाबा कि समाधी बनाई |
॥ घणी घणी खम्मा राजा रामदेवजी ने

स्वाभिमानि वीर दुर्गादास राठोड़

महाराजा जसवंतसिंह जी की शहादत के बाद मारवाड राजघराने के एक मात्र जीवित चिराग राजकुंवर अजितसिंह को जब औरंगजेब ने अपने किले मे बन्दी बनाकर मारने की योजना बनाई. जिसकी भनक लगते ही वायु से भी तेज वेग और बिजली से भी अधिक फुर्ती से राष्ट्रवीर दुरगादास राठौड मुगलिया किले मे प्रवेश कर राजकुंवर अजितसिंह को अपनी पीठ पर बांधकर किले से बाहर लेकर आये. मेवाड, सिरोही और मारवाड रिसायत के अलग अलग ठिकानो पर शिशु अजितसिंह को औरंगजेब की कुदृष्टी से छुपाकर युगपुरुष वीरवर दुर्गादास राठौड ने उनका लालन पालन कर बडा किया. कभी गोगुन्दा की पहाडियो के बीच तो कभी सिरोही की चुली, राडबर की पहाडियो मे तो कभी गोईली गांव मे अजित को छुपाकर रखा. कभी जालोर जिले के जंगलो मे तो कभी बाडमेर के छप्पन की पहाडियो मे ओट लेकर लगभग 20 वर्षो तक अजितसिंह को दुनिया की नज़र नही लगने दी.
महाराजा जसवंतसिंह जी को दिये वचन और महाराजा के भरोसे (आज मै इस पर छाया कर रहा हु एक दिन ये मारवाड पर छाया करेगा) पर खरा उतरते हुये वीरवर दुर्गादास राठौड ने प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक अजितसिंह को मारवाड का शासक घोषित नही करवा दुं तब तक ना खुद चैन से बैठुंगा और ना ही औरंगजेब को चैन की निन्द सोने दुंगा. साथ ही ये भी शपथ ली कि औरंगजेब की मुस्लिम राष्ट्र की निति को मारवाड मे कभी कामयाब नही होने दुंगा. जिसके चलते ही मारवाड मे हिन्दु धर्म को किसी प्रकार की कोई आंच तक नही आयी. औरंगजेब मारवाड का एक भी धार्मिक मन्दिर नही तोड सका, एक भी हिन्दु व्यक्ति को मुस्लिम नही बना सका. औरंगजेब के मिशन इस्लाम को सफल बनाने मे लगे उसके सिपाहियो और गोळो (गांगाणी का पट्टा प्राप्त करने वाले) को मारवाड के प्रतिपालक दुर्गादास राठौड ने कभी कामयाम नही होने दिया. वीर शिरोमणी दुर्गादास राठौड ने मारवाड की जिर्णशिर्ण राजपुत शक्ति को पुनः एक बार महाशक्ति मे तब्दिल किया. छोटे छोटे कुनबो मे बिखर चुके राजपुतो को पुनः पंचरंगा ध्वज के निचे एकजुट करके औरंगजेब को इतने घाव दिये कि औरंगजेब का पुरा शरीर छलनी हो गया. औरंगजेब हर मोर्चे और हर चाल मे विफल होता गया. यहाँ तक कि उसका स्वयं का पुत्र उसके विरोध मे खडा हो गया.
जिस पर कवि ने लिखा
ढबक ढबक ढोल बाजे दे दे ठोर नगारा की!
आसा घर दुर्गो ना होतो सुन्नत होती सारो की!!
अर्थात आज जिन घरो और मन्दिरो मे ढोल और नगारे बज रहे है यानी कि हिन्दुत्व कायम है वो सिर्फ और सिर्फ दुर्गादास की वजह से कायम है. अगर आसकरण जी के घर दुर्गादास ने जन्म नही लिया होता तो आज मारवाड मे चारो ओर सुन्नत (मुस्लिम ही मुस्लिम) नज़र आती.
देश सपूत वीरवर दुर्गादास राठौड मात्र मारवाड या राजपुताने तक ही सिमित नही रहे. उन्होने पुरे हिन्दुस्तान के साथ साथ एशिया और युरोप मे भी अपनी धाक जमाई. काबूल के पठानो से लेकर अरब के शेखो तक को अपनी तरफ मिलाकर विदेशी आक्रमण से औरंगजेब को भयभित किया तो मराठा, सिख और गुरखो से अलग अलग विद्रोह करवा कर औरंगजेब को हमेशा मारवाड से कोसो दुर रखा. क्षात्र धर्म के नेमी वीरवर दुर्गादास की कूटनिति का ही परिणाम था कि इन 20 से 25 वर्षो तक औरंगजेब कभी शांति से मारवाड के बारे मे सोच ही नही सका. उपर से वीर दुर्गादास राठौड ने औरंगजेब की नाक के नीचे से उसके छोटे छोटे पोता पोती को अगवा करके छप्पन की पहाडियो मे लाकर छुपा दिया. जो औरंगजेब के लिये छुल्लु भर पानी मे डुब मरने जैसी बात हो गयी. दुर्गादास ने औरंगजेब के पोता पोती को कई सालो तक अपनी कैद मे रखा. और इस दरम्यान उनको उर्दु तालिम देने के लिये दुर्गादास ने बकायदा एक मौलवी को तैनात किया. बाडमेर के गढ सिवाणा के पास छप्पन की पहाडियो मे एक छोटा सा किलानुमा पोल बनायी. उसके पास ही उनको रखा गया था. जहाँ स्वयं वीर दुर्गादास राठौड प्रतिदिन उनकी देखभाल के लिये आते थे. लेकिन इतने सालो मे एक बार भी इस वीर ने औरंगजेब के पोता पोती को अपना चेहरा नही दिखाया, पर्दे की ओट मे ही उनसे बातचित की जाती थी. जिसके कारण दोनो बच्चे दुर्गादास जी को केवल आवाज़ से ही पहचानते थे शक्ल से नही. जब वीरवर दुर्गादास राठौड और औरंगजेब के बीच समझौता हुआ, उसने मारवाड के शासक के रूप मे अजितसिंह को स्वीकार किया तब उसके पोता पोती को ससम्मान वापस पहुंचाया गया. बच्चो से मिलकर जब औरंगजेब ने पुछा कि बच्चो आप कहाँ थे? और आपको वहाँ किसने रखा था? तो बच्चो ने कहा जगह का तो पता नही पर हम वहाँ दुर्गा बाबा के पास थे. तब औरंगजेब ने कहा आपका दुर्गाबाबा कौन है हमे भी बताओ तब बच्चो ने कहा हम उनको शक्ल से तो नही जानते पर अगर वो बोलेंगे तो हम बता देंगे, हम उन्हे सिर्फ आवाज़ ही पहचानते है. उनको कभी देखा नही. कहते है वीर दुर्गादास राठौड ने औरंगजेब के सामने जब उन बच्चो को पुकारा तो दोनो बच्चो ने बाबा को बाहों मे भर लिया और लिपट गये. कहते है जब औरंगजेब ने ये दृश्य देखा तो उसके मन से कट्टरता की भावना ही खत्म हो गयी.
ताम्रपत्र को रखा घुटने पर, औरंगजेब को किया जलिल महाराजा जसवंतसिंह की शहादत के बाद मारवाड को अपने एकाधिकार मे लेने की सोच के साथ ही औरंगजेब ने एलान करवा दिया था कि कोई भी व्यक्ति जसवंतसिंह या उसके परिजनो का नाम लेगा उसकी जुबान काट दी जायेगी. लोग अजितसिंह और जसवंतसिंह का नाम तक अपनी जुबान पर नही लाते थे. जब वीरवर दुर्गादास राठौड और औरंगजेब के बीच समझौता हुआ. उसके पोता पोती के बदले मारवाड का राज्य देने की बान बन गयी तब दुर्गादास राठौड को मारवाड राज्य का ताम्रपत्र जारी किया गया. उस काल की परम्पराओ के अनुसार बादशाह द्वारा बक्शिस किया गया ताम्रपत्र अपने हाथो मे लेकर सिर पर रखने का रिवाज़ था. एक कहावत कही जाती है कि “राज का आदेश सिरोधार्य”! लेकिन वीर दुर्गादास ने वो ताम्रपत्र सिर पर नही रखकर अपने दाहिने पैर के घुटने पर रखा. जिसे देखते ही औरंगजेब तुरंत समझ गया कि स्व. महाराजा जसवंतसिंह का पुत्र राजकुंवर अजितसिंह अभी तक जिन्दा है. और औरंगजेब के मुंह से अनायास ही निकल गया “क्या जसवंतसिंह की औलाद जिन्दा है?” तब महान रणनितिकार वीरवर दुर्गादास राठौड ने कहा “मै नही आप कह रहे है” यानी कि अब जुबान कटवाने की बारी आपकी है. कहा जाता है कि उस समय औरंगजेब भरी सभा मे बहुत लज्जित हुआ और फिर इस लज्जा से बचने के लिये आटे से औरंगजेब का एक पुतला बनाकर उसकी जीभ काटकर औपचारिकता पुरी की गयी.
बाकी अगले अंक मे....
“शत शत नमन वीरवर दुर्गादास राठौड
”विक्रमसिंह करणोत (पाण्डगरा)
साभार -

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