मंगलवार, 23 मई 2017

रजपुतानी(प्राण जाये पर वचन न जाये)मार्मिक शौर्यगाथा 1 सोढा राजपूत और रजपुतानी की

रेत रा टीबा बळरिया । ऊनी ऊनी लू असी चाल री जो काना रा केसा ने बाळती नीसर जावै । नीचै धरती तपरी, उंचो आकास् बळरियों । खैजडा री छाया में बैठयो सोढो जवान भीतर सू अर बाहर सूं दोनं कानी सूं दाझं रियो । बारला ताप सुं बती हिया में सळगती होली री झाला बाळ री । दुपैरी रा सूरज री सूधी मुंडा साम्हीं किरणों आंख्या में गबोड़ा पाड़ री पण वींनै ईं री सुध नी। वो तो ऊंडा विचार में अस्यों डूबरियों के चारुं दिसा एक सी लाग री । आज वीरे होवण वाला सासरा सुं सुसरा रो सनेसो ले आदमी आयो,

"परणणो व्हे तो पनरासौ रिपिया तीन दिनों में आय गिणा जावो, नी' तो आखा तीज नै थांरी मांग रो दूजा रे सागैं बियाब करदांला ।

"सुणतां ही सोढा जवान री आंख्या में झालां  उठी। अपने आप हाथ तरवार री मूठ पै पड़ग्यो। दाता सूं होठा ने काट रैग्यो । वीं री मांग दूसरा की हो जासी, जीरी खोळ वींरी मां रिपियो नारेळ घाल आज सुं दस बरसों पैला भरी अर वांरो बियाब कर देणे रा मनंसूबा करता करता मां बाप दोई मरग्या। घर में नैनंपण पड़गी । कुण खेती ,बाडी, गाय भैस सम्भलतो । अबै पनरासौ रिपिया कटा सू लावै ?"ऐ रिपिया दीधा बिना वींरी मांग दूसरा री होजासी, जींरा सपना दस दस वरसा सुं वो देखतो आयो, वीं मांग नै ईज आखा तीज ने दूजा ले लारै कर देला ।
सोढा जवान री आख्या में खून उतर आयो । आज तक  कदे ही असी व्ही है मांग रे वास्ते तो माथो कट जावै, म्हूँ जीवतो फिरूँ अर म्हारी मांग ने दूजो परनै ,हरगिज नीं।
 "बोहरा काका, म्हारी लाज थारे हाथा है ।"
"लाज तो म्हे घणी ही राखी है । थुं बता कस्या खेता पै पनरासौ गिण दूँ ?
अडानो कायीं राखैला ? "
"म्हारे कने हे ही कायीं ? रजपूत री आबरु एक तरवार खांपो म्हारे बच्यो है ।''
"तो भाई, कीं दूजा बोहरा रो बारणो देख । "
सोढो तड़फग्यो। देख काका, थे म्हारा घर री सली,सली  म्हारा नैनपण में झूठा सांचा खत मांड मांड लेय लीधी । म्हारा घर में ठीकरों तक नी छोडूयो । म्हें थने सारो दीधो ,अर जो ही माँगतो व्हे देवण ने त्यार हू । पण ई वगत , म्हारा घराना री लाज राखलै । जीरी मांग दूजारे लारै परी जावै तो जीवतो ही मरयां बराबर है । ई तरवार,
जगदम्बा ने माथै मेल सोगन खावूं थारो पीसो पीसो दूध सूं धोए चुकावूं । थारे दाय आवै जतरौ व्याज मांडले । ई वेलां म्हने रिपिया गिण दे ।
"रज़पूत रो जायो व्हे तो ये अस्या कोल करजे। म्हूँ खत पै जो मांड दू वीं पै थू  दसगत कर देवैला कैं ? "

"माथो चावे तो दे दूं पण अवार म्हारी राज राखलै । "
बाणिये खत मांड'र आगो कीधो । कान पै मैली लगी कलम ने उठाय हाथ में झेलाई ।

"बांचले खत ने, छाती व्है अर असल रजपूत व्हे तो दसगत करजे ।''
खत बांच्यो, मांड राख्यो "ये रिपिया व्याज सूधी नीं चुकाउ  जतरे म्हारी परणी लगी ने बेन ज्यूँ समझुलां ।

होठां ने दांता बीचे दबाय राती राती झाला निकळती आंख्या सूं झांकतो दसगत कर दीधा ।

बरसां सुं सोढा रो सूनो घर आज बस्यो । आज वींरी मेड़ी में दीवो बळयो । दीमकां लाग्यो,, लेवड़ा पड्यो घर,लींपयो चुंप्यो हंस रीयो ।घणा बरसां पछै आज वीरे घर में घुंघरा री छम छम व्ही ।पीयर सूं डायजा में आयोड़ा गाड़ो भरया असबाब सूं गिरस्थि जमाई ।सोढो जीमवा बैठ्यो ,बींनणी हाथ सूं पोयोडी चीडा री बींझणी ले पवन घालवा लागी।दांत रो चूडो पेरया हाथां सूं परूस री।सारो घर आज कायीं रो कायीं सोढा नै लाग रियो । ऱजपूताणी री आंख्या में  नेह ऊझल रियों पण सोढा री आंख्या गम्भीर ।वा परुसती री यो जीमतो रियो । सोढो बोलणो चावै पण बोलणी आवै नी, वा तो आगे व्हे बोलै ही किण तरह ?खाय, चलू करण लागो, रजपूताणी झट ऊठ लोटा सु हाथा पै पाणी कूढवा लागी, सोढा री नजर घुँघटा में पसीना री बूंदा सूं चमकता मूडा पै पडी,  वींरी आख्या रे आगे बाणिया रो खत भाटा री चट्टान ज्यू ऊभो व्हेम्यो, वीरां हाथ कांपग्या । लोटा सूं पड़ती पाणी री धार जमी' पै बैयगी । रात पड़ी सोने री वैला आईं ।सासरा सूं आयोड़ा ढोल्या पै सूता । झट म्यान सुं तलवार काढ़ दोय जणां रे बीच में मेल,मूंडो फैर सोयग्यो ।

रजपूताणी सगमगी । "यूँ क्यों म्हारा सूं कांई नाराजै हैं "?
एक, दो, तीन, दस पनरा राती बीत्तगी । या हीज तरवार काली नागण ज्यू रोज दोवा रे बीच । दिन में बोले, बात करे जद तो जाने सोढा रे मूंडा सु अमरत झरे ,आंख्या सूं नैह टपके पण रात पडती ही वींज मुंडा सूं एक बोल नी' निकलें, वे हीज आंख्या सामी तक नी झांके । रात भर अता नजदिक'रैवतां थका ही घणा दूर। दिन में घणां दूर रेवतां थकां ही घणां नजीक ।
 रजपुतानी बारीकी सूं सोढा रो ढंग देखे गैंरांई सूं सोचै । वीं  सूं रीयो निं गियो ।ज्यूँ  ही तलवार काढ़ ढोल्या पै सोवा लाम्यो, झुक पग पकड़ लीधा ,
 "म्हारो कायीं देस है ?म्हारा पै नाराज क्यूं ?गलती कीधी तो म्हारा बाप जो थाने  रिपिया सारुं फोडा पाड़या ।" टळ टळ करता आंसूं सोढा रे पगाँ पै जाय पड्या `।
“कुण के म्हूँ थारा पै नाराजं हूं । थुं म्हारी, म्हारा घर री धणियाणी है । आपरा हाथ सुं वींरा हाथां ने पगा सूं दूर  करतो सोढो बोल्यो।
"तो अतरा नजीक रेवतां लगाँ ,म्हासु अतरा दूर क्यों ?''  सोढा रे ललाट पे दो सळ पड़ग्या

" थुं जाणणो ही चावै ? ”
"हा । ''
"तो ले बांच हैं खत ने ' । "
दीवा री बाती ऊंची कर टमटम करता दीवा रा चानणां में खत बांचवा लागी '
ज्यूँ वाँचती गी ज्यूँ वीं रा मूंडा पै जोत सी जागती  गी।आंजस अर संतोस सू वीरों मूंडो चमकवा लाग्यो ।खत झेलाती लगी,बेफिक्री री साँस लेती बोली''ई री कोई चिन्ता नी, म्हनै तो डर हो थांरी नाराजगी रो । वरत पाळणो तो घणो सोरो ।"
दिन उगता ही आपरो छोटो मोटो गैंणोगांठो, माल असबाब रो ढिगलो सोढा रे मूंडा आगे जाय कीधो ,
"ई नै बेच घोडा लावो, करजो उतारनो सबसू पैलो धरम हैं । धरे बैठ्या तो करसा चोखा लागै । रजपूत चाकरी सू सोभा देवै । कोई राजा री जाय चाकरी करां ।

"" थनें पीयर छोड़ दूं ? थुं कठे रेवेला?''
"पीयर क्यूं? जटे थां बटे ही म्हु  दो घोडा ले आवो । "
"पण, पण थुं साथै निभेला कस्या ? "
"क्यूं-नी, म्हु किसी रज़पूत री जायोडी नी के , रज़पूताणी रा चूंख्या नीं के ? म्हने ही थारी नांईं तरवार बांधनो आवै, म्हे ही म्हारा बाप रा घोडा दौड़ाया है । "
"" थारो मन, सोचले । "
"सोच्योडौ है ।"
तेज सुं चमकतो मूंडो सोढो देखतो रैग्यो ।

सवा हाथ सूरज आकास में उंचो चढयो व्हेला। चित्तोड़ री तलेटी सुं कोस दो एक पै दो घोडा एकीबेकी करता चितोड़ साम्हा जाय रिया । दोई जवान स्वार एक सी उमर, एक भी पोसाक पेरियां, घोडा ने रानां नीचै दबाया दौडायां जाय रिया ।
 हाथ रा भाला, उगता सूरज री किरणों सुं चमक चमक कर रिया । कमर में बंधी तरवारां घोडां रे दौड़वा रे साथे साधे रगड़ खाय री । वां मे देख कुण केवै के या में एक स्त्री  है । रज़पूताणी ई वगत  एक सूरापण भरया जवान सी लाग री। दांत रो चूडो पेरया कँवली कलाया  नी री । मजबूत हाथ भाला ने गाढो पकड़यां लगा । लाजती लाजती
धीरे धीरै कोयल री सी बोली री जगी अबै भेरी रो सो कंठ सुर बणाय लीधो । घुंघटा में ही सरम सु लाल  पड़जावा वाला कपोल नीं रिया । सूरज री किरणां री नांईं मुंडा सू तेज फुट रियो । लाली लीधां लोयणां सुं नेहचो ऊफण रियो । जाणे सागी दुरगा रो सरुप व्हे।

घोडा दौड़ता, एक झपाटा में चितोड़ री तलेटी में जाय पूगया। वठी ने राणाजी  दरवाजा बारे निकळया । नजर सुधी वांरा पै पड़ी  दो पल वीं जोडी पैं नजर रुकगी ।
घोडा री लगाम खेंच पूछ्यो

"कस्या रजपूत?''
"' सोढा । "

"अटी नै किसतरै आया हैं ?"

"सेर बाजरे, सारुं, अन्नदाता ! '"

"सिकार में साथेे हाजर व्हे जावो । "

मुजरो कर दोई जवाना घोडा री वाग् मोड़, लारै घोडा कीधा ।

सूरा  रे लारै घुडदौड व्ही । आगे आगै सूर भागरियो वारे लारै हाथ में भाला लीधां सिरदार घोडा नै नटाटूट फेंकरिया । एकल सूर टुंड री मारतो विकराल रुप करयां घोडां रा घेरा नै चीरतो बारे निकल्यो । चारुं कानो हाको व्हीयो, एकल गियो, गियो,
जावा नी' पावै, मारो मारो । "

सगला ही घोडा री रासां एकल कानी मुड़ी जतराक में तो एक घोडों बीजली री नांई आगै आयो, सवार भाला रो वार कीयो जो पेट नै फाड़तो, आंतडां रो ढिग्लो करतो आर पार जाय निकलग्यो  । राणाजी दूरा सु देखतां ही साबासी दीधी ।

पसीनो पुंछतो लगो सवार नीचै उतर मुजरो कर घोडा री पूठ पै पाछो जाय बैठ्यो । कुण सोच सके के भाला रा एक हाथ में एकल सूर ने धुल करवा वाली लुगाई है । राणाजी राजी-व्हे हुकम दीधो "थे वीर हो, आज सू थां दोई भाई म्हारा ढोल्या रा पै 'रा री चाकरी दो । " ' -

खम्मा अन्नदाता कर चाकरी झेली ।

सावण रो मी' नो खळ खळ करता खाळ बैय रिया । तलाब चादर डाक रिया ।डेडका हाका कर रिया । एक तो अंधारो पख, ऊपरे चोमासा री काली रात, काला कांटा बादल छाय रिया । बीजां सलाका लेवे तो असी के आंखयां मींच जावे खोल्या खुलें नी' । इन्दर गाजै तो अस्यो के जाने परथी  ने ही पीस दूं । अंधारी भयावणी रात, हाथ सूं हाथ नी' सूझे । ,राणाजी तो पोढया दोई रजपूत्त पैरोे देवै ।

हाथ में नांगी तरबारां लेय राखी । बीजली चमके जो यांरी नांगी तरवारां वीं चमक मेँ झलमल करे । आधी रात रो वगत राणाजी ने तो नीद आयगी पण राणी री आंखया मैं नीद नी' । सूती सूती कुदरत रा रुप रा अदभुत मेळ ने देख री ।

. दोई रजपूत्त तरवारा काढयां मे'लां रे बारणा आगै ऊभा ।
उत्तर में बिजली चमकी, रजपूताणी नै याद आई म्हारा देस कानी चमक री है ।

ई याद रे लारै केई बातां याद आयगी । आज कमावा खातर यो मरदानों भैस करया विदेस में आधी रात रा पैरो देयरी हूँ । दूजी स्त्रियां घरों में आडा बन्द कर सोय री है ।
म्हु नांगी तलवार लीधां ऊभी रातां काटू। अतराक में कने ही पपैयो बोलयो पी पी
नारी हिरदे री दुरबल्ता जागी । "पी कठे?" " घणोई खने है पण कायीं व्हे ?"म्हारी गिणती नी तो संजोगण में है, नी विजोगण में । म्हासु तो चकवा चकवी  चोखा जो दूरा दूरा  बैठ वियोग काढे । म्हु तो रात दिन साथै रेवती लगी ही विजोगण सु भूंडी। वींरो बांध टूट गियौ । जाय 'र सोढा रा कांधा पै हाथ मेलयो, जाणे बीजली पडी व्हे । दोई जणा कांपग्या । सोढो चेत्यो, "चेतो कर रजपूताणी ।  रजपूताणी समहली । एक निसासो न्हाक्ति बोली,

देस बिया घर पारका पिय बांधव रे भेस ।
जिण दिन जास्या देस में, बांधव पीव करेस ।।

देस छूटगयो परदेस में हां । पति है तो भाई रा रुप में है कदे ही देस में जावांला जद ई नै पति बणांवाला ।

राणी सूती सूती या लीला देख री । दिन ऊंगताँ ही राणी राणाजी ने काहयो "यां सोढा भाइयां बीचै तो कोई भेद है  हैं।  क्यों कांई बात है ?माथो  तोड़ दू ?"
. "तोड़ण री  नी जोड़ण री बात है । या में एक लुगाई है । "
राणी भोली बात मत करो। या सूरता यो आंख रो तौर, या मरदानगी लुगाई में व्हे कदी?"

"आप मानो भले ही मत मानों । या में एक लुगाई है अर कोई आफत में है । ,,

"यां रो पत्तों कस्या लगावा?
"इं री परीक्षा म्हे करुं । आप मेँ’लां में बिराज जावो जाली में सू झांकता रीजो वां दोई भाइयों ने बुलावु ।'

चूल्हा पै दूध चढाय दीधो डावडी ने इसारो कीयो वा बारे निकलगी । दूध उफणतो देख्यो  तो रजपूताणी हाकों कर दीधो "दूध उफ़ने दूध उफने  ।" सोढो आँख रौ ईसारौ करे ज़तरै तो राणीजी बारे निकल पूछ्यो'बेटी  सांच बता तूं कुण है ।म्हारा सूं छिपा मती।

रजपुताणी आंख्या आगै हाथ दे राणीजी री छाती में मुंडो घाल दीधो । "
सोढे सारी बात सुणाई । राणाजी घणां राजी व्हीयां ।
"थांराँ करजा राँ रिपिया ब्याज सूधा म्हु सांडणी सवार रे साथै थारे गाँव भेजू ।थां अठे रेवो गिरस्थि बसाओ।"
सोढे हाथ जोड्या"अन्नदाता रो हुकम माथा पै पण जठा तांई म्हु जाय म्हारा हाथ सुं रिण चुकाय खत फाड़ नी न्हाकु जतरे हुकम री तामील किया व्हे ।म्हाने सीख बगसावो ।

राणाजी करजा राँ रिपिया अर गिरस्थि बसाने रो घणो सारो सामान दे वाने सीख दीधी ।
वीं पड़वा री रात राँ आन्नद रो विचार ही कतरो मीठो है ।

साभार -मांझल रात  रानी लक्ष्मीकुमारी चुंडावत
टँकनकरता-यदुवंसी सुरेन्द्रसिंह भाटी तेजमालता
नॉट-फोटो काल्पनिक है ।

सोमवार, 15 मई 2017

लाख पसाव करोड़ पसाव जानिये कींन किन राजाओं ने कितने पसाव दान दिया और पसाव की कितनी वेल्यू होती थी

*पसाव*
-चारणों ने रजपूतों की कीर्ति बढ़ाने में कसर नहीं रखी है उनके इनामों के भी लाखपसाव, किरोड़पसाव और अरबपसाव नाम रख रख कर दरजे बढ़ा दिये और नजीर के वास्ते कई राजों को चुन रखा है जैसे कहते हैं कि अजमेर के राजा बठराज गौड़ ने अरबपसाव दान दिया था । आमेर के महाराजा मानसिंघ ने 6 किरोड़ पसाव दिये । बीकानेर के राजा रायसिंघ ने सवा किरोड़ और सिरोही के राव सुरतान ने किरोड़ पसाव दिया था । उत्तम मध्यम 5 हजार रुपये का सिरोपाव लाखपसाव, इससे दूना किरोड़ पसाव और किरोड़ पसाव से जियादा अरबपसाव कहलाता है । मगर सासन गांव सबके साथ होते हैं । जोधपुर के तो हरेक महाराजासाहिब जब पाट विराजे हैं चारणों को लाख पसाव देते रहे हैं । महाराजा श्री जसवंतसिंघजी ने भी राजतिलक के समय कविराजमुरारदानजी को लाख पसाव दिया था । 6/337-8. -लाख पसाव का अर्थ एक लाख रूपयों के इनाम से है जो भाट-चारणों को राजा देते हैं । यह पुरस्कार नकद रूपये में नहीं दिया जाता है किन्तु हाथी, घोड़े, ऊंट, रथ, रत्न, जमीन व धान आदि के रूप में दिया जाता है । इन सबका मूल्य साधारणतया 30 हजार रूपये के होता है लेकिन फिर भी यह ‘लाख पसाव’ ही कहलाता है । 2/153. -‘ख्यात से पाया जाता है कि महाराजा जसवंतसिंह के समय ‘लाख पसाव’ के नाम से केवल 1500 ही मिलते थे । यह माना है कि गजसिंह के समय ‘लाख-पसाव’ का मूल्य 2500 के स्थान में 25000 होना चाहिये, पर इस रकम का घटता हुआ क्रम देखकर तो मानना पड़ता है कि उस स्थान पर दिये हुए 2500 ही ठीक है ।’ 3/471. 
-महाराजा अभयसिंहजी ने मेवाड़ के सूलवाड़ा गांव के चारण कवि करणीदान कविया को ‘विरद श्रंगार’ पुस्तक के लेखन पर प्रसन्न होकर उसे लाख पसाव तथा अलावास गांव और कविराजा की उपाधि दी । 2/131.
-महाराजा अभयसिंघजी कविया करणीदान को लाख पसाव देकर जोधपुर से मंडोर तक जहां उसका डेरा था पहुंचाने के वास्ते पधारे थे -‘अस चढि़यो राजा अभो, कवि चाढ़े गजराज । पोहर अेक जलेब में मोहर बुहे महराज ।1। 6/337.
-महाराजा गजसिंह ने सिंहासनारूढ़ होने के बाद उसने तीन बार चांदी का तुलादान किया - पहला वि.सं. 1680 (ई.स.1623), दूसरा 1681 (ई.स. 1624) तथा तीसरा (श्रावणादि) 1690 (चैत्रादि 1691 - ई. स. 1634) में । वह विद्धानों, चारणों, ब्राह्मणों, आदि का अच्छा सम्मान करता था । उसने चारणों, भाटों आदि को सोलह बार ‘लाख-पसाव’ और 9 हाथी दिये थे । ख्यात से पाया जाता है कि एक लाख पसाव के नाम से 2500) दिये जाते थे । 3/411.
-बाहर के सम्मान पानेवाले व्यक्तियों में मेवाड़ के दधवाडि़या खींवराज (खेमराज) जैतमालोत तथा सिरोही के आढ़ा दुरसा के नाम उल्लेखनीय है । इन्हें लाख-पसाव के अतिरिक्त हाथी, तथा क्रमशः राजगियावास (परगना सोजत) वि.सं. 1694 कार्तिक सुदि 9 (17 अक्टोबर, 1637) को और पांचेटिया (परगना सोजत) गांव वि.सं. 1677 (ई.स. 1620) में मिले थे । 3/412.
-महाराजा जसवंतसिह ने कई अवसरों पर ब्राह्मणों, कवियों, चारणों आदि को गांव, सिरोपाव, अश्व इत्यादि देने के साथ ही उसने ‘आड़ा किशना दुरसावत’ तथा ‘लालस खेतसी को लाख-पसाव दिये । 3/470.
-महाराज जसवंतसिंघजी लोहाईरा डेरां संवत् 1698 रा आसोज सुद 10 बाईस घोड़ा चारणांनूं नै सिरदारांनूं दिया, दोय लाख पसाव दिया, अेक लालस खेतसीनूं, दूजेरो आढ़ा किसनानूं । 15/30.
-महाराजा मानसिंह ने ‘महामंदिर’ की प्रतिष्ठा वि.सं. 1861 की माघ वदि 5 (20 जनवरी, 1805) को वणसूर जुगता को लाख-पसाव, ताजीम ओर पारलाऊ गांव दस हजार रूप्ये की आमदानी का दिया । 2/150.
-महाराजा मानसिंहजी नेे डिंगल भाश्ष के महाकवि बांकीदासजी, जो जयपुर के कविश्वर पदमाकर के साथ शास्त्रार्थ में विजयी हुए थे उन्हें वि.सं. 1870 (ई.स.1813) में प्रसन्न हो उन्हें ‘कविराजा’ पदवी, ताजीम, जागीर और लाख पसाव में एक गांव चवां (लूनी जंकसन) और डोहली दिया । महाराजा मानसिंह ने बाद में इन्हें एक और लाख पसाव दिया । महाराजा को आम दरबार में अपमान सूचक खरी खरी सुनाने के कारण बांकीदासजी को तीन बार देश-निकाला भी हुआ । 2/153.
-महाराजा तख्तसिंहजी ने बाघजी भाट (अहमदनगरी)को लाख पसाव दिया । 2/170.
-सवाई राजा गजसिंहजी ने 14 कवियों को लाख पसाव दिये - 1. भाट गोकुलचंद ताराचंदोत, 2. चारण भादा अज्जा कृष्णावत, 3. चारण आडा दुर्सा मेहराजोत, 4. चारण बारहट राजसी अखावत, 5. भाट मपोहर, 6. चारण संडायच हरिदास बाणावत, 7. चारण कविया पचाण, 8. चारण महड़ू कल्साणदास जाडावत, 9. चारण दधिवाडि़या जीवराज जयमलोत, 10. बारहट राजसी प्रतापमालोत, 11. चारण केसा मांडण, 12. सामोर हेमराज, 13. चारण कविया भवानीदास नाथावत, और 
14. कृष्ण दुर्सावत । 2/117.
-उदयपुर के महाराणा जगतसिंघजी अपनी ड्योढ़ी से सौ सवा सौ पांवड़े बाहर तक आये थे -मूंधियाड़ के कवि करणीदान को लेने के लिये - ‘करनारो जगपत कियो, किरत काज कुरब । मनजिन धोको ले मुओ, शाहदिलीश सरब ।’ 6/337.
जैसलमेर री ख्यात अनुसार 67. भीमसेन ‘भाट’ ने क्रोड़ पसाव दीयौ । 5/21. 
-126. राजा तेजपालजी क्रोड़ पसाव दीनो भाट साण नै, गढ़ लाहोर । 5/28.
-76. राजा मरजादपति भाट जेहल ना सात क्रोड़ पसाव दीनोै । 5/23.
-170. रावळ लांझोजी विजेराज लुद्रवे बहुत दातार हुवो ।धार परण गयो जठै सवा क्रोड़ को त्याग बांटियो । भाट नाढ़ाजी ने क्रोड़ पसाव दीनों 5 गांव पांच सांसण दीना, 2 भटनेर के परगने 3 देरावर के परगने । छड़ी अर सुखपाल बगसी, तंबू अर जाजम बगसी सं. 1195 । दूजा कवीयां नै सात सांसण दिया । 5/44.
-83. राजा मघवान जैतजी ने भाट अंगद नै लाख पसाव दीनौ, मथुरा सुथान । 5/24.
-172. रावळ जैसल संवत् 1212 सावण सुद 12 अदीतवार मूल नक्षत्र गढ़ जैसलमेर की नींव दीनी । किलो थाप्यो राजस्थान बांध्यो । भाटों ने नामा मंडाय लाख पसाव दीयो भाट टीकमदास नै । ग्राम दोय दीना, नात यांकोहर, भदड़ीयो । हाथी चढ़ाय हवेली पहुंचाया । कुरब भी दीनो, छड़ी तंबू जाजम बगसी । 5/47.
-193. रावळ हरराजजी पाट बैठा सं. 1618 । हरराजजी लाख पसाव दीनोै भाट गोपाळदासजी नै गांम मंडा नुं घोड़ा 10, ऊंट 11, तंबू, बछायत, बंदूक, तरवार, कटारी 2, सिरोपाव 30 आभुषण सहित हुवौ, दूजौ रोकड़ संवत् 1620 की साल,जैसलमेर थान । 5/72.
-199. रावळ अमरसिंघजी पाट बैठो संवत् 1716 की साल । लाख पसाव दीनौ भाट वेणीदासजी नै -घोड़ा पांच, ऊंट पांच, सिरपाव, आबूखण सिहेत 22, हाथी 1 रुपिया नवसौ रोकड़ा । 5/78.
-206. रावळ गजसिंघजी पाट बैठा संवत् 1876 फागण वद 5 । यां चारणां भाटां नेै लाख पसाव दीया । 5/86.
-राजा रामचंद वीरभांणरो वडो दातार हुवो, दांन च्यार कोड़ दिया- 1 कोड़ नरहर महापात्रनूं, 1 कोड़ चत्रभुज दसौंधीनूं, 1 कोड़ भइया मधुसूदननूं, 1 कोड़ तानसेन कलावंतनूं । 10/122. 
-बाधूगढ़ राजा रामचंद वीरभांणरो वाघेलो वडो दातार हुवो । च्यार कोड़पसाव एक दिन किया- नरहर महापात्रनूं, अेक भइया मधुसुदन नरहररो पुत्र जिणनू,............, कलावंत मियां तानसेननूं.....। 15/133.
-जाम ऊनड़ साढ़ा तीन करोड़ रुपियांरो सिंघासण छत्र दे सात ही सिंध सूदा कवी सांवळनूं दिवी । 15/122.
-मेवाड़ के प्रसिद्ध ख्यात एवं वंशावलियों के लेखक बड़वा देवीदान के वंशज हरिराम एवं रामदान 1930 ई. में महाराणा को अपनी पोथी सुनाने आये, जिन्हें बागोर हवेली के सत्कारालय में ठहराया गया । इस अवसर पर महाराणा ने इन्हें हाथी, घोड़ा, मोतियों की माला स्वर्ण आभूषण, सिरोपाव एवं 500 रुपये दान में दे कर हाथी पर बिठा कर बागोर हवेली तक विदा किया । -विश्वमभरा पृ. 37, वर्ष-18, अंक-3-4, 1986.
-मूळीरै धणी सोढ़ै रतन ऊंगा -आंथवियां ताईं मीसण परबतनूं कोड़पसाव दियो । पचास लाख नगद, पचास लाखरो भरणो नै लाख रुपियांरो माल नवैनगर बाई सोढ़ीनूं मेलियो । 15/180.
-राजा रायसिंघजी बारट संकरनूं सवा कोड़ दीवी जद पांडसर साजनसर दोय गांव तांबापतर दिया बीकानेररा -‘करमचंद करसो किसूं, अन धन जोड़ अपार,नवी जग खाटो नहीं, ले जासो की लार ।’ 15/75.
-रासीसर सांखलो खीमसी रायसलरो बेटो रहै । रायसलरौ खीमसी चरूंसूं गाळ गाळ जिण वीठूनूं दोयड़ पसाव दिया, पोळपात थापियो । 15/139.

मंगलवार, 9 मई 2017

महाराणा प्रताप रो जस कवि स्वर्गीय भंवरदान जी झणकली

कवि स्व श्री भंवरदान
झणकल़ी


*** महाराणा प्रताप रौ जस ***

"उतर दियौ उदीयाण दिन पलट्यौ पल़टी दूणी।
पातल़ थंभ प्रमाण़ शैल गुफावा संचरीयौ।

मिल़ीयौ मैध मला़र मुगला री लशकर माय।
कलपै राज कुमार मैहला़ चालौ मावड़ी।

महल रजै महाराण कन्दरावा डैरा किया।
पौढण सैज पाखांण हिन्दुवां सुरज हालीया।

उलटीया एहलूर म़ाझल़ गल़ती रात रा ।
पछटयौ पालर् पुर गाडरीया झुकीया गिरा।

झंखड़ अकबर जाण़ राजन्द झुकीया गिरा।
पातल़ थम्भ प्रमाण इडग रयौ धर ऊपरां।।

गीत
रौवण लागा राज दुलारा, रल़कीयौ नीर रैवास।
वाव सपैटै दीप बुझायौ, उझमी जीवण आस।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।1।।

ब़ीज बल़ौबल़ जौर झबुकै, घौर माय घमसाण।
हिन्दुवौ सुरज डैरड़ै हाल्यौ, पौढ़वा सैज पाख़ाण।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।2।।

बिलखती माता कैह विधाता, तै ही लिख्या तकदीर।
राजभवना रा आज रैवासी, फड़फडै़ जाण फकीर।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।3।।
कंवर कंवरी कंध चढ़ाय, महाराणी समझाय् ।
आवै राणौसा तौ हालस्या अपै, महल़ पिछौलै माय।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ, ।।4।।

मांगड़ै आवतौ मुन्छ मरौड़ै, वल़ीयौ पाछौ वीर।
आज मैहल़ा आजाद करावा, न लैवा अन्र नीर।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।5।।
आवतौ माल़क सार अवैल़ौ हिसीयौ हैवन हार ।
सज वाहुणी लगा़म संभ़ाल़ै आवियौ पीठ अमीर।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।6।।

चीरतौ पाण़ी घौड़ल़ौ चाल्यौ, कुदतौ थौहर कैर।
आंच आवै असवार ना तौ मारौ जीवणौ खारौ ज़ैर।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।7।।

पाव घड़ी माय पुगीयौ पवन पिछौल़ै री पाल़।
पाव पख़ाल़ण काज़ पिछौल़ौ आवियौ लौप औवाल़।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।8।।

कौयल़ा सारस कीर कबुतर पंखीड़ा घण़ प्रीत।
दैश धणी ना आवत़ौ दैख गुटकवा लागा गीत।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।9।।
रुखड़ल़ा पण दैख राणै ना अंजसीया हौय अधीर।
झुमती शाखा पगल़ा झुकी नैह त्रमंकयौ नीर।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।10।।

वीर शीरौमण नांव मा बैठा पा़ण ग्रहै पतवार ।
पार पुगावण काज पिछौलौ धावीयौ गंगाधार।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।11।।

आवती नैया सार अवैल़ी ताणीया तीर कबाण।
भील़ण़ी जाय़ा शब्द भैदी जैरौ ना चुकै निश़ाण।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।12।।

जवान बैटा ना संभता दैखै बौल़ीयौ ब़ुढ़ौ भ़ील़।
आज बैटा कुण बाग मां आयौ ईडग़ा तौड़ी ईल़।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।13।।

आज क्या मारी आंख फरूखै अंग उमंग अनुप।
एहड़ै सुगनै भैट करावै अवस मैवाड़ौ भुप।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।14।।

बाप री बात़ा साम्भल़ै बैटा नाखीया तीर कब़ाण ।
दैश धणी रै दरसण़ा हैतू अंजसीया औस़ाण़।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।15।।
आय् किनारै नावड़ी उभी भागीया सामा भील़।
चौखसी राणै तीर चढ़ायौ दैख उबाण़ा डील़।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।16.।।

आपरा चाकर जा़णा़ै अन्रदाता माफ करौ शक मैट।
पातशाह रै पौहरै उभ़ा पाल़वा पापी पैट।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।। 17।।

माफ करौ माही बाप कै मा़झ़ी पांव पड़या अकुलात् ।
बाट जौवता मारा दिनड़ा बीता रौवता का़ल़ी रात्।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।18।।
कैकू पगल़ा कीच भराण़ा धौऊ नैण़ा जलधार्।
खाम़द़ा रौ दुख दैख खूपै मारै काल़जै बीच कटार्।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।19।।

आंखड़ीया भर आवीया आंसु बादल़ा ज्यू बरसात।
आज सौनै रौ सुरज उगौ हिवड़ल़ौ हरसात।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।। 20।।

रंक हैतालू बौलीयौ राणौ हाख मा थांमै हाथ।
बीती सौ ही बिसार दै वाल़ा पौर भयौ परभात् ।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।21।।

आज कसौटी रंगत आणै सौलवौ सौन कहाय् ।
आज हु जैड़ै कारज आयौ मारौ कारज सिद्ध कराय।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।22।।

नींद मा मुगल़ सैन निचींती और भयौ् अंधकार ।
प्रौल़ीया ऊभ़ा तीन पाराधी (पाराथी) काल़ीयौ किल्लैदार।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।23।।

चौर गुफा मां पुगीयौ च्यरौ उन्चल़ी मंझील आण़ ।
बारणै भ़ुखा सिंह बंधाड़ै सैज पौढीयौ सुल्ताण।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।24।।

सिंह छैड़ा तौ शौर मचावै जाग अकबर जाय् ।
एक ताड़ी सुण़ फौज असंख्या प्राण हैरै पल़ माय् ।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।25।।
दैश धणी ना दैख उद्द्यासी भीलड़ौ सौच भराय।
छैरूवा कानी बातड़ी छानी सानी मा समझाय।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अ,कबर शाह ऊन्घाण़ौ।।26।।

जगत् सु बैटा एक दिन जावणौ खाटल़ी सुता खाय।
मात्रभुमी रै काज मरा तौ जीव वैकुटाय जाय।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।27।।

बाप ना बैटा बैरवा बैठा मुखड़ा धारै मौन।
च्यार चीराल़ै कर न चाल्या चारवा सिहा चुण।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।28।।

पंड कीधौ बलिदान पाराधी हंसतै कमल़ हाय।
मरतां वैल्या जनम मांगयौ दैश मैवाड़ै माय।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।29।।

आंखड़ीया भर आविया आंसु राण भराणौ रीस।
अनवीया वाल़ी ईल तौड़ै न शिशौद नमायौ शीश।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।30।।

पैढ़लीया कर पार राणैजी सांभ लैही शमसैर।
हिन्दुवै सुरज हाथ उठायौ बाल्वा जुनौ बैर ।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।31।।
एक अंतै माय आवियौ हिलौ कांप गई किरपाण ।
बिन बाकारयां मारणै सु मारौ दैश लाजै उदीयाण़।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ ।।32।।

राजपुती री रीत रुपाल़ी नींद मा सुतौ न धाय्।
सात पीड़ी रै शत्रु ना पैश पड़या बगसाय।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।33।।

आंगली चिरै मांडीया आखर सामली भ़ीत सुजाण।
आखरी वैल़या आज अकबर दैवा जीवनदान ।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।34।।

आज प्रभाता त्याग उदयपुर कूच करै कमठ़ाण़।
दुसरा मौका न दैवा हु थारै मांझल रौ मैहमाण।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।35।।

रंग रै राणा रात थारी ना रंग जाती रजपुत।
रंग माता जकै गौद रंमाड़्यौ पातल़ जैड़ौ पूत।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।36।।
अवतरीया ईण धरती पर मौकल़ा वीर महान।
सुरमा री मरजाद सुणावै बारट भंवरदान ।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।
अवतरीया ईण धरती पर मौकल़ा वीर महान।
सुरमा री मरजाद सुणावै बारट भंवरदान ।
राणौ प्रताप रीस़ाणौ अकबर शाह ऊन्घाण़ौ।।37

🙏 मेवाड़ की माटी के वीर सपूत हिंदुआ सूरज महापराक्रमी महाराणा प्रताप की जन्म जयंती की सभी  को  कोटी कोटी शुभकामनाए । 🙏🌹🌹🌹

🙏जय महाराणा 🙏
                🙏   जय मेवाड़🙏

सोमवार, 8 मई 2017

पूगल की पद्मिनी भटियानी चितोड़ की पद्मावती महारानी

मेवाड़ की इतिहास प्रसिद्ध रानी पद्मिनी जैसलमेर के रावल पूनपालजी, जिन्हें सन् 1276 ई. से वहां से निर्वासित कर दिया गया था और जिन्हें अपना शेष जीवन मरुस्थल की वीरानी से बिताने के लिए बाध्य होना पडा, की राजकुमारी थी । इन्ही  के पढ़पौत्र राव रणकदेव ने सन् 1380 के में थोरियों से पूगल जीतकर भाटियों का एक नया स्वायत्तशासी राज्य स्थापित किया ।ढोला…मारू के इतिहास प्रसिद्ध प्रेमाख्यान की नायिका, मरवाणी भी पूगल के पाहू भाटियों की राजकुमारी थीं। समय व्यतीत होने के साथ "पूगल री पद्मिनी' दिव्य सौंदर्य का पर्यायवाची बन गई और पूगल क्षेत्र  के भाटियों की सभी बेटियों की सामान्य पदवी पूगल री पद्मिनी हो गई । आज भी यह परम्परा यथावत है ।

यह एक सुप्रसिद्ध तथ्य था कि पूगल संभाग की कन्याएं वहुत सुन्दर, व्यवहारकुशल, सुडौल,सुगठित देह और तीखे नाक नक्श वाली होती थीं । जहॉ विवाह के पश्चात् नए घर की यथा कला व्यवस्था करने में वह चतुर होती थीं, वहाँ उनमें पति का अगाध प्यार प्राप्त करने की कुशलता के साथ साथ वह पूरे परिवार को स्नेहपाश में बाँध लेती थीं और परिवारजन भी बदले में उससे भी अधिक स्नेह देते थे । पानी की कमी, साधनों का अभाव, जीवन के लिए जीवट से संघर्ष से उनमें मितव्ययता, भाग्यवादिता और निर्मीकता के गुणु आत्मसात् होते थे ।

उनके आकर्षक चेहरे-मोहरे, तीखी आकृति हलके-फुलके अनुपात में देह का मॉठल  गठन का मुख्य कारण, उजवेगिस्तान (बोखारा), ईरान, कश्मीर, अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रान्त से उनका प्राचीन भौगोलिक सम्बन्थ ब सम्पर्क होना रहा था। उन क्षेत्रों की अपेक्षाकृत ठंडी जलवायु से गोरा रंग, गुलाबी गाल व होठ होना स्वाभाविक वा, किन्तु जब पूगल क्षेत्र की उष्ण व खुश्क जलवायु से इसका शताब्दियों तक मृदु सम्मिश्रण होता रहा तो उनकी सुन्दरता से चार चाँद जुड़ गए । केवल यही नहीं कि इस क्षेत्र की कन्याएँ सुन्दर, आकर्षक व सुडौल होती थी  पूगल क्षेत्र की 'राठी' नस्ल की गाएँ भी उष्ण व खुश्क जलवायु और वातावरण के प्रभाव से अछूती नहीं रहीँ, उनका गठन, डीलडौल, रंग, चालढाल व दूध देने की क्षमता अन्य संभागों से अब भी इक्कीस है । यह सब रेतीली उपजाऊ मिट्टी, अत्यंत उष्ण व शीत जलवायु,शांत व सामान्य खाना-पीना एवं सहिष्णुता की देन थे । जब भाटियों के बेटे बेटियो के वैवाहिक सम्बंन्ध पश्चिम के सिन्ध और पंजाब प्रदेशों के बजाय पूर्वी व् दक्षिणी पडोसियों से होने लगे तो इनकी पुत्रियों के शारीरिक गुणों का जहाँ हास हुआ, वहाँ भाटी माताओं से अन्य राजपूतों की संतानों के शारीरिक गुणों में शोभनीय अभिवृद्धि हुई ।
 अगर हम प्राचीन इतिहास काव्य और साहित्य पर दृष्टि डाले तो पाएंगे कि रानी पद्मिनी के माता -पिता और उनकी जाति व् कुल को अनावश्यक,विवाद का विषय बना दिया गया है मेवाड़ की  रानी के जीवंत की यथार्थता पर सभी सहमत थे, परन्तु कोई भी राजपूत जाती उसे अपनी बेटी  मानने को उद्धत नहीं हुई, क्योंकि सभी अपनी स्वनिर्मित हींन भावना के कारण उसकी सुंदरता । व् नाम से अकारण घबराते ये । उनके अन्ताकरण में कहीं न कहीं यहः घहरि भावना बैठी हुयी थी की ऐसी पद्मिनी पूगल के सिवाय और  कहीं की कैसे हो सकती थीं । पूगल के भाटियों की विवशता यहः  थी कि कुल मिलाकर यह अनपढ़ थे । उनका अपना लिखित कोई इतिहास न था ।और परिस्थतिवश उन्होंने अपने आपको रेगिस्तान के सुरक्षात्मक फयय के एकान्त में समेट लिया  था ।कोई भी निश्चित मौखिक कथन पर विश्वास करने या ध्यान देने को ततपर नहीं होता था । उन्हें तो लिखित प्रमाण, चाहे  भले ही सरासर मिथ्या  ही क्यों न हो,  ऐसा कोनसा अभागा वँश होगा जो पद्मिनी बेटी जैसी दिव्य शोधा,गुणों की खान और बलिदान की प्रतिमूर्ति को  अपनी प्रेतक वँश परम्परा में  जोड़कर गीरवान्वित नहीं होगा । पूगल के  इतिहास से अल्प परिचित अनभिज्ञ इतिहासकारों ने पद्मिनी  को कहीं न कहीं अपनी पसन्द की खाँप या जाति की उपयोज्यता बना दीं। ओर अगर संयोगवश वह उसके वंश और खानदान की सही पहचान करने में सफल नहीं हुए तो उन्होंने उसके अस्तित्व पर पूर्णवुराम  लगाकर इतिश्री का दी ।

तवारिख जैसलमेर और जैसलमेर री ख्यात के अनुसार रावल पुनपाल जी  के तीन रानियां थी: (1) रानी पैपकंवर  पडिहारजी यह बेलवा के राणा उदयराज की पुत्री थी ,इनसे लखमसी भोजदेव, दो राजकुमार हुए । पुगलिया या पुंगली भाटी भोजदेव के वंशज हैं । (2 ) सिरोही की राणी जामकंवर देवडी, इनके चरड़ा और लूणराव, दो राजकुमार ये । इनके वंशज क्रमश:चरडा और लूँनराव भाटी है ।  इन रानी की पुत्री राजकुमारी पद्मिनी थी । (3)थर-पारकर के राणा राजपाल की पुत्री सोढी रानी । इनके पुत्र रणधीर के वंशज रणधीरोत भाटी हैं ।

पूनपालजी द्वारा सन् दृ 1276 ई. में जैसलमेर त्यागने के पश्चात् उनकी रानी जामकँवरं देवडी (चौहाँन) के सन  1285 है से राजकुमारी पद्मिनी ने जन्म लिया । इनका विवाह चितोड़ के रावल रतनसिंह के साथ हुआ था ।  रानी जामकंवर देवडी नाडोल से जालोर आये देवडो की पुत्री थी । जालोर के चौहान शासकों का विस्तृत राज्य था। जामकेंवर देवडि के पिता वर्तमान जालोर राज्य के सामंत थे ।
'जायसी ग्रंथावली', पृष्ठ 24 पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने रानी पद्मिनी के पति का नाम रत्नसिंह (या स्तनसेन) दिया है, यहीं नाम आइन-ई-अकबरी में दिया गया है । कवि जायसी ने भी शासक का नाम रतनसी दिया है । पंडित शुक्ल के अनुसार (वर्तमान) राजपूताना या समीप के गुजरात में "सिंघल" नाम का छोटा राज्य होना चाहिए था । सिरोही राजस्थान और गुजरात की सीमा' पर है । श्रीलंका में चौहानो का कोई उपनिवेश नहीं था । श्रीलंका के निवासी कभी गोरे नहीं होते थे,इसलिए राजकुमारी पद्मिनी जैसी सुंदर कन्या वहां की संतान नहीं हो सकती । सिंघल द्वीप और वहाँ की पद्मिनु केबल गोरखपंधी साधुओं की कल्पित कथा है ।

"सोनगरा सांचोरा चौहानों का इतिहास', पृष्ठ 45, मैं हुकमसिह भाटी, गोरा और बादल जालौर के सोनगरा चौहान थे । गोरा, बादल के चाचा थे । चितौड़ आने से पहले यह गुजरात के शासक, वीसलदेव सोलंकी के प्रधान थे ।

इनकी भानजी का विवाह चितौड़ होने के बाद इनके मामा गोरा और ममेरा भाई बादल,सोलंकियों की सेवा छोडकर चितौड़ आ गए थे ।

विद्वान पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने थोडी भूल कर दी है । रानी जामकैवर देवडी, देवड़ा चौहानों के अधीन राजस्थान से लगती गुजरात सीमा में सिंहलवाडा संभाग की थीं । रानी जामकेंवर देवडी के भाई गोरा, रानी पद्मिनी के मामा थे और बादल उनके ममेरे भाई । क्योकि गोरा और बादल रानी पद्मिनी के ननिहाल से थे, इसलिए सन् 1303 ई. के चितौड़ के जोहर से पहले उन्होंने मर्यादा सम्बन्धित मार्गदर्शन अपने ननिहाल पक्ष से भी लिया था ।

नाडौल के देवडा गुजरात के सोलंकी शासकों के प्रधान सामन्त थे और लंबे समय तक उनकी सेवा में रहे  । आसराज चौहान ने इन देवड़ा वंशजों के पास  सिंहलवाडा की जागीरी थी । इसलिए राजा देवडा हमीरसिंह की पुत्री राणी जमकंवर देवड़ी इसी सिंहलवाड़ा से थी । कवि जायसी ने सिंहलो की भूमि सिंहलवाड़ा को  कल्पना से 'सिंहल द्वीप’ की संज्ञा देकर अर्थ का अनर्थ कर दिया सम्भवतः पूर्वी भारत में दूर बैठे जायसी को उस काल में सिंहलवाड़ा के अस्तित्व का बोध तक नही था ।उन्होंने पद्मिनी और सिंहल देश का नाम सुनकर या कही पढ़कर सिंहल द्वीप की उड़ान भर ली और इसी भृर्म में मौज से पद्मावत काव्य की भूमिका बुनकर ऐतिहासिक काव्य की रचना कर डाली। कवि के भ्रमात्मक आधार ने पद्मिनी के सही अस्तित्व को सदियों तक उल्झाये रखा।


वस्तुस्थिति यह रही कि रावल पूनपालजी की रानी जामकेंवर देवही सिंहलवाडा के राजा हमीरसिंह्र देवडा की पुत्रो थी । इनके राजकुमारी पद्मिनी हुई, जिनका विवाह मेवाड़ के रावल रतनसिंह के साथ हुआ । हमीर देवड़ा पद्मिनी के नाना थे । पद्मिनी के मामा गोरा चौहान और इनका भतीजा बादल, पहले गुजरात के सोलंकी शासकों की सेवा में थे, अपनी भानजी का विवाह मेवाड़ हो जाने के बाद वह गुजरात की सेवा छोड़कर मेवाड़ के रावल की सेवा से चितौड़ आ गए । राजपूतों में यह परम्परा भी थी कि बहन या बेटी के पास पीहर और ननिहाल पक्ष से सरदार, पुरोहित व सेवक,सेविकाऐ अवश्य रहते थ । ताकि नए घर में पीहर के विछोह में बेेटी उदास नहीं रहे । निकट के यहःसम्बन्धी उसके पीहर की मान-मर्यादा से उसे अवगत कराते रहते थे और संकट की घडी से उसका साथ देते थे । -

सन् 1295 है से हुए जैसलमेर के पहले शाके तक राजकुमारी पद्मिनी सयानी हो चली थी।वह  सुन्दर कन्या तरुणाई से प्रवेेश कर रहीं थी ।शाके के बाद के दिनो से भाटी बाहुल्य प्रधान क्षेत्रो में अललाऊद्दीन खिलजी के गुप्तचरों, भेदियों की भरमार थी । पूनपालजी को चिंता थी कि कहीँ राजकुमारी के अद्भुत सौंदर्य और रूप लावण्य की सूचना सुलतान तक नहीं पहुँच जाए । और फिर,अगर सुलतान ने उनसे पद्मिनु की माँग कर ती तो उनक पास इस अबोध बालिका के बचाव का कोई साधन भी तो नहीं था, वापस जैसलमेर की शरण लेना आत्मश्ताघी पूनपालजी के प्रतिष्ठा का प्रश्न था और शाके के बाद जैसलमेर से उनका साथ देने वाला बचा ही कोन था। अगर उसकी गिद्ध निगाहों और क्रूर हवस से पद्मिनी  का कुछ बचाव सम्भव नहीं हो सका तो उनके पास स्वय के हाथों पद्मिनु का गला घोंटने या  जहर देने के सिवाय कोई विकल्प शेष नहीं था । संभावित परिदृश्य पर विचार करके पुनपालजी ने जल्दी से पद्मिनी का राजकुमार रतनसिंह के साथ विवाह किए जाने के प्रस्ताव स्वरूप परम्परागत नारियल  कुल-पुरोहित के साथ मेवाड़ के रावल समर सिम्हा के पास भेजा ।पुरोहित के साथ रावल को यहः भी  कहला भेजा कि राज्यु से निर्वासित लिए जाने के कारण वह मेवाड़ की प्रतिष्ठा के अनुरूप दहेज़ आदि की व्यवस्था करने में असमर्थ थे । मेवाड़ के शासक उनकी व्यथा समझते ये, सारे घटनाक्रम के जानकार थे इसलिए उन्होंने पद्मिनी के राजकुमार रतंन सिंह भीमसिंह) के साथ विवाह का प्रस्ताव तत्परता से स्वीकार कर लिया। अपनी अपेक्षाकृत पतली दशा तथा उस समय मेवाड़ की उच्च प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए पुंनपाल जी ने पद्मिनी का 'डोला‘ मेवाड़ भेज दिया विवाह की सारी रश्म रिवाज धार्मिक विधिपूर्वक चितोड़ मे की गयी । राजकुमारी पद्मिनी का जन्म सन 1285 ई में और विवाह सन 1300 ई में हुआ था ।
भाटी और मेवाडी एक-दूसरे से अनजान नहीं थे, प्राचीनकाल से इनके आपस में वैवाहिक सम्बन्थ होते आए थे । रावल सिद्ध देवराज का एक विवाह राव सुरुँजमल गहलोत की राजकुमारी सरुंजकैवर  रावल मुंधजी का विवाह अड़सीजी की राजकुमारी रामकंवर से रावल विजयराव लांझा जी का विवाह रावल करन समसिजियोत की राजकुमारी शिवकवर से,  रावल शालिवाहन का रावल जयसिंह की राजकुमारी राजकंवर से हुआ था । मेवाड़ के प्रथम राणा राहुल, पूगल की पाहू भाटी राजकुमारी रणकदेवी के पुत्र थे । राव रिड़मल राठौड़ का एक विवाह बीकमपुर के भाटियों के यहाँ हुआ था और उनकी बहन हँसा बाई चितौड़ के राणा लाखा को ब्याही थी, जिनके पुत्र राणा मोकल थे । इस प्रकार भाटियों और मेवाडीयों के पीडी दर-पीडी आपस में वैवाहिक आदानप्रदान होते आये थे  । पत्नी के चुनाव का मुख्य आधार उसके गुणु, सुन्दरता और खानदान होते थे, प्रमुख शासकीय जातियों के लिए वधू के पिता की समृद्धि गौण होती थी । जैसलमेर के भाटियों से मेवाड़ के वैवाहिक सम्बन्थ बाद की शताब्दियों में भी यथावत वने रहे ।

राजकुमार रतनसिंह पद्मिनी जैसी उत्कृष्ट सुन्दरी के रूप में  पाकर निहाल हो गए ।उन्होंने अपने शुभनक्षत्रों को इसके लिए बार-बार धन्यवाद दिया । किन्तु उनका अमृतचुल्य सुख अल्पावधि का रहा । जिस दूरदर्शिता से पूनपालजी ने पुग्ल के मरुदेश की अमूल्य धरोहर को अलाउद्दीन खिलजी के गुप्तचरों व भेदियों की तीखी निगाहों से बचाकर मेवाड़ व चितौड़ की अभेद्य सुरक्षा प्रदान करनी चाही थी, उनकी यह कामना पूर्ण नहीं हुई । चितौड़ में सुलतान खिलजी के शिविर के आस पास तुच्छ पुरस्कारों के लिए मंडराते हुए मेवाडी भृत्यों ने रानी पद्मिनी के अदम्य रूप लावण्य  की प्रशंसा उनके सामने का डाली । बस विनाश हो चुका । जिस नियति की आशंका पूनपालजी को चितौड़ से तीन सौ मील दूर पगल में थी ।उसी नियति के खेल ने पद्मिनी को चितौड़ में रंग दिखाया । वह अट्ठारह वर्षों की नवयौवना चितौड़ के गढ में सन् 1303 ई. में अग्नि के बलि चढ़ गई । कहाँ मरुदेश  के रेतीले शुष्क वातावरण में पली पोषी उचरखल पद्मिनी  का भाग्य उसे "खींचकर अरावली की धाटियों में ले गया, जहाँ वह रक्त…रंजित संघर्ष का कारण बनकर स्वाह हो ।गई और राजपूतों व मेवाड़ के इतिहास में पूजनीय बनकर अमर हो गई ।

भाटियों को गर्व है कि पूगल की माटी बेटी रानी पद्मिनी  भटियाणी ने जीवित रहने के लिए भाटियों और गहलोतों के आत्म सम्मान  व स्वाभिमान से समझौता किए बिना हजारों क्षत्राणियों वृद्धा व युवा, का नेतृत्व करके उन्हें आत्मदाह का मर्यादा का मार्ग बताया । कहते हैं कि जौहर  पद्मिनी ने अपने मामा गोरा  और ममेरे भाई बादल से विचार विमर्श किया  था । दोनों ने मर्यादानुसार सर्वोच्च बलिदान का मार्ग चुना एक राख बन गई, दूसरों का रक्त धरती माँ की माटी ने बीज सुरक्षित रखने के लिए सोख लिया। जितना पूगल की पद्मिनी के रूप-लावण्य, साहस व् बलिदान ने भारतीय वाड्मय को प्रभावित किया है उतना अन्य किसी ने नहीं क्रिया । क्योकिं पद्मिनी  का सौन्द्रर्यं साधारण संग्राहक की सोच-शक्ति से परे था  इसलिए तथाकथित विद्वानो ने बिना सोचे-समझे, रुके, इसकी वंश-परम्परा को कहीं भी किसी के यहाँ, टाँककर  एक गौरवमय इतिहास की इतिश्री कर दी । उनके लिए पूगल इतना समीप का साधारण पडोसी था कि वह पद्मिनी जैसी असाधारण रानी की जन्मन्यूमि हो ही नहीं सकती थी।आज्ञान, ईष्यों, जनश्रुति आदि कारणों से बाध्य होकर विद्वानों और अज्ञानियों ने पद्मिनी को ऐसी दूर जगह स्थापित करके संतोष किया ,जिसे किसी ने कभी देखा तक नहीं था, केवल उसकी स्तुति रामायण से सुनी थी ।

यहाँ यह बताना सामयिक होगा कि रानी पद्मिनी से सौ साल पहले पूगल के ही पाहू घाटियों की बेटी रानी रणकदेवी मेवाड़ के प्रथम सिसोदिया राणा, राणा राहुप, की माता थीं ।

पूगल क्षेत्र की सभी सुन्दर कुमारियों को ’पद्मिनी' नाम से सम्बोधित किया जाता था, उनका असली नाम चाहै कुछ और ही होता था । 'पद्मिनी जातिवाचक संज्ञा थी, न की
व्यक्तिबाचक ।

मंडोर के बाउक प्रतिहार शासक की भटियाणी माता को सम्मान से 'पद्मिनी' कहते थे,उनका असली नाम पद्मिनी नहीं था ।

जय क्षात्र धर्म की
सन्दर्भ ग्रन्थ-गजनी से जेसलमेर
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रविवार, 7 मई 2017

उतर भड़ किवाड़ भाटी क्यों कहा जाता है जानिए भाटीओं को और विजयराज लांझा राहड़,मांगलिया,हटा,भींया भाटीयों की साखाओं का प्रादुर्भाव

 सन 841 ई. में अपने पितामह राव् तणुजी की पराजय और मृत्यु के पश्चात् घाटियों के राज्य के संस्थापक  मूलपुरुष रावल सिद्ध देवराज राज्यविहीन हो गए थे । अपने 121 वर्षों के लम्बे शासनकाल का उन्होंने आनन्द  से उपभोग लिया, बहुत विख्यात हुए और समृद्ध रहे । उनके उत्तराधिकारियों, रावल मुंधजी एवं दुसाजी के भाग्योदय की प्रधानता अगली तीन शताब्दीओ तक बनी रही । रावल विजयराव लांझा के काल में यह चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई । इसके पश्चात 1152 ई. में इनके पुत्र युवा  रावल भोजदेव का युद्ध के मैदान में प्राणोत्सर्ग होने के
साथ भाटियों के यशस्वी और शौर्यपूर्ण इतिहास में थोडा विराम लग गया ।

रावल विजयराव लांझा के निम्नलिखित शासक समकालीन थे …-

113. रावल विजयराव लांझा लुद्र्वा ( सन1122-1147ई.)

समकालीन :-
अजमेर के चौहान शासक
1.अजयराज(द्वितीय)1110-35 ई.  ।
2.अर्णोराज (अंनोजी) सन 1135-50 ई. ।

इन्होंने गजनी के शासक सुलतान वहरामशाह
के बिद्रोही मोहम्मद भालिन को शरण देकर,नागोर का परगना दिया । इसलिए सुलतान बहरामशाह ने अजमेर पर आक्रमण कर. दिया, किन्तु वह अनासागर के पास पराजित होकर शीघ्रता से वापस लौट गए ।

अर्णोराज ने पल्लू हो कर सरस्वती धाटी पंजाब पर आक्रमण करके साम्राज्य की सीमाओं का पंजाब के बडे क्षेत्र में विस्तार किया ।

' यहः गुजरात के सिद्धराज  जयसिंह सोलंकी के विरुद्ध युद्ध में विजयी रहे,परंतु बाद में गुजरात के कुमारपाल चालुक्य (सन 1143-73ई. ) से पराजित हो गए ।

नाडोल के चौहान शासक :-
1.रतनलाल सन 1119-32 ई.
(2) इनके पश्चात सन् 1148 ई. तक ।
रायपाल, सहजपाल, कटुदेव व जैतसी
शासक बने ।

मालवा के परमार शासक : यशोवर्मन ।

आबू-किराडू के परमार शासक :
विक्रमसिम्हा और सोमेश्वर

गुजरात के शासक :
11) सिद्धराज जयसिंह सोलंकी, सन
1094.1143 ई., यह मूलराज चालुक्य
से सातवें वंशज थे ।
कुमारपाल चालुक्य, 1143-73 ई.
 गजनी के शासक :
सन् 1115 से 1158 ई. तक सुलतान
बहरामशाह गजनी के शासक रहे ,परन्तु सुल्तान मसूद ,मौदूद एवं इब्राहिमशाह के शासनकालों में शक्तिशाली बने स्लजुक तुर्क इन पर नियंत्रण रखते थे ,या यों कहें कि सुल्तान का ताज इन तुर्को के कारण सुरक्षित था ।
 113. रावल विजयराव लॉझा : यह वि.संवत 1179 (सन 1122 ई) में लुद्र्वा के शासक बने। इन्होंने वि. स. 1204 (सन् 1147 ई.) तक पचीस वर्ष शासन किया । इनके पांच रानियों, पॉच राजकुमार एवं दो राजकुमारियों, लाछाँ एवं लाँघ थी।

1. युवराज भोजदेव". यह अपने पिता के पश्चात् रावल बने । इनकी माता अणहिलवाड़
गुजरात के शासक सिद्धराज जयसिंह सोलंकी की राजकुमारी रानी सोलंकीणी थी ।

2.राजकुमार राहडजी
 इनके कुमारों, नेतसी एवं केकती के वंशज राहड़ भाटी कहलाए
इनके ज्येष्ठ पुत्र कुमार भोपत वर्तमान बीकानेर क्षेत्र की और जाकर बस गए थे और छोटे कुमार कर्ण के वंशज मुसलमान बन गए । उनके वंशज राहड़ भाटी मुसलमान ,सिंध प्रांत के खैरपुर में बस गए ।
 3. राजकुमार हट्टोजी, इनके वंशज हट्टा भाटी कहलाए ।

4.राजकुमार मंगलजी, इनके वंशज मांगलिया भाटी  कहलाए । यह 'थल' संभाग के चालीस गाँवों में रहते थे । इन्होंने यहीं शाहगढ के पास "कोट छाँरण' नाम का किला बनवाया । उन चालीस गाँवों में रहने वाले माँगलिया भाटी सामूहिक रूप से मुसलमान बन गए थे । अब इनकी पहचान मुसलमान फकीरों" के रूप में है ।

5. राजकुमार भीम, इनके वंशज भीया भाटी कहलाते है ।

एक पहुंचे हुए सिद्ध जोगी के आशीर्वाद से रावल बिजयराव लॉंझा को अतुल्य धनसम्पदा प्राप्त हो गई थी। इन्होंने वि.सं. 1195 (सन् 1138 ई.) में नढाजी भाट को पांच गाँव, भटनेर परगने में दो और देरावर परगने में तीन, दे कर उन्हें सोने की 'छडी और सुखपाल भेंट किए थे ।
इन्होंने अन्य कवियों एवं भाटों को भी सात गॉव दिए । इससे स्पष्ट है कि उस समय के भाटी राज्य की सीमाएं उत्तर में भटनेर से और आगे तक थी और पश्चिम से कम से कम सतलज नदी तक ।

धार के राजा तिलोकचन्द परमार के तीन राजकुमारियों" थी, जिनकी सगाई क्रमश: लुद्र्वा के राजकुमार विजयराव भाटी,अणहिलवाड़ पाटण के शासक सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के राजकुमार जयपाल और मेवाड़ के रावल विजयसिम्हा  के साथ हुई । अपने पिता रावल दुसाजी के शासनकाल में युवराज बिजयराव बरात में सात सौ घुड़सवार लेकर धार गये हुए थे। वहां 1 छोटी सी झारी से कपूर मिले हुए जल को छिड़क रहे मेवाड के रावल से इनकी कहा सुनी हो गयी । इससे आहत राजकुमार बिज़यराव ने अपने सेवकों को आदेश दिए कि धार नगर और इसके आसपास के क्षेत्रों में उपलब्ध समस्त कपूर के भण्डार खरीद कर उसे नगर की सभी बावडियों एवं सहस्रलिग झील के जल में घोल दे, ताकि धार नगर की प्रजा लम्बे समय तक सुगन्थित जल पी सके और इसकी महकी सुगंध का आनंद ले सके ।  अपनी एक छोटी सी झारी से कपूर मिले हुए जल का
छिड़काव करके दिखावा कर रहे मेवाड़ के रावल को भाटी राजकुमार द्वारा बावडियों एवं झील में संगृहित सम्पूर्ण जल में कपूर मिलाकर सुगन्धित किए जाने से बहुत नीचा देखना पहा । बहुमूल्य कपूर की खरीद के लिए राजकुमार को बहुत धन खर्च करना पड़ा था और बरात के प्रस्थान करके चले जाने के कई महिनों बाद तक, राजा के उपयोग योग्य सुगंधित जल का आनन्द, धार की प्रजा लेती रही । तब से धार की मिलनसार प्रजा उन्हें चाव से 'शौकीने या 'लाँझा' उपनाम, जिन्हें जीवन में अच्छी चीजों की चाहत रहती थी, कहकर स्नेह से सम्बोधित करने लगी और वह विजयराव लांझा कहलाये। ऐसे ही इनके एक पूर्वज 'चूडाला' उपनाम से विजयराव 'चूंड़ाला' कहलाते थे ।

मेवाड़ के रावल का मानमर्दन करके धार से लुद्रबा लौटने पर विजयी राजकुमार ने वहां  सहस्त्रलिंगजी का मंदिर बनवाया और पास में एक तालाब भी खुदवाया ।

रावल बिजयराव लॉंझा का एक विवाह अणहिलवाडा  पाटण के राजा सिद्धराज जयसिंह सोलंकी की पुत्री और जयपाल, जिनका कुछ समय पहले रावल के साथ-साथ धार में विवाह हुआ था कि बहन के साथ हुआ । '

रावल बिजयराव लाँझा के शासनकाल में पश्चिम में सिन्ध प्रदेश और उत्तर में पंजाब प्रान्त के मुसलमान आक्रांता अपनी शक्ति में बढोतरी करके अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा और दूरस्थ बलख बोखारा व समरकंद से धमकियों भरे हावभाव दिखा रहे थे । उनका मुख्य उद्देश्य भारत की संपदा लूटना, इसके प्राचीन रीतिरिवाजों, जीवन पद्धति व संस्कृति को नष्ट करके राजपूत राज्यों को अस्थिर करना था । उनके निक्टत्तम पडोसी, उत्तरी और पश्चिमी भारत, को नष्ट करने पर उनकी निगाहे टिकी हुई थी । आक्रांताओं की अमानुषिक निष्ठरता के प्रति जनता सामान्यता सचेत थी ।इसलिये उत्तर-पश्चिम भारत में अशान्ति और सतत असुरक्षा के भय की भावना उनमें व्याप्त थी ।उन्ही दिनों रावल विजयराज लॉंझा आबू की  परमार राजकुमारी से विवाह करने आबू गए हुए थे ।
विवाहोत्सव मे गहलोतों, परमारों, सोलकियों (चालुक्यों) आदि प्रमुख राजपूत जातियों के उपस्थित शासकों सामंतों ने सहमत होकर रावल विजयराव लॉंझा को 'उत्तर भट्ट किवाड़ भाटी' उतर के द्वार के रक्षक की उच्च उपाधि से सुशोभित करने की घोषणा की । उनका अभिप्राय रावल विजयराज लांझा को  गुजरात के चालुक्यों मेवाड में गहलोतों और मालवा के परमारों के राज्यों की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली बन रहे उतर के मुसलमानों सुल्तानों के आक्रमणों के विरुद्ध अवरोधक का उत्तरदायित्व सौंपने का था । यहः उतरी सुल्तान ,सिंध के गजनवी शाशक ,घोर का हुसैन और नागौर का मोहमद भालिम थे ।

 इस उपाधि की पवित्रता को सामाजिक व जातीय महत्व प्रदान करने के अभिप्राय से रावल विजयराव लांझा की सास, आबू की रानी, ने वैवाहिक रीति-रिवाजों से पहले प्रांगण में प्रदेश करने पर रावल के ललाट पर पारंपरिक दही से तिलक करते समय इस उपाधि को उत्साह से दोहराया,जिसके उत्तर में रावल ने उन्हें आश्वस्त किया कि यह और उनके वंशज उन्हें सौंपे गए उत्तरदायित्व 'को प्राणों का उत्सर्ग करके भी सदैव निभाएंगे । उस शुभ अवसर से "उत्तर भड़ किवाड़ भाटी’ उनका और उनके भाटी वंशजों का सतत विरुद बन गया ।

माँगीलाल मयंक ने "जैसलमेर राज्य का इतिहास' में भी लिखा है कि रावल बिजयराव का एक विवाह आयू की परमार राजकुमारी के साथ हुआ था । उनकी सास ने उनके ललाट पर दही से तिलक करते 'समय उनसे 'उत्तर दिसि भड़ किवाड़ हुई' का प्रण लेने के लिए कहा । इसके प्रत्युत्तर में रावल ने उन्हें विश्वास दिलाया वि; वह मुसलमानों के आक्रमणों के विरुद्ध उनके उत्तरी सीमांत की रक्षा करेगे । डा. दशरथ शर्मा' के अनुसार, अपनी इस उपाधि की सत्यता को सिद्ध करने के लिए रावल बिजयराव ने गजनी के अमीर खुशरोसाह के विरुद्ध युद्ध में विग्रहराज चौहान (चतुर्थ) की सहायता की । यह निष्कर्ष सही नहीं लगता, क्योंकि रावल बिजयराव का देहान्त सन् 1147 ई. में हो गया वा, जब कि विग्रहराज चौहान (चतुर्थ) बाद में सन् 1150 ही में राजगद्दी पर बैठे थे । यह ज्यादा सम्भव था कि अरनोराज़ चौहान, जिन्होंने पल्लू और सरस्वती घाटी हो कर पंजाब पर आक्रमण किया था, रावल बिजयराव के उत्तरी राज्य के इन्हीं भागों से होकर जागे बढ़ने के लिए उनसे सहमति मांगने के साथ सक्रिय सहायता भी मांग ली हो । किन्तु ऐसी एकमात्र घटना भाटियों द्वारा मुसलमानों के आक्रमणों के विरुद्ध निरन्तर किए जा रहे उत्सर्गों के साथ न्याय नहीं करती । वह अरबों के सिन्ध-मुलतान पर आक्रमणों के समय से महमूद गजनी तक के विरुद्ध लोहा लेते रहे थे और बाद में मोहम्मद गोरी ,मंगोल, तैमूर व अन्यौ के विरुद्ध अपनी क्षमतानुसार लड़ते रहे । उन्होंने 'उत्तर भट्ट किवाड़ भाटी' के अपने विश्वास और प्रण को कभी डिगने नहीं दिया ।

रावल बिजयराव लॉंझा की दोनों राजकुमारियों, लाछाँ और लांझ में जन्म से प्राकृतिक दिव्यता थी । वह रात्रि के समय लुद्र्वा से दूर अपने जैसी अन्य दिव्यात्माओ के साथ धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए एकत्रित होती थीं । उनके इस प्रकार के नित्य रात्रि प्रवास के प्रति उनके भाई युवराज भोजदेव को कुछ स्वाभाविक संदेह होने से वह गुप्तरूप से उनके पीछे जाकर देखना चाहते थे कि वह रात्रि में केसा अनुष्ठान करने जाती थी । एक रात्रि में उन दोनों ने अपने भाई को उनका पीछा करते हुए देख लिया ।क्रुद्ध होकर उन्होंने अपने भाई को श्राप दिया कि उनके पश्चात् उनके स्वयं के वंश का लोप हो जाएगा ।इतना कहकर वह दोनों अनन्त अंतरिक्ष में कभी नहीं लौटने के लिए उडान भर गई ।

अपनी नामराशि के पूर्वज राव बिजयराव चूड़ाला की भांति रावल बिजयराव लॉंझा भी एक शक्तिशाली शासक थे । ख्यातों में भी ऐसे नाम के दो शासक का वर्णन है । एक से भट्टिका संवत् 501 (व्रि.सं. 1181 . सन् 1124 ई) का एक शिलालेख) प्राप्त हआ है जिसमें शासक का विरुद है  'परम भट्ठारक महाराजाधिराज परमेश्वर बिजयराव देवेन प्रदत्त तनियत महमादृय श्री हरिप्रसाद सूत्रधार श्रीधर । ' रावल विजयराव लॉंझा द्वारा इस प्रकार का उच्च श्रेणी का उत्कृष्ट विरुद अपनाने का कारण स्पष्ट नहीं है । '

इनसे पहले सांभर के सिंहराज चौहान (सन् 944-71 ई ) ने इस प्रकार का विरुद अपनाया  था : 'परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' है कुछ समय पश्चात् पृथ्वीराज चौहान (प्रथम) (सन 1090- 1110 ई.) ने सन् 1105 ई में खोहड़ विजय के उपलक्ष्य में ऐसा ही विरुद धारण किया था । रावल बिजयराव लाँझा के पश्चात् नाडौल के शासक केलण चौहान (सन् 1163-92 ) ने अपने आप को गुजरात के शासक भीमदेव चालुक्य (द्वितीय) के आधिपत्य से स्वतंत्र घोषित करके 'महाराजाधिराज परमेश्वर' का विरुद अपनाया था । जालोर के छाछगदेव चौहान (सन् 1257-82 इं.) ने भी "महामंडलेश्वर राजा, महाराजाधिराज महाराज' का समराजियक विरुद्ध ग्रहण किया था ।

रावल बिज़यराव लॉंझा ने जैसल और उनके सहयोगी असन्तुष्ट सामंतों को चालुक्यों की सहायता से पराजित करने के पश्चात् शक्तिशाली होकर पंजाब व उत्तर-पश्चिमी भारत से आक्रमण करने वाले मुसलमान आक्रांताओं को परास्त करके उपरोक्त उपाधि ग्रहण की ।

उनके काल के शिलालेखों में केवल अकेले रावल का नाम दिया गया है । उनके साथ पुर्वजों या राजकुमारों के नाम नहीं दिए गए हैं इसलिए यह अनुमान लगाना कठिन है कि शिलालेख में इंगित बिजयराव कौंनसे थे । श्री दशरथ शर्मा का निष्कर्ष है कि यह रावल बिज़यराव् लांंझा होने चाहिए ।

रावल बिजयराव लोंझा एक यशस्वी शासक थे अजयराज़ चौहान (द्वितीया )एंव  अरणीराज, शाकम्भरी (अजमेर), विजयचन्द्र और गोविन्द-, कन्नौज. परमारदीन मौहबा, पाटन सिद्धराज जयसिंह एवं कुमारपाल उनके समकालीन शासक थे । इन शक्तिशाली एवं यशस्वी
शासकों के साथ उनके पारिवारिक सम्बन्धों का उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु इनकी उपाधि से स्वतः प्रमाणित होता है कि कन्नौज़, पाटन, महोबा, सांभर, अजमेर के शासकों से इनकी प्रतिज्ञा, गौरव प्रभाव कम नहीं था । वह 'शक्ति' के उपासक थे ।

इनके पिता के रहते हुए राजकुमार का विवाह अणहिलवाड़ पाटन के राजा जयसिंह सोलंकी
(चालुक्य) की राजकुमारी के साथ हो गया था, इसलिए उनके देहान्त पर चालूक्यों की सहायता से स्वय युव्राज जैसल के स्थान पर अन्यायपूर्ण तरीके से लुद्र्वा के शासक वन गए और इन्होंनै चालुक्यों के आधिपत्य से अपने राज्य को मुक्त कराया । तणोट और उसके पश्चिम के क्षेत्रो पर जैसल का अधिकार रहा । यह क्षेत्र उनके पिता ने उन्हें निर्वाह के लिए दे रखा था ।

गुजरात के शासक कुमारपाल चालुक्य (सन 1142-73 ई)  ने अपने अधीनस्थ किराडु के शासक सोमेश्वर परमार (सन 1141-61ई) को निर्देश दिए की वह जैसल के विरुद्ध रावल बिजयराव की सहायता  करे । वि.स 1218 (सन 1161 ई.) के किराडू शिलालेख से ज्ञात होता है कि सोमेश्वर परमार ने तनोट ,नोसर (नवासर),उन्छ पर आक्रमण करके असंतुष्ट विद्रोही प्रमुख  जज्जक (जैसल) को पराजित किया। शिलालेख ने वर्णित यह तथ्य महत्वपूर्ण है की पराजित प्रमुख के पास तणोट और इसके पश्चिम का क्षेत्र इस शर्त पर रहने दिया गया कि वह शक्तिशाली चालुक्यों के जंवाई ,रावल बीजयराव के साथ छेड़छाड़ नहीं करेंगे । तणोट पर आक्रमण करने के लिए सोमेश्वर परमार ने अंकल,  लुद्रवा, रामगढ़ का मार्ग लिया था । अंकल यह स्थान है जहा से लुद्गवा से किरांडु, बाड़मेर और गुजरात की और जाने वाले मार्ग निकलते हैं ।


मेरे विचार में उपरोक्त घटना रावल जैसल के शासनकाल की है । उन्होंने चालुक्यों के  भानजे भोजदेव को परास्त करके मारकर लुद्रवा पर अधिकार कर लिया था, परन्तु चालुक्यों जिन्होंने उन्हें निर्वासित का विजयराव को लुद्रवा का शासक बनाने में अहम भूमिका निभाई हैं, के आधिपत्य को स्वीकार नहीं क्रिया । इसलिए रावल जैसल, जिनका शक्ति केन्द्र अभी तणोट ओर उसके पश्चिम में था और अधिकांश सेना व समर्थक तणोट से पश्चिम की सिन्ध नदी की घाटी में थे, को अधीन करने के लिए कुमारपाल चालुक्य ने सोमेश्वर परमार को तणोट पर आक्रमण करने के निर्देश दिए । इसके पश्चात् हुई संधि के फलस्वरूप रावल जैसल ने चालुक्यों की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली और बदले में उन्होंने उन्हें लुद्र्वा राज्य एवं तणोट व उसके पश्चिम के क्षेत्रों पर शासन करने
की मान्यता दी । किराडू के शिलालेख में केवल यह उल्लेख है कि सोमेश्वर परमार ने विद्रोही प्रमुख जज्जक को परास्त कीया, परन्तु यह कहीं उल्लेख नहीं है कि वह रावल विजयराव. की सहायतार्थ गए थे। क्यों कोई संदेह नहीं कि पूर्वं में उनके साथ लिए गए अन्याय के कारण रावल जैसल चालुक्यों के विरुद्ध विद्रोही अवश्य थे और लुद्र्वा के शासक बनने पर उन्होंने उनकी प्रभुता को मान्यता नही दी,जिसके कारण चालुक्यों ने बल प्रयोग करके उपरोक्त संधि करने के लिए रावल जैसल को बाध्य किया । रावल विजयराव लांझा अपनी दानशीलता शौर्य एवं प्रजा की भलाई के लिए करवाये गये निर्माण कार्यों के लिए प्रसिद्ध थे ।

दोहा: यह सह हाले पांखती,भूप अनेड़ माल ।
     आयो धणी बन्धावसि,बिजड़ासर री पाल।।

दोहा: तैसुं वडे न सूमरा ,लांझो बिजेराव ।
       मांगण ऊपर हथडा ,बेरी ऊपर घाव ।।

जय श्री कृष्ण
सन्दर्भ ग्रन्थ :-गजनी से जेसलमेर हरिसिंह भाटी
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बुधवार, 3 मई 2017

श्री कृष्ण से राजा शालिवाहन तक यदुवंशिओ की वंशावली भाटी, जाडेजा,जादोन, सरवैया,चूड़ासमा

 श्रीकृष्ण से आगे यदुवंशियों की उपशाखाओं की वंशावली

46 राजा श्रीकृष्ण :

(क) रानी रुक्मणी से इनके पुत्र राजकुमार
प्रधुमन गृहयुद्ध में इनके जीवनकाल में प्रभास में मारे गए ये, यह राजा नहीं बने ।
राजकुमार प्रधुमन के पुत्र थे -

(1) राजकुमार अनिरुद्ध :- यह अपने
पिता के साथ प्रभास में मारे गए
थे । राजा नहीं वने । इनके कोई
पुत्र नहीं था । '

(2) राजकुमार वृजनाभ : यह अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् मथुरा से द्वारिका जाते हुए मार्ग में मर गए ।
यह भी राजा नहीं बने। इनके -
वंशज, करौली और बोघोर के
'जादव' (जादोन) हैं ।

(3) राजकुमार खीर : इनके वंशज सौराष्ट्र में हिन्दू जाड़ेचा"  सिन्ध  प्रदेश में "मुसलमान जाड़ेचा’ हैं । इन्हें
'जाडेचा जाम' भी कहतेहैं ।

(ख) राजकुमार साम्ब : श्रीकृष्ण की रानी सत्यभामा से पुत्र । साम्ब के वंशज सिन्ध हिन्दू और मुसलमान
प्रदेश के 'सम्मा या समाएचा कहलाए है ।
इन्हें सिन्ध प्रदेश में 'मुसलमान जाम' और
सौराष्ट्र में "हिन्दू जाम' कहते हैं ।

इनके दूसरे वंशज हैं गुजरात' सौराष्ट्र के"चूडासिया यादव व चूडासम्मा ।

 राजा व्रजनाभ के पुत्र वज्रनाभ का राज्याभिषेक
मधुरा में किया गया । इनके पाँच पुत्र थे, राजकुमार
,, प्रतिबाहु' बाहुबल, प्रतिवसु, उग्रसेन और सूरसेंन।
 2,राजा प्रतिबन्दु (प्रथम) . इनकी कोई राजधानी नहीँ
रहीं । इनके कोई पुत्र जीवित नहीं रहने से इनके छोटे
भाई उग्रसेन इनके गोद आकर राजा बने ।

3. राजा उग्रसेन :-इनकी भी स्थाई राजधानी नहीं थी
इनके कोई पुत्र जीवित नहीं रहने से छोटे भाई सूरसेन इनके गोद जाकर राजा बने ।

4- राजा सूरसेन: इनकी भी कोई राजधानी नहीं थी ।
इनके कोई पुत्र जीवित नहीं रहने से इनके बडे भाई
बाहुबल के पुत्र नाभबाहु इनके गोद आकर राजा वने ।

5. राजा नाभबाहु : इनके चार राजकुमार थे :

1. राजकुमार सुबाहु : यह अपने पिता के
पश्चात् राजा वने ।

(2) कुमार चूड्डासम्मा : इनके वंशज सौराष्ट्र के
"चूड़ासमा, कहलाए।

3. कुमार सरवैया : इनके वंशज जूनागढ
(सौराष्ट्र)   के 'सरवैया है

कुमार जादव : इनके वंशज गिरनार
(सौराष्ट) के 'जादव' है ।

पेशावर 6. राजा सुबाहु : पलायन के बाद यदुवंशियों की पहली
नई राजधानी पेशावर थी । इनके चार कुमार थे :

(1) रानी ज़सलेखा तक्षक के पुत्र राजकुमार
राजसेन यह जपने पिता के बाद से
शासक वने ।

(11) कुमार सहदेव ।

111 कुमार खीर : इनके वंशज  ' चूड़ासमा' और गिरनार के 'सरवैया कहलाये । इन्हें सामूहिक रुप से सौराष्ट्र मै जादम भोमिया कहते है ।

4.कुमार यदुभाण या जदभांण:- डीग, करौली ,बेहेड़ा में इन्हें जदभाण यादव या जादव (जादोन) कहते है । यथार्थ में चूड़ासिया, चूड़ासमा, सरवैया,जादव, सभी राजा नाभबाहु के वंशज है ।आगे पीछे किसी अन्य के वंशज नही है ।
 7.पेशावर:-राजा राजसेन, पेशावर में राजां बने ।

पेशावर, 8. राजा गजबाहु पेशावर से राजा वने । इन्होंने
आखातीज, रविवार, युधिष्ठिर संवत् 308 के दिन
गजनी की स्थापना की और अपनी राजधानी
पेशावर से आगे गजनी ले गए ।

गजनी, 9. राजा प्रतिबाहु : यह गजनी में राजा बने, परन्तु बाद गज़नी छोड़कर राजधानी वापस पेशावर ले जानी
पडी ।

पेशावर 10. राजा दत्तबाहु : पेशावर में राजा वने ।

पेशावर 1 1. राजा बाहुबल : पेशावर में राजा बने ।

पेशावर 12. राजा सुभैव (प्रथम) : पेशावर में राजा बने ।

पेशावर 13. राजा देवरथ (प्रथम) : पेशावर में राजा बने ।
इनके युवराज उगत्तसेन का देहान्त इनसे पहले हो
गया था, इसलिए इनके पश्चात् इनके पौत्र कुमार
पूथ्वीसहाय राजा वने ।

पेशावर 14. राजा पृथ्वीसहाय पेशावर में राजा बने ।

पेशावर 15. राजा महीपाल : पेशावर में राजा वने ।

पेशावर, 16. राजा मर्यादपति : पेशावर में राजा बने । बाद में राजधानी पेशावर से गजनी ले गए ।

गजनी 17. राजा स्वायतसेन (प्रथम) : गजनी में राजा बने ।
गज़नी 18. राजा सूरसेन (द्वितीय) : गजनी में राजा बने ।
इनके दूसरे पुत्र मंडमराव के वंशज देवपाल के
'मेवाती' है । अब यह सब मुसलमान हैं ।

गजनी 19. राजा उदयपसेन : गजनी में राजा बने। इनके दूसरे पुत्र पालसेन के वंशज मदनपाल और विजयपाल के
भरतपुर  के "सिनसिनवार जाट' है ।
इन जाटो को मेवात में 'उदयक्ररण जाट' कहते हैं ।

गजनी 20: गजनी में राजा वने, परन्तु आधा राज्य
हार गए! इनके तीसरे पुत्र इन्द्रजीत के वंशजो ने भारत के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र पर शासन किया ।
 गजनी 21. राजा कनकसेन (प्रथम) : गजनी में राजा बने ।
गजनी 22. राजा सुगमसेन गजनी में राजा वने ।

गजनी, 23. राजा मगवनजीत : गजनी में राजा बने, परन्तु बाद राजधानी गजनी से पीछे मथुरा ले गए ।

मधुरा 24. राजा कुरुतसेन : मथुरा में राजा बने ।

मथुरा 25. राजा भगबानसेन : मथुरा में राजा बने ।

मथुरा 26. राजा विदुरथ : मथुरा में राजा बने ।

मधुरा, 27. राजा विक्रमसेन : मथुरा में राजा बने। गजनी पराजित होकर अपनी राजधानी मधुरा से आगे लाहौर
ले गए ।

लाहौर 28. राजा कुमुदसेन : लाहौर में राजा वने ।

लाहौर 29. राजा ब्रजपाल : लाहोर के राजा बने । राजा कुमुदसेन के युवराज राजसेन का देहान्त उनसे पहले  हो जाने के कारण उनके पौत्र कुमार बृजपाल उनके बाद से राजा बने ।

लाहौर 30. राजा वज्रजीत ८ लाहौर में राजा बने। यह राजा ब्रजपाल के तीसरे पुत्र थे ।

लाहोर 31. राजा मूर्तिपाल लाहोर में राजा बने। यह राजा
वज्रजीत के पाँचवें पुत्र थे ।

लाहोर 32. राजा रुक्मसेंन  लाहोर में राजा वने ।

लाहौर 33. राजा कनकसेन (द्वितीय) लाहोर के राजा वने ।
लाहोर, 34. राजा उतरासेन :- लाहोर में राजा वने। गजनी पर अधिकार करके अपनी राजधानी लाहोर से जागे
गजनी ले गए ।

गजनी 35. राजा स्वायत्तसेन (द्वितीय) : गजनी में राजा बने ।

गजनी 36. राजा प्रतसेन (प्रथम)  गजनी में राजा बने।

गजनी 37. राजा शमसैन या रामसेन : गजनी में राजा बने ।
गजनी 38. राजा सहदेव : गजनी में राजा बने ।

गजनी 39. राजा देवसवाय :-गजनी में राजा बने, परन्तु बाद मे राजधानी गजनी से पीछे मथुरा ले गए ।

 मथुरा:- 41 ,राजा सूर्यदेव अपने पिता राजा शंकरदेव के जीवनकाल में ही मथुरा में राजा बने ।
 मथुरा 42. राजा प्रतापसेन ८ मथुरा में राजा बने ।

मथुरा, 43. राजा अवनिजीत : मथुरा में राजा बने । बाद
लाहौर अपनी राजधानी मथुरा से आगे लाहौर ले गए ।

लाहौर' 44. राजा भीमसेन (प्रथम) लाहौर से राजा वने । बाद गज़नी जीतकर अपनी राजधानी आगे व्हा
लाहोर ले गए, किन्तु बाद में गजनी में पराजित होने पर बापस पीछे लाहौर लौट जाए ।

लाहोर 45- राजा चन्द्रसेन (प्रथम) लाहोर म ैंरांजा बने! इन्होंने गजनी पर पुन अधिकार कर लिया ।

लाहौर 46 राजा जगस्वात्त : लाहौर में राजा बने । यह राजा चन्द्रसेन के तीसरे राजकुमार थे । इनसे की युवराज
भोजराज और राजकुमार करण ने गजनी के युद्ध से
' वीरगति पाई ।

लाहौर 47. राजा बैण ८ लाहोर में राजा बने ।

लाहौर, 48. राजा देवजस लाहोर में राजा बने, बाद से अपनी  राजधानी लाहौर से पीछे मथुरा ले गए । इनके कोई पुत्र नहीं होने से इन्होंने राजा जगस्वात के पुत्र
काकुलदेव के पलते, मूलराज क्रो गोद लिया ।

मथुरा 49. राजा मूलराज (प्रथम) : मथुरा में राजा बने ।

मथुरा 50. राजा रायदेव मथुरा में राजा बने ।

मथुरा 51. राजा सतूराव इनके कोई पुत्र नहीं होने से इन्होंने काकुलदेव के परिवार से देवनन्द को गोद लिया ।

मथुरा, 52. राजा  देवनन्द : मधुरा से राजा वने, बाद में अपनी  राजधानी मथुरा से जागे लाहौर ले गए ।

लाहोर, 53. राजा जगभूप  लाहोर में राजा बने । वाद से अपनी  राजधानी बापस लाहौर से पीछे मथुरा ले गए ।

मथुरा 54. राजा बुद्ध मथुरा में राजा बने ।

मथुरा 55. राजा रोहिताश : मथुरा में राजा बने ।

मथुरा 56. राजा प्रत्तसेन (द्वितीय) : मथुरा में राजा बने ।

मथुरा 57. राजा मोहतनजी : मथुरा में राजा बने ।

मथूुरा 58. राजा वसुदेव  मथुरा से राजा बने ।

मथूरा 59. राजा अलभाण मथूुरा में राजा वने ।

मथुरा 60. राजा वीरसेन  मथुरा से राजा बने ।

मथुरा 61. राजा सुभेव (द्वितीय) : मधुरा से राजा बने ।
 मथुरा 62. राजा सूरतसेन मथुरा से राजा बने ।

लाहौर  63. राजा गुणपयोद ८ इनका राज्याभिषेक मधुरा के बजाय लाहोर में कीया गया ।

लाहोर 64. राजा जगमाल लाहौर में राजा वने । इनके सबसे   छोटे पुत्र खड़गसी जाट कहलाये ।

लाहोर 65. राजा भीमसेन (द्वितीय) : लाहौर से राजा बने ।

लाहोर 66. राजा त्तेजसी (तेजपाल) : लाहौर ने राजा वने । यह राजा भीमसेन के पौत्र थे , इनके पिता युवराज
अमरसी का देहान्त राजा तेज़सी से पहले हो गया
था ।

लाहोर 67. राजा भूपतसेन : लाहौर में राजा वने ।

 लाहोर 68. राजा रसानृप लाहौर में राजा बने । इनके ग्यारहवें एवं सबसे छोटे पुत्र कुमार रतनसी ने गजनी पर
के अधिकार करके यहीं अपना पृथक राज्य स्थापित
 कर लिया ।

लाहौर 69. राजा चन्द्रसेन (द्वितीय) : लाहोर से राजा वने ।

लाहौर 70. राजा मूलमण लाहौर में राजा बने ।
लाहौर 71. राजा लालमण : लाहौर से राजा बने ।
लाहोर 72. राजा सारंगदेव : लाहौर में राजा बने ।

लाहौर 73. सजा देवरथ(द्वितीय) : लाहोर से राजा वने ।

लाहोर 74. राजा जसपत : लाहौर में राजा  बने।
लाहोर 75. राजा जगपत : लाहौर से राजा वने ।

लाहोर, 76. राजा हैंसपत : लाहोर में राजा वने। लाहौर मेँ
पराजित होकर इन्होंने वि. सं. 02, कार्तिक सुदी दूज' गुरुवार, (सन् 055 ई-पू) से हिसार बसाया और नई राजधानी स्थापित की । इनका देहान्त वि.स- 046 (011 है पू) से हिसार से हुआ ।

हिसार 77. राजा दिवाकर : बि. सं. 046 से 079 (011
ई पू से ०23 ई) हिसार में राजा वने ।

हिसार 78. राजा भारमल  वि. सं. 279 से 095 (सन 0323 से 039 ई. )हिसार में राजा वने ।

हिसार 79. राजा खुमाण वि. सं. 095 से 126 (सन 039 से 070 ई) हिसार ने राजा वने ।
 हिसार 80. राजा अर्जुनसेन : वि. सं. . 126 से 152 ( सन 070-096)हिसार में राजा बने ।

हिसार 81. राजा जुजसेन : वि. सं, 152 से 170 (सन 096 से 113 ई.), हिसार में राजा बने ।

हिसार 82. राजा गेनलाम : वि. सं. 170 से 198 (सन
113 से 142 ई.) है हिसार में राजा बने ।

हिसार 83. राजा पद्यरिझशेन : वि सं. 198 से 210 (सन
142 से 154 ई) हिसार में राजा बने, परन्तु साधारणतया यह अपने सम्राट की राजधानी पेशावर में उनकी सेवा में दरबार में रहते थे ।

हिसार, 84. राजा गजसेन : वि. सं. 210 से 251 (सन्
गज़नी 154- 194 ई.), हिसार में राजा बने । बाद मेँ अपनी राजधानी हिसार से गजनी ले गए, परन्तु बि. सं.
251 (सन् 194 ई-) में गजनी के पहले शाके में इन्होंने वीरगति पाई और साथ में गज़नी भी इनके अधिकार से निकल गई ।

शालिवाहनपुर - 85. राजा शालीवाहन (प्रथम) : वि. सं. 251 से 284
 (सन 194 से 227 ई) । इन्होंने गज़नी त्यागकर लाहोर के पास शालिवास्तपुर में नई राजधानी ' स्थापित की।वाद में इन्होंने गजनी पर पुन:अधिकार कर लिया! इनके पन्द्रह राजकुमार थे जिन्होंने पंजाब और भारत के उत्तरी पहाडी क्षेत्रो में पृथक- पृथक राज्य स्थापित किए ।

जय श्री कृष्ण
सन्दर्भ ग्रन्थ -गजनी से जेसलमेर (हरिसिंह भाटी)
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