रविवार, 7 मई 2017

उतर भड़ किवाड़ भाटी क्यों कहा जाता है जानिए भाटीओं को और विजयराज लांझा राहड़,मांगलिया,हटा,भींया भाटीयों की साखाओं का प्रादुर्भाव

 सन 841 ई. में अपने पितामह राव् तणुजी की पराजय और मृत्यु के पश्चात् घाटियों के राज्य के संस्थापक  मूलपुरुष रावल सिद्ध देवराज राज्यविहीन हो गए थे । अपने 121 वर्षों के लम्बे शासनकाल का उन्होंने आनन्द  से उपभोग लिया, बहुत विख्यात हुए और समृद्ध रहे । उनके उत्तराधिकारियों, रावल मुंधजी एवं दुसाजी के भाग्योदय की प्रधानता अगली तीन शताब्दीओ तक बनी रही । रावल विजयराव लांझा के काल में यह चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई । इसके पश्चात 1152 ई. में इनके पुत्र युवा  रावल भोजदेव का युद्ध के मैदान में प्राणोत्सर्ग होने के
साथ भाटियों के यशस्वी और शौर्यपूर्ण इतिहास में थोडा विराम लग गया ।

रावल विजयराव लांझा के निम्नलिखित शासक समकालीन थे …-

113. रावल विजयराव लांझा लुद्र्वा ( सन1122-1147ई.)

समकालीन :-
अजमेर के चौहान शासक
1.अजयराज(द्वितीय)1110-35 ई.  ।
2.अर्णोराज (अंनोजी) सन 1135-50 ई. ।

इन्होंने गजनी के शासक सुलतान वहरामशाह
के बिद्रोही मोहम्मद भालिन को शरण देकर,नागोर का परगना दिया । इसलिए सुलतान बहरामशाह ने अजमेर पर आक्रमण कर. दिया, किन्तु वह अनासागर के पास पराजित होकर शीघ्रता से वापस लौट गए ।

अर्णोराज ने पल्लू हो कर सरस्वती धाटी पंजाब पर आक्रमण करके साम्राज्य की सीमाओं का पंजाब के बडे क्षेत्र में विस्तार किया ।

' यहः गुजरात के सिद्धराज  जयसिंह सोलंकी के विरुद्ध युद्ध में विजयी रहे,परंतु बाद में गुजरात के कुमारपाल चालुक्य (सन 1143-73ई. ) से पराजित हो गए ।

नाडोल के चौहान शासक :-
1.रतनलाल सन 1119-32 ई.
(2) इनके पश्चात सन् 1148 ई. तक ।
रायपाल, सहजपाल, कटुदेव व जैतसी
शासक बने ।

मालवा के परमार शासक : यशोवर्मन ।

आबू-किराडू के परमार शासक :
विक्रमसिम्हा और सोमेश्वर

गुजरात के शासक :
11) सिद्धराज जयसिंह सोलंकी, सन
1094.1143 ई., यह मूलराज चालुक्य
से सातवें वंशज थे ।
कुमारपाल चालुक्य, 1143-73 ई.
 गजनी के शासक :
सन् 1115 से 1158 ई. तक सुलतान
बहरामशाह गजनी के शासक रहे ,परन्तु सुल्तान मसूद ,मौदूद एवं इब्राहिमशाह के शासनकालों में शक्तिशाली बने स्लजुक तुर्क इन पर नियंत्रण रखते थे ,या यों कहें कि सुल्तान का ताज इन तुर्को के कारण सुरक्षित था ।
 113. रावल विजयराव लॉझा : यह वि.संवत 1179 (सन 1122 ई) में लुद्र्वा के शासक बने। इन्होंने वि. स. 1204 (सन् 1147 ई.) तक पचीस वर्ष शासन किया । इनके पांच रानियों, पॉच राजकुमार एवं दो राजकुमारियों, लाछाँ एवं लाँघ थी।

1. युवराज भोजदेव". यह अपने पिता के पश्चात् रावल बने । इनकी माता अणहिलवाड़
गुजरात के शासक सिद्धराज जयसिंह सोलंकी की राजकुमारी रानी सोलंकीणी थी ।

2.राजकुमार राहडजी
 इनके कुमारों, नेतसी एवं केकती के वंशज राहड़ भाटी कहलाए
इनके ज्येष्ठ पुत्र कुमार भोपत वर्तमान बीकानेर क्षेत्र की और जाकर बस गए थे और छोटे कुमार कर्ण के वंशज मुसलमान बन गए । उनके वंशज राहड़ भाटी मुसलमान ,सिंध प्रांत के खैरपुर में बस गए ।
 3. राजकुमार हट्टोजी, इनके वंशज हट्टा भाटी कहलाए ।

4.राजकुमार मंगलजी, इनके वंशज मांगलिया भाटी  कहलाए । यह 'थल' संभाग के चालीस गाँवों में रहते थे । इन्होंने यहीं शाहगढ के पास "कोट छाँरण' नाम का किला बनवाया । उन चालीस गाँवों में रहने वाले माँगलिया भाटी सामूहिक रूप से मुसलमान बन गए थे । अब इनकी पहचान मुसलमान फकीरों" के रूप में है ।

5. राजकुमार भीम, इनके वंशज भीया भाटी कहलाते है ।

एक पहुंचे हुए सिद्ध जोगी के आशीर्वाद से रावल बिजयराव लॉंझा को अतुल्य धनसम्पदा प्राप्त हो गई थी। इन्होंने वि.सं. 1195 (सन् 1138 ई.) में नढाजी भाट को पांच गाँव, भटनेर परगने में दो और देरावर परगने में तीन, दे कर उन्हें सोने की 'छडी और सुखपाल भेंट किए थे ।
इन्होंने अन्य कवियों एवं भाटों को भी सात गॉव दिए । इससे स्पष्ट है कि उस समय के भाटी राज्य की सीमाएं उत्तर में भटनेर से और आगे तक थी और पश्चिम से कम से कम सतलज नदी तक ।

धार के राजा तिलोकचन्द परमार के तीन राजकुमारियों" थी, जिनकी सगाई क्रमश: लुद्र्वा के राजकुमार विजयराव भाटी,अणहिलवाड़ पाटण के शासक सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के राजकुमार जयपाल और मेवाड़ के रावल विजयसिम्हा  के साथ हुई । अपने पिता रावल दुसाजी के शासनकाल में युवराज बिजयराव बरात में सात सौ घुड़सवार लेकर धार गये हुए थे। वहां 1 छोटी सी झारी से कपूर मिले हुए जल को छिड़क रहे मेवाड के रावल से इनकी कहा सुनी हो गयी । इससे आहत राजकुमार बिज़यराव ने अपने सेवकों को आदेश दिए कि धार नगर और इसके आसपास के क्षेत्रों में उपलब्ध समस्त कपूर के भण्डार खरीद कर उसे नगर की सभी बावडियों एवं सहस्रलिग झील के जल में घोल दे, ताकि धार नगर की प्रजा लम्बे समय तक सुगन्थित जल पी सके और इसकी महकी सुगंध का आनंद ले सके ।  अपनी एक छोटी सी झारी से कपूर मिले हुए जल का
छिड़काव करके दिखावा कर रहे मेवाड़ के रावल को भाटी राजकुमार द्वारा बावडियों एवं झील में संगृहित सम्पूर्ण जल में कपूर मिलाकर सुगन्धित किए जाने से बहुत नीचा देखना पहा । बहुमूल्य कपूर की खरीद के लिए राजकुमार को बहुत धन खर्च करना पड़ा था और बरात के प्रस्थान करके चले जाने के कई महिनों बाद तक, राजा के उपयोग योग्य सुगंधित जल का आनन्द, धार की प्रजा लेती रही । तब से धार की मिलनसार प्रजा उन्हें चाव से 'शौकीने या 'लाँझा' उपनाम, जिन्हें जीवन में अच्छी चीजों की चाहत रहती थी, कहकर स्नेह से सम्बोधित करने लगी और वह विजयराव लांझा कहलाये। ऐसे ही इनके एक पूर्वज 'चूडाला' उपनाम से विजयराव 'चूंड़ाला' कहलाते थे ।

मेवाड़ के रावल का मानमर्दन करके धार से लुद्रबा लौटने पर विजयी राजकुमार ने वहां  सहस्त्रलिंगजी का मंदिर बनवाया और पास में एक तालाब भी खुदवाया ।

रावल बिजयराव लॉंझा का एक विवाह अणहिलवाडा  पाटण के राजा सिद्धराज जयसिंह सोलंकी की पुत्री और जयपाल, जिनका कुछ समय पहले रावल के साथ-साथ धार में विवाह हुआ था कि बहन के साथ हुआ । '

रावल बिजयराव लाँझा के शासनकाल में पश्चिम में सिन्ध प्रदेश और उत्तर में पंजाब प्रान्त के मुसलमान आक्रांता अपनी शक्ति में बढोतरी करके अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा और दूरस्थ बलख बोखारा व समरकंद से धमकियों भरे हावभाव दिखा रहे थे । उनका मुख्य उद्देश्य भारत की संपदा लूटना, इसके प्राचीन रीतिरिवाजों, जीवन पद्धति व संस्कृति को नष्ट करके राजपूत राज्यों को अस्थिर करना था । उनके निक्टत्तम पडोसी, उत्तरी और पश्चिमी भारत, को नष्ट करने पर उनकी निगाहे टिकी हुई थी । आक्रांताओं की अमानुषिक निष्ठरता के प्रति जनता सामान्यता सचेत थी ।इसलिये उत्तर-पश्चिम भारत में अशान्ति और सतत असुरक्षा के भय की भावना उनमें व्याप्त थी ।उन्ही दिनों रावल विजयराज लॉंझा आबू की  परमार राजकुमारी से विवाह करने आबू गए हुए थे ।
विवाहोत्सव मे गहलोतों, परमारों, सोलकियों (चालुक्यों) आदि प्रमुख राजपूत जातियों के उपस्थित शासकों सामंतों ने सहमत होकर रावल विजयराव लॉंझा को 'उत्तर भट्ट किवाड़ भाटी' उतर के द्वार के रक्षक की उच्च उपाधि से सुशोभित करने की घोषणा की । उनका अभिप्राय रावल विजयराज लांझा को  गुजरात के चालुक्यों मेवाड में गहलोतों और मालवा के परमारों के राज्यों की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली बन रहे उतर के मुसलमानों सुल्तानों के आक्रमणों के विरुद्ध अवरोधक का उत्तरदायित्व सौंपने का था । यहः उतरी सुल्तान ,सिंध के गजनवी शाशक ,घोर का हुसैन और नागौर का मोहमद भालिम थे ।

 इस उपाधि की पवित्रता को सामाजिक व जातीय महत्व प्रदान करने के अभिप्राय से रावल विजयराव लांझा की सास, आबू की रानी, ने वैवाहिक रीति-रिवाजों से पहले प्रांगण में प्रदेश करने पर रावल के ललाट पर पारंपरिक दही से तिलक करते समय इस उपाधि को उत्साह से दोहराया,जिसके उत्तर में रावल ने उन्हें आश्वस्त किया कि यह और उनके वंशज उन्हें सौंपे गए उत्तरदायित्व 'को प्राणों का उत्सर्ग करके भी सदैव निभाएंगे । उस शुभ अवसर से "उत्तर भड़ किवाड़ भाटी’ उनका और उनके भाटी वंशजों का सतत विरुद बन गया ।

माँगीलाल मयंक ने "जैसलमेर राज्य का इतिहास' में भी लिखा है कि रावल बिजयराव का एक विवाह आयू की परमार राजकुमारी के साथ हुआ था । उनकी सास ने उनके ललाट पर दही से तिलक करते 'समय उनसे 'उत्तर दिसि भड़ किवाड़ हुई' का प्रण लेने के लिए कहा । इसके प्रत्युत्तर में रावल ने उन्हें विश्वास दिलाया वि; वह मुसलमानों के आक्रमणों के विरुद्ध उनके उत्तरी सीमांत की रक्षा करेगे । डा. दशरथ शर्मा' के अनुसार, अपनी इस उपाधि की सत्यता को सिद्ध करने के लिए रावल बिजयराव ने गजनी के अमीर खुशरोसाह के विरुद्ध युद्ध में विग्रहराज चौहान (चतुर्थ) की सहायता की । यह निष्कर्ष सही नहीं लगता, क्योंकि रावल बिजयराव का देहान्त सन् 1147 ई. में हो गया वा, जब कि विग्रहराज चौहान (चतुर्थ) बाद में सन् 1150 ही में राजगद्दी पर बैठे थे । यह ज्यादा सम्भव था कि अरनोराज़ चौहान, जिन्होंने पल्लू और सरस्वती घाटी हो कर पंजाब पर आक्रमण किया था, रावल बिजयराव के उत्तरी राज्य के इन्हीं भागों से होकर जागे बढ़ने के लिए उनसे सहमति मांगने के साथ सक्रिय सहायता भी मांग ली हो । किन्तु ऐसी एकमात्र घटना भाटियों द्वारा मुसलमानों के आक्रमणों के विरुद्ध निरन्तर किए जा रहे उत्सर्गों के साथ न्याय नहीं करती । वह अरबों के सिन्ध-मुलतान पर आक्रमणों के समय से महमूद गजनी तक के विरुद्ध लोहा लेते रहे थे और बाद में मोहम्मद गोरी ,मंगोल, तैमूर व अन्यौ के विरुद्ध अपनी क्षमतानुसार लड़ते रहे । उन्होंने 'उत्तर भट्ट किवाड़ भाटी' के अपने विश्वास और प्रण को कभी डिगने नहीं दिया ।

रावल बिजयराव लॉंझा की दोनों राजकुमारियों, लाछाँ और लांझ में जन्म से प्राकृतिक दिव्यता थी । वह रात्रि के समय लुद्र्वा से दूर अपने जैसी अन्य दिव्यात्माओ के साथ धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए एकत्रित होती थीं । उनके इस प्रकार के नित्य रात्रि प्रवास के प्रति उनके भाई युवराज भोजदेव को कुछ स्वाभाविक संदेह होने से वह गुप्तरूप से उनके पीछे जाकर देखना चाहते थे कि वह रात्रि में केसा अनुष्ठान करने जाती थी । एक रात्रि में उन दोनों ने अपने भाई को उनका पीछा करते हुए देख लिया ।क्रुद्ध होकर उन्होंने अपने भाई को श्राप दिया कि उनके पश्चात् उनके स्वयं के वंश का लोप हो जाएगा ।इतना कहकर वह दोनों अनन्त अंतरिक्ष में कभी नहीं लौटने के लिए उडान भर गई ।

अपनी नामराशि के पूर्वज राव बिजयराव चूड़ाला की भांति रावल बिजयराव लॉंझा भी एक शक्तिशाली शासक थे । ख्यातों में भी ऐसे नाम के दो शासक का वर्णन है । एक से भट्टिका संवत् 501 (व्रि.सं. 1181 . सन् 1124 ई) का एक शिलालेख) प्राप्त हआ है जिसमें शासक का विरुद है  'परम भट्ठारक महाराजाधिराज परमेश्वर बिजयराव देवेन प्रदत्त तनियत महमादृय श्री हरिप्रसाद सूत्रधार श्रीधर । ' रावल विजयराव लॉंझा द्वारा इस प्रकार का उच्च श्रेणी का उत्कृष्ट विरुद अपनाने का कारण स्पष्ट नहीं है । '

इनसे पहले सांभर के सिंहराज चौहान (सन् 944-71 ई ) ने इस प्रकार का विरुद अपनाया  था : 'परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' है कुछ समय पश्चात् पृथ्वीराज चौहान (प्रथम) (सन 1090- 1110 ई.) ने सन् 1105 ई में खोहड़ विजय के उपलक्ष्य में ऐसा ही विरुद धारण किया था । रावल बिजयराव लाँझा के पश्चात् नाडौल के शासक केलण चौहान (सन् 1163-92 ) ने अपने आप को गुजरात के शासक भीमदेव चालुक्य (द्वितीय) के आधिपत्य से स्वतंत्र घोषित करके 'महाराजाधिराज परमेश्वर' का विरुद अपनाया था । जालोर के छाछगदेव चौहान (सन् 1257-82 इं.) ने भी "महामंडलेश्वर राजा, महाराजाधिराज महाराज' का समराजियक विरुद्ध ग्रहण किया था ।

रावल बिज़यराव लॉंझा ने जैसल और उनके सहयोगी असन्तुष्ट सामंतों को चालुक्यों की सहायता से पराजित करने के पश्चात् शक्तिशाली होकर पंजाब व उत्तर-पश्चिमी भारत से आक्रमण करने वाले मुसलमान आक्रांताओं को परास्त करके उपरोक्त उपाधि ग्रहण की ।

उनके काल के शिलालेखों में केवल अकेले रावल का नाम दिया गया है । उनके साथ पुर्वजों या राजकुमारों के नाम नहीं दिए गए हैं इसलिए यह अनुमान लगाना कठिन है कि शिलालेख में इंगित बिजयराव कौंनसे थे । श्री दशरथ शर्मा का निष्कर्ष है कि यह रावल बिज़यराव् लांंझा होने चाहिए ।

रावल बिजयराव लोंझा एक यशस्वी शासक थे अजयराज़ चौहान (द्वितीया )एंव  अरणीराज, शाकम्भरी (अजमेर), विजयचन्द्र और गोविन्द-, कन्नौज. परमारदीन मौहबा, पाटन सिद्धराज जयसिंह एवं कुमारपाल उनके समकालीन शासक थे । इन शक्तिशाली एवं यशस्वी
शासकों के साथ उनके पारिवारिक सम्बन्धों का उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु इनकी उपाधि से स्वतः प्रमाणित होता है कि कन्नौज़, पाटन, महोबा, सांभर, अजमेर के शासकों से इनकी प्रतिज्ञा, गौरव प्रभाव कम नहीं था । वह 'शक्ति' के उपासक थे ।

इनके पिता के रहते हुए राजकुमार का विवाह अणहिलवाड़ पाटन के राजा जयसिंह सोलंकी
(चालुक्य) की राजकुमारी के साथ हो गया था, इसलिए उनके देहान्त पर चालूक्यों की सहायता से स्वय युव्राज जैसल के स्थान पर अन्यायपूर्ण तरीके से लुद्र्वा के शासक वन गए और इन्होंनै चालुक्यों के आधिपत्य से अपने राज्य को मुक्त कराया । तणोट और उसके पश्चिम के क्षेत्रो पर जैसल का अधिकार रहा । यह क्षेत्र उनके पिता ने उन्हें निर्वाह के लिए दे रखा था ।

गुजरात के शासक कुमारपाल चालुक्य (सन 1142-73 ई)  ने अपने अधीनस्थ किराडु के शासक सोमेश्वर परमार (सन 1141-61ई) को निर्देश दिए की वह जैसल के विरुद्ध रावल बिजयराव की सहायता  करे । वि.स 1218 (सन 1161 ई.) के किराडू शिलालेख से ज्ञात होता है कि सोमेश्वर परमार ने तनोट ,नोसर (नवासर),उन्छ पर आक्रमण करके असंतुष्ट विद्रोही प्रमुख  जज्जक (जैसल) को पराजित किया। शिलालेख ने वर्णित यह तथ्य महत्वपूर्ण है की पराजित प्रमुख के पास तणोट और इसके पश्चिम का क्षेत्र इस शर्त पर रहने दिया गया कि वह शक्तिशाली चालुक्यों के जंवाई ,रावल बीजयराव के साथ छेड़छाड़ नहीं करेंगे । तणोट पर आक्रमण करने के लिए सोमेश्वर परमार ने अंकल,  लुद्रवा, रामगढ़ का मार्ग लिया था । अंकल यह स्थान है जहा से लुद्गवा से किरांडु, बाड़मेर और गुजरात की और जाने वाले मार्ग निकलते हैं ।


मेरे विचार में उपरोक्त घटना रावल जैसल के शासनकाल की है । उन्होंने चालुक्यों के  भानजे भोजदेव को परास्त करके मारकर लुद्रवा पर अधिकार कर लिया था, परन्तु चालुक्यों जिन्होंने उन्हें निर्वासित का विजयराव को लुद्रवा का शासक बनाने में अहम भूमिका निभाई हैं, के आधिपत्य को स्वीकार नहीं क्रिया । इसलिए रावल जैसल, जिनका शक्ति केन्द्र अभी तणोट ओर उसके पश्चिम में था और अधिकांश सेना व समर्थक तणोट से पश्चिम की सिन्ध नदी की घाटी में थे, को अधीन करने के लिए कुमारपाल चालुक्य ने सोमेश्वर परमार को तणोट पर आक्रमण करने के निर्देश दिए । इसके पश्चात् हुई संधि के फलस्वरूप रावल जैसल ने चालुक्यों की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली और बदले में उन्होंने उन्हें लुद्र्वा राज्य एवं तणोट व उसके पश्चिम के क्षेत्रों पर शासन करने
की मान्यता दी । किराडू के शिलालेख में केवल यह उल्लेख है कि सोमेश्वर परमार ने विद्रोही प्रमुख जज्जक को परास्त कीया, परन्तु यह कहीं उल्लेख नहीं है कि वह रावल विजयराव. की सहायतार्थ गए थे। क्यों कोई संदेह नहीं कि पूर्वं में उनके साथ लिए गए अन्याय के कारण रावल जैसल चालुक्यों के विरुद्ध विद्रोही अवश्य थे और लुद्र्वा के शासक बनने पर उन्होंने उनकी प्रभुता को मान्यता नही दी,जिसके कारण चालुक्यों ने बल प्रयोग करके उपरोक्त संधि करने के लिए रावल जैसल को बाध्य किया । रावल विजयराव लांझा अपनी दानशीलता शौर्य एवं प्रजा की भलाई के लिए करवाये गये निर्माण कार्यों के लिए प्रसिद्ध थे ।

दोहा: यह सह हाले पांखती,भूप अनेड़ माल ।
     आयो धणी बन्धावसि,बिजड़ासर री पाल।।

दोहा: तैसुं वडे न सूमरा ,लांझो बिजेराव ।
       मांगण ऊपर हथडा ,बेरी ऊपर घाव ।।

जय श्री कृष्ण
सन्दर्भ ग्रन्थ :-गजनी से जेसलमेर हरिसिंह भाटी
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