=====हमारी चम्बल एक सिंह अबलोकन=====
उबड़ खाबड़ जमीन कभी सेकड़ो फिट गहरी खायी तो कभी सैकड़ो फिट ऊँचे पहाड़ नुमा ढलानों से छेँकुर,बबूल,गुग्गल,पीपल,पिलुआ,हिंस, नीम ,गुबड़ा,श्वेतार्क जेसी बहुमूल्य औषिधियो से परिपूर्ण एक क्षत्रीय बाहुल्य क्षेत्र हे "तंवर घार"..
जिसके पूर्व में भोर के समय स्वर्णमय आभा आच्छादन तो शाम को रजत प्रकीर्णन करती माता चम्बल की कल कल निनादिनी स्नेह बत्सलता का शुभाशीष मिलता हे ।
एक दृष्टि में आम जन्मानष् के कर्णो के द्वारा श्रवण हुआ ये शब्द अक्सर मष्तिष्क में एक डरावनि छवि
डाकू का वृतचित्र बना देती किन्तु सत्य से मीलो दूर ले जाने बाला भरम हमारे मष्तिष्क पटल को संकीर्ण और संकीर्ण करता रहा ।
यथार्थ में इस वीर भूमि पर डाकू न होकर देश की संस्कृति एव धर्म को बचाने के लिए करीव १५शताब्दी पहले मुगलो के विरुद्ध एक छापामार सैना का गठन तत्कालीन रियास्तदारो,जमीदारो ,ठाकुरो के सहयोग से हुआ ।
तत्कालिक तोमर,भदोरिया,कछवाह ,सिकरवार,परिहार क्षत्रिय कुलो से सुसज्जित सैना ने मुगलो को कभी इस क्षेत्र में दखल न होने दिया ।
जिसमे क्षेत्रीय दैवीय शक्तियो का सहयोग का भी वर्णन बुजुर्गो के श्री मुख से मिलता हे ।
जिसमे 5 वि शताब्दी कालीन महादेव जी का पुरातन महुआदेव मन्दिर ठिकाना महुआ (महुआ,पालि,विजयगढ़) पर हुए महमूद गजनवी के हमले में गजनवी सैना मंदिर प्रांगड़ से पहले ही अंधी हो गयी थी ।
परिणीति में मलेक्ष्य सैना को गाजर मूली की तरह बीहड़ी खारो में ही काट कर निपटा दिया गया ।
जिसकी याद में आज भी फाल्गुन माह की तृतीय तिथि को बिशाल दंगल और मेले का आयोजन होता आ रहा हे ।
किसी भी दुष्ट आक्रमणकारी ने कभी फिर साहस न किया इस क्षेत्र में आक्रमण करने का ।
यही युद्ध शैली हल्दी घाटी के महान पूर्वज योद्धा ग्वालियर महाराज श्री रामशाह तोमर जी ने अपनायी ।
छापामार,गुर्रिल्ला युद्ध का समिश्रण ही था की दुस्ट अकबर को बार मुह की खानी पड़ी मेवाड़ में ।
यहाँ के जल में ही ऐसी विलक्षण गुण विद्द्यमान हे की जिसे पान करते ही देशभक्ति मातृभूमि की भावनाये समन्दर के सामान असीम हो उठती हे । पोरसा तहसील से मात्र 7 किमी दूर
पुरानी_कोंथर ठिकाने के अद्भुत कुए आज भी विद्यमान हे जिनके मात्र जलपान से लगातार 2वर्ष तक अंग्रेजी और सिंधिया फौज को रुलाये रखा ग्राम वासियो ने । शनै शनै समय के थपेड़ो में ये वीर भूमि जिस सैना के नाम से विख्यात थी वही उसी को अंग्रेज शाशन में वीर का अपभ्रंश बागी बना दिया....
जो आगे चलकर क्रान्ति की अलख में शामिल हुए बो बागी कहलाये अंततः ब्रिटिस सरकार की नीति फुट डालो शाशन करो लागू किया गया ।
और कुछ मन्द बुद्धि,धन लोलुप प्राणियो को छद्म उपाधियों का लालच देकर इस क्षेत्र की अखण्डता को छिन्न भिन्न कर दिया गया ।
डकेत शब्द का प्रचलन भी इन्ही धन लोलुप गुलामो के कारण आया ।
सत्यता में ये क्रान्ति के नायक थे जिन्होंने रसूखदारों के जुल्म से त्रस्त होकर बीहड़ो का रास्ता लिया और स्वम ही स्वम को रायफल से न्याय दिलाने चम्बल की गोद में शरण ली ।
फिर चाहे बो रामप्रसाद बिस्मिल जी हो असफाक उल्ला खान हो या ठाकुर रोशन सिंन्ह जी
या नगरा के ठाकुर सूबेदार सिंह,माधो सिंह लाखन सिंह रुपा पण्डित ,फूंदी बाड़हि,जिलेदार सिंह ,हजूरी ,लायक,रमेश सिकरवार,रमेश राजावत इत्यादि या भारत की स्टेपल रेस के प्रशिद्ध धावक विश्व कीर्तिमान बनाने बाले पानसिंह तोमर ।
ये बागी स्वतः नहीं बने समय और मजबूरी में हथियार उठाना ही पढ़ता हे ।
(जिनपर क्रम बार समय मिलने पर चम्बल गाथा के साथ लिखूंगा )
(हालांकि कुछ दुस्ट डाकुओ ने सिर्फ लूटपाट ही की हे इसलिए उनका वर्णन निर्थक हे )
सलग्न चित्र प्रशिद्ध बाग़ी माधो सिंह ,मोहर सिंह
आगे अंक क्रमश :
जय वीर भूमि "तंवरघार"
साभार -जितेन्द्र सिंह तोमर
जय चिल्लाय भवानी
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