उज्जैन
के परमार वंश की एक शाखा सिंध के रेगिस्तान में आई। वह शाखा के मुलपुरुष
सोढाजी के नाम से सोढा परमार कहलाई। सोढा ओके हाथ में अमरकोट की जागीर आई।
थरपारकर का राज यानी रेती के रण का राज।
बापू रतनु जी तो कैलाश के वासी हो गए थे। पर माता जोमबाई थे, उनके चार पुत्र आखोजी, आसोजी, लखधीरजी और मुंजोजी थे।
माँ बेटे भगवान पारसनाथ के परम भक्त थे।
संवत 1474 में थरपारकर में अकाल पड़ा। दो हजार सोढा अपनी गाय भैसों के साथ अकाल से बचने सोरठ जाने को तैयार हुए तब चारो भाइयो को चिंता होने लगी की परदेश में अपनी बस्ती की रक्षा कोण करेगा?
आखोजी बोले: भाई लखधीर, तुम और मुंजोजी बस्ती के साथ जाओ, में और आसो यहा का ध्यान रखेंगे।
लखधीरजी और मुंजाजी बस्ती के साथ जाने अपनी हंसली घोड़ी पर सवार हुए। तब माता जोमबाई ने कहा: बेटा, परदेश में अपनी बस्ती को माँ कहा से मिलेगी? इस लिए में भी साथ आउंगी।
माताजी भी रथ में बेठ गयी, और बस्ती साथ चली। जगह जगह मुकाम करते करते चल पड़े सोरठ की और।
पर लखधीरजी को प्रण था की वे इष्टदेव पारसनाथ के दर्शन करने के बाद ही अन्न ग्रहण करते थे। इस लिए जहा वे मुकाम करते वहां से लखधीरजी अपनी हंसली घोड़ी को वापस मोड़कर पीलू गाव में जहा उनके देव का मंदिर था वहां आकर देव की पूजा करते और बाद में ही भोजन ग्रहण करते। पर जेसे जेसे मुकाम हररोज आगे बढ़ता जा रहा था इस हिसाब से उनको पीलू पहोचने ने समय ज्यादा लगने लगा।
एक रात को लखधीरजी के स्वप्न में आकर देव ने कहा :" बेटा, कल सवेरे सूर्यनारायण के उगते ही आपको सामने एक कुवारी गाय आकर जमीन पर अपना पैर खुतरेगी, उस जमींन को खोदना वहां तुम्हे मेरी प्रतिमा मिलेगी, उस प्रतिमा के दर्शन कर तुम भोजन ग्रहण करना, उसे अपने साथ रथ में ले जाना जहा तुम्हारा रथ अटक जाए, आगे न चल पाये वहा उस प्रतिमा की स्थापना करना, उस जगह तुम्हे फ़तेह मिलेगी।
और देव के कहे अनुसार सवेरे मांडव में एक गाय लखधीरजी के सामने आकर जमीन पर एक जगह अपना पैर घिसने लगी। लखधीरजी ने उस जगह खुदवाया, वहा उन्हें देव मांडवरायजी की प्रतिमा मिली, मांडवरायजी को जोमबाई ने रथ में बिठाया। और सोने के थाल के समान पांचाल भूमी पर मोती के दाने जेसे पर्वतो की माला देखकर अग्निपुत्र परमार आगे बढे।
कंकु वर्णि भोमका सरवो सालेमाळ।
नर पटाधर निपजे भोय देवको पांचाल॥
नदी खळके नीझरणा मलपता पीए माल।
गाळे कसुम्बा गोवालिया पड जोवो पांचाल॥
ठाँगो मांडव ठीक छे कदी न आँगन काल।
चारपगा चरता फरे पड जोवो पांचाल॥
चलते चलते एक दिन उस सोहमने प्रदेश में एक छोटी सी नदी को पार करते समय नदी के बिच में रथ रुक गया। कई सारे बैल भी जोड़कर देवका रथ खिंचा पर रथ अपनी जगह से ज़रा भी न हिला। तब लखधीरजी ने अपनी पाघड़ी का छेड़ा गले में डालकर प्रभु को हाथ जोड़ कहा: हे देव मांडवराय, आपने कही बात मुझे याद हे की जहा रथ रुके वहा में आपकी स्थापना कर गाव बसाऊ, पर हे देव, इस नदीके बीचोबीच गाव कैसे बन सकता है? आप कृपा कर सामने किनारे तक चलिए वहां आपकी स्थापना कर में गाँव बसाऊंगा। और इतना कहकर उन्होंने रथ के पहिये पर हाथ लगाया ही था कि जेसे रथ के निचे नदी के अंदर आरस का मार्ग बन गया हो इतनी आसानी से रथ चल गया।
किनारे पर लखधीरजी ने बस्ती को गाव बसाने का आदेश दिया। पर उन्होंने सोचा यह प्रदेश अपना नहीं हे इसलिए प्रथम इस प्रदेश के राजा से अनुमति मांगनी चाहिए। उन्होंने तपास की, वह प्रदेश वढवान के वाघेला राजा वीसलदेव जी का था।
पूरी बस्ती का ख्याल रखने का मुंजाजी को सोपकर लखधीरजी वढवान आये। वाघेला वीसलदेव चोपाट खेल रहे थे। अपनी हंसली घोड़ी के पैर में लोहे की नाळ डालकर घोड़ी लगाम पकड़ कर वे वहा खड़े रहे। वीसलदेव ने आगंतुक को देखा, देखते ही लखधीरजी उनको पूर्ण क्षात्रत्व को धारण किये दिखे।
वीसलदेव ने उनसे नाम-ठाम पूछे बिना ही चोपाट खेलने का न्योता दिया। लखधीरजी भी चोपाट खेलने बेठे। वीसलदेव ने घोड़ी को बांध देने के कहने पर लखधीरजी ने कहा यह घोड़ी मेरे बिना और कही पर भी नही रहेगी। और में हु तब तक वह बैठेगी भी नही।
हाथ में ही घोडी की लगाम पकडे रखे वे चोपट खेलने लगे। चोपट में लखधीरजी का हाथ गजब का चलता था। चाहे जैसे पासे डाल सकते थे।
खेल ख़त्म हुआ तब वीसलदेव ने वे कौन है तथा उनके आने का प्रयोजन पूछा तब लखधीरजी ने उनको पूरी बात बताई।
वीसलदेव ने कहा: वह जमीन तो बंजर ही पड़ी हे। अगर आप उस जमींन पर कब्जा भी कर लेते तो भी में कुछ न कहता। पर आप ने राजपूती दिखाई इस लिए में वह गौचर के उपरान्त वहा की सारी जमींन आपको देता हु। पर आपको हररोज यहाँ मेरे साथ चोपाट खेलने आना पड़ेगा।
वीसलदेव की शर्त मान कर लखधीरजी अपनी बस्ती में वापस आये।पर वीसलदेव के दरबार के कुछ दरबारिओ को यह बात पसंद न आई। अतः उन्होंने परमारों को अपने प्रदेश से खदेड़ने के प्रयास शुरू किये।
सायला के चभाड़ राजपुतो ने एक दिन जब लखधीरजी वीसलदेव के पास वढवान में थे तब शिकार का बहाना कर एक तीतर पक्षी को शिकार में घायल किया। तीतर भागता हुआ परमारों की जमींन में आ गिरा। तीतर भागता हुआ जोमबाई जहा अपने इष्टदेव मांडवरायजी की उपासना कर रहे थी वहां मांडवरायजी जी प्रतिमा के बाजोठ के निचे छिप गया। जोमबाई ने उस घायल पक्षी को बाहर निकाला और उस फड़फड़ाते पक्षी को अपने आँचल में आश्रय दिया।
बाहर चभाड़ सोढा परमारों से कहने लगे हमारा शिकार हमे वापस दो, वर्ना परिणाम अच्छा नही रहेगा।
जोमबाई तीतर को अपने हाथ में लिए बाहर आये, चभाड़ो ने तीतर को जोमबाई के हाथ में देखकर मन ही मन खुश हुए, जोमबाई ने कहा: आप दिखने में तो राजपूत दिखते हो!
चभाड़ो ने कहा : हां हम चभाड़ राजपूत है।
तब जोमबाई ने कहा : "तो क्या तुम लोग यह नही जानते की राजपूत कभी भी अपने शरणागत को नही सौपते? यह तेतर हमारी जमींन में आकर गिरा हे, भगवान मांडवरायजी इसे रक्षण दे रहे हे। हम इसे नहीं दे सकते।"
तब चभाडो ने युद्ध करने को कहा इस पर जोमबाई ने अपने बेटे मुंजाजी को कहा : बेटा, राजपूतो का आशराधर्म आज तुजे निभाना हे।
सोढा परमार और वीसलदेव की सेना भीड़ गयी। घमासान युद्ध हुआ और वहा रक्त की धाराए बहने लगी, एक तीतर को बचाने के लिए सोढा परमार अपने रक्त से उस धरती को सींचने लगे, चभाड़ो को गाजरमुली की तरह काटने लगे। मुंजाजी अपने अप्रतिम शौर्य को दिखाते हुए रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए।
उस युद्ध में 500 चभाड़ो के सामने 140 सोढा परमार राजपूत योद्धा काम आये।
लखधीरजी को वढवान में पता चलते ही वे अपनी बस्ती में आये, वहा परमार माता जोमबाई अपने बेटे मुंजाजी के मृत शरीर के पास बेठी थी। लखधीरजी ने माता को आश्वासन देते हुए कहा : माँ, मुंजा तो अपनी शौर्यभरी गाथा यहा छोड़ गया हे। उस पर आसु मत बहाना। राजपूती आश्रय धर्म को बचाने वह इस धरती की गोद में सो गया हे।
तब जोमबाई ने कहा : बेटा लखधीर, तेरे पिता के स्वर्गवास को 20 वर्ष हो गए हे। तेरे पिता की मृत्यु पर मुंजा मेरे पेट में था इस लिए में सती ना हो पायी थी पर आज में अपने पुत्र के साथ तेरे पिता के पास जाउंगी।
और वहा जोमबाई अपने पुत्र की चिता में बैठकर सती हो गयी। आज भी वहां की खांभी जेसे उन के शौर्य की बात कहती हो ऐसे अडग खड़ी हे।
एक अबोल तीतर की जीवरक्षा के लिए सोढा परमारों ने अपने प्राणों की आहुति देकर राजपूतो के आश्रयधर्म को निभाकर अपना नाम इतिहास में अमर कर दिया।
लखधीरजी ने जो नगर बसाया था उस का नाम मूली रखा था जो आज भी विद्यमान है। कहते है कि इस नगर का नाम लखधीरजी के धर्म बहिन मूली के नाम पर रखा था
थरपारकर का राज यानी रेती के रण का राज।
बापू रतनु जी तो कैलाश के वासी हो गए थे। पर माता जोमबाई थे, उनके चार पुत्र आखोजी, आसोजी, लखधीरजी और मुंजोजी थे।
माँ बेटे भगवान पारसनाथ के परम भक्त थे।
संवत 1474 में थरपारकर में अकाल पड़ा। दो हजार सोढा अपनी गाय भैसों के साथ अकाल से बचने सोरठ जाने को तैयार हुए तब चारो भाइयो को चिंता होने लगी की परदेश में अपनी बस्ती की रक्षा कोण करेगा?
आखोजी बोले: भाई लखधीर, तुम और मुंजोजी बस्ती के साथ जाओ, में और आसो यहा का ध्यान रखेंगे।
लखधीरजी और मुंजाजी बस्ती के साथ जाने अपनी हंसली घोड़ी पर सवार हुए। तब माता जोमबाई ने कहा: बेटा, परदेश में अपनी बस्ती को माँ कहा से मिलेगी? इस लिए में भी साथ आउंगी।
माताजी भी रथ में बेठ गयी, और बस्ती साथ चली। जगह जगह मुकाम करते करते चल पड़े सोरठ की और।
पर लखधीरजी को प्रण था की वे इष्टदेव पारसनाथ के दर्शन करने के बाद ही अन्न ग्रहण करते थे। इस लिए जहा वे मुकाम करते वहां से लखधीरजी अपनी हंसली घोड़ी को वापस मोड़कर पीलू गाव में जहा उनके देव का मंदिर था वहां आकर देव की पूजा करते और बाद में ही भोजन ग्रहण करते। पर जेसे जेसे मुकाम हररोज आगे बढ़ता जा रहा था इस हिसाब से उनको पीलू पहोचने ने समय ज्यादा लगने लगा।
एक रात को लखधीरजी के स्वप्न में आकर देव ने कहा :" बेटा, कल सवेरे सूर्यनारायण के उगते ही आपको सामने एक कुवारी गाय आकर जमीन पर अपना पैर खुतरेगी, उस जमींन को खोदना वहां तुम्हे मेरी प्रतिमा मिलेगी, उस प्रतिमा के दर्शन कर तुम भोजन ग्रहण करना, उसे अपने साथ रथ में ले जाना जहा तुम्हारा रथ अटक जाए, आगे न चल पाये वहा उस प्रतिमा की स्थापना करना, उस जगह तुम्हे फ़तेह मिलेगी।
और देव के कहे अनुसार सवेरे मांडव में एक गाय लखधीरजी के सामने आकर जमीन पर एक जगह अपना पैर घिसने लगी। लखधीरजी ने उस जगह खुदवाया, वहा उन्हें देव मांडवरायजी की प्रतिमा मिली, मांडवरायजी को जोमबाई ने रथ में बिठाया। और सोने के थाल के समान पांचाल भूमी पर मोती के दाने जेसे पर्वतो की माला देखकर अग्निपुत्र परमार आगे बढे।
कंकु वर्णि भोमका सरवो सालेमाळ।
नर पटाधर निपजे भोय देवको पांचाल॥
नदी खळके नीझरणा मलपता पीए माल।
गाळे कसुम्बा गोवालिया पड जोवो पांचाल॥
ठाँगो मांडव ठीक छे कदी न आँगन काल।
चारपगा चरता फरे पड जोवो पांचाल॥
चलते चलते एक दिन उस सोहमने प्रदेश में एक छोटी सी नदी को पार करते समय नदी के बिच में रथ रुक गया। कई सारे बैल भी जोड़कर देवका रथ खिंचा पर रथ अपनी जगह से ज़रा भी न हिला। तब लखधीरजी ने अपनी पाघड़ी का छेड़ा गले में डालकर प्रभु को हाथ जोड़ कहा: हे देव मांडवराय, आपने कही बात मुझे याद हे की जहा रथ रुके वहा में आपकी स्थापना कर गाव बसाऊ, पर हे देव, इस नदीके बीचोबीच गाव कैसे बन सकता है? आप कृपा कर सामने किनारे तक चलिए वहां आपकी स्थापना कर में गाँव बसाऊंगा। और इतना कहकर उन्होंने रथ के पहिये पर हाथ लगाया ही था कि जेसे रथ के निचे नदी के अंदर आरस का मार्ग बन गया हो इतनी आसानी से रथ चल गया।
किनारे पर लखधीरजी ने बस्ती को गाव बसाने का आदेश दिया। पर उन्होंने सोचा यह प्रदेश अपना नहीं हे इसलिए प्रथम इस प्रदेश के राजा से अनुमति मांगनी चाहिए। उन्होंने तपास की, वह प्रदेश वढवान के वाघेला राजा वीसलदेव जी का था।
पूरी बस्ती का ख्याल रखने का मुंजाजी को सोपकर लखधीरजी वढवान आये। वाघेला वीसलदेव चोपाट खेल रहे थे। अपनी हंसली घोड़ी के पैर में लोहे की नाळ डालकर घोड़ी लगाम पकड़ कर वे वहा खड़े रहे। वीसलदेव ने आगंतुक को देखा, देखते ही लखधीरजी उनको पूर्ण क्षात्रत्व को धारण किये दिखे।
वीसलदेव ने उनसे नाम-ठाम पूछे बिना ही चोपाट खेलने का न्योता दिया। लखधीरजी भी चोपाट खेलने बेठे। वीसलदेव ने घोड़ी को बांध देने के कहने पर लखधीरजी ने कहा यह घोड़ी मेरे बिना और कही पर भी नही रहेगी। और में हु तब तक वह बैठेगी भी नही।
हाथ में ही घोडी की लगाम पकडे रखे वे चोपट खेलने लगे। चोपट में लखधीरजी का हाथ गजब का चलता था। चाहे जैसे पासे डाल सकते थे।
खेल ख़त्म हुआ तब वीसलदेव ने वे कौन है तथा उनके आने का प्रयोजन पूछा तब लखधीरजी ने उनको पूरी बात बताई।
वीसलदेव ने कहा: वह जमीन तो बंजर ही पड़ी हे। अगर आप उस जमींन पर कब्जा भी कर लेते तो भी में कुछ न कहता। पर आप ने राजपूती दिखाई इस लिए में वह गौचर के उपरान्त वहा की सारी जमींन आपको देता हु। पर आपको हररोज यहाँ मेरे साथ चोपाट खेलने आना पड़ेगा।
वीसलदेव की शर्त मान कर लखधीरजी अपनी बस्ती में वापस आये।पर वीसलदेव के दरबार के कुछ दरबारिओ को यह बात पसंद न आई। अतः उन्होंने परमारों को अपने प्रदेश से खदेड़ने के प्रयास शुरू किये।
सायला के चभाड़ राजपुतो ने एक दिन जब लखधीरजी वीसलदेव के पास वढवान में थे तब शिकार का बहाना कर एक तीतर पक्षी को शिकार में घायल किया। तीतर भागता हुआ परमारों की जमींन में आ गिरा। तीतर भागता हुआ जोमबाई जहा अपने इष्टदेव मांडवरायजी की उपासना कर रहे थी वहां मांडवरायजी जी प्रतिमा के बाजोठ के निचे छिप गया। जोमबाई ने उस घायल पक्षी को बाहर निकाला और उस फड़फड़ाते पक्षी को अपने आँचल में आश्रय दिया।
बाहर चभाड़ सोढा परमारों से कहने लगे हमारा शिकार हमे वापस दो, वर्ना परिणाम अच्छा नही रहेगा।
जोमबाई तीतर को अपने हाथ में लिए बाहर आये, चभाड़ो ने तीतर को जोमबाई के हाथ में देखकर मन ही मन खुश हुए, जोमबाई ने कहा: आप दिखने में तो राजपूत दिखते हो!
चभाड़ो ने कहा : हां हम चभाड़ राजपूत है।
तब जोमबाई ने कहा : "तो क्या तुम लोग यह नही जानते की राजपूत कभी भी अपने शरणागत को नही सौपते? यह तेतर हमारी जमींन में आकर गिरा हे, भगवान मांडवरायजी इसे रक्षण दे रहे हे। हम इसे नहीं दे सकते।"
तब चभाडो ने युद्ध करने को कहा इस पर जोमबाई ने अपने बेटे मुंजाजी को कहा : बेटा, राजपूतो का आशराधर्म आज तुजे निभाना हे।
सोढा परमार और वीसलदेव की सेना भीड़ गयी। घमासान युद्ध हुआ और वहा रक्त की धाराए बहने लगी, एक तीतर को बचाने के लिए सोढा परमार अपने रक्त से उस धरती को सींचने लगे, चभाड़ो को गाजरमुली की तरह काटने लगे। मुंजाजी अपने अप्रतिम शौर्य को दिखाते हुए रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए।
उस युद्ध में 500 चभाड़ो के सामने 140 सोढा परमार राजपूत योद्धा काम आये।
लखधीरजी को वढवान में पता चलते ही वे अपनी बस्ती में आये, वहा परमार माता जोमबाई अपने बेटे मुंजाजी के मृत शरीर के पास बेठी थी। लखधीरजी ने माता को आश्वासन देते हुए कहा : माँ, मुंजा तो अपनी शौर्यभरी गाथा यहा छोड़ गया हे। उस पर आसु मत बहाना। राजपूती आश्रय धर्म को बचाने वह इस धरती की गोद में सो गया हे।
तब जोमबाई ने कहा : बेटा लखधीर, तेरे पिता के स्वर्गवास को 20 वर्ष हो गए हे। तेरे पिता की मृत्यु पर मुंजा मेरे पेट में था इस लिए में सती ना हो पायी थी पर आज में अपने पुत्र के साथ तेरे पिता के पास जाउंगी।
और वहा जोमबाई अपने पुत्र की चिता में बैठकर सती हो गयी। आज भी वहां की खांभी जेसे उन के शौर्य की बात कहती हो ऐसे अडग खड़ी हे।
एक अबोल तीतर की जीवरक्षा के लिए सोढा परमारों ने अपने प्राणों की आहुति देकर राजपूतो के आश्रयधर्म को निभाकर अपना नाम इतिहास में अमर कर दिया।
लखधीरजी ने जो नगर बसाया था उस का नाम मूली रखा था जो आज भी विद्यमान है। कहते है कि इस नगर का नाम लखधीरजी के धर्म बहिन मूली के नाम पर रखा था
Good
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हटाएंबढ़िया
जवाब देंहटाएंabhar apka
हटाएंआपका लाख आभार की उन महान वीरो से परिचित करवाया😊🙏🙏
जवाब देंहटाएंabhar apka
हटाएंआभार सुरसा
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हटाएंbahut bdiya bhati saab
जवाब देंहटाएंBohot badhiya sir
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